कुछ दिनों से एक दवा कंपनी द्वारा डॉक्टरों को कथित रूप से कमीशन देने का मामला चर्चा में है. यह कोई नयी और छुपी बात नहीं है. मरीज, मीडिया और सरकार को इसका पता है. अगर हम चाहते है कि इसे रोकने के लिए चिकित्सा आयोग या कोई अन्य संस्था कार्रवाई करे, तो यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है क्योंकि एक-एक डॉक्टर या कंपनी की जांच तो हो नहीं सकती है.
इसके बजाय ऐसे उपायों पर सोचा जाना चाहिए कि ऐसी नौबत ही न आये. पहले हमें यह समझना चाहिए कि किसी दवा की कीमत कैसे तय होती है. जब कोई कंपनी शोध व अनुसंधान के बाद कोई दवा बनाती है, तो उस पर 20 साल तक उसका एकाधिकार होता है यानी कोई अन्य कंपनी उसका निर्माण व बिक्री नहीं कर सकती है. उसे छोड़ दें, वह पेटेंट का मामला है. जो दवा बाजार में है, उसका एक दाम लिखा होता है, जिसकी अनुमति दवा नियंत्रण विभाग देता है.
मान लें कि कैंसर की किसी दवा पर दाम 17 हजार रुपये लिखा हुआ है, पर जब आप थोक विक्रेता से लेंगे, तो वह 22 सौ रुपये में मिल जाती है. इसका मतलब है कि कंपनी की लागत और मुनाफा उसी में शामिल है. अब सवाल यह है कि जब उस पर 17 हजार रुपये लिखा जा रहा था, तो सरकार ने उसकी अनुमति क्यों दी. जैसे ही यह मार्जिन बढ़ता है, भ्रष्टाचार शुरू हो जाता है. इसमें डॉक्टरों का नाम बेवजह लिया जा रहा है.
मुख्य दोषी हैं कॉरपोरेट अस्पताल क्योंकि वे चिकित्सकों को वेतन पर रख लेते हैं. हालांकि सभी डॉक्टर वेतन पर नहीं होते. मैंने ही कभी अस्पताल से वेतन नहीं लिया. वेतन पाने वाले डॉक्टरों को लक्ष्य दे दिया जाता है कि आपको इतनी दवा बिकवानी है, इतनी आमदनी पैदा करनी है. अब जो दवा की मार्जिन है, उसमें से कुछ अंश डॉक्टर को और अधिक अंश अस्पताल के पास चला जाता है. कुछ समय पहले जब इन मामलों पर हंगामा हुआ, तो इंप्लांट, स्टंट और कैंसर की कुछ दवाओं की कीमतों की सीमा तय की गयी.
यह सीमा तय करने के लिए उन दवाओं और साजो-सामान को आवश्यक दवाओं की सूची में डाल दिया गया. आज हमारे देश में केवल 20 प्रतिशत दवाएं ऐसी हैं, जो इस सूची में आती हैं. शेष 80 प्रतिशत दवाओं में मनमाने ढंग से दाम लिखकर मुनाफाखोरी की जा रही है. अब यहां सरकार से मेरा सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति टॉफी या कॉफी की तरह दवाई खाता है. दवा तो तभी खायी जाती है, जब उसकी जरूरत होती है. शौक से कोई भी दवा नहीं लेता. तो, दवा तो हमेशा आवश्यक श्रेणी में ही होनी चाहिए.
सबसे पहले यह किया जाना चाहिए कि सभी दवाओं को आवश्यक दवा सूची में डालना चाहिए. उसके बाद लागत और नफा का हिसाब-किताब कर दवाओं की अधिकतम खुदरा कीमत तय कर देनी चाहिए. अगर आज ऐसा कर दिया जाए, तो महंगे इलाज की समस्या दूर हो जायेगी. उल्लेखनीय है कि हर साल 55 लाख लोग इलाज के भारी खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं. यह छोटी संख्या नहीं है. अगर सरकार दाम नियंत्रण के उपाय कर दे, तो उपचार के लिए लोगों के घर और आभूषण बिकने बंद हो जायेंगे.
जब दवाओं और अन्य संबंधित चीजों के दाम नियंत्रित हो जायेंगे, तो डॉक्टर या अस्पताल के अनैतिक व स्वार्थपूर्ण व्यवहार पर भी रोक लग जायेगी. इसी तरह से विभिन्न प्रकार के जांचों के शुल्क भी तार्किक रूप से निर्धारित किये जा सकते हैं. आप सुनते होंगे कि बड़े-बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों में दिनभर में कई बार जांच होती रहती है और मरीज को उसका भुगतान करना पड़ता है. उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या हर घंटे ऐसी जांच करने का कोई आधार मेडिकल साइंस में है. यह सब मुनाफाखोरी के लिए किया जाता है. इस तरह के कारोबार को अगर बंद करना है, तो इसे जड़ से ठीक करना होगा.
अब तक कीमतों को नियंत्रित करने की जो कोशिशें हुई हैं, उनका फायदा लोगों को मिला है. उल्लेखनीय है कि 376 दवाओं और 857 दवाओं के फार्मूलों पर ही आज तक मूल्य सीमा तय की गयी है. बाकी ढेर सारी दवाएं खुले बाजार में मनमाने दाम पर बेची जा रही हैं. दवाओं के मामले में मुनाफाखोरी की मानसिकता नहीं होनी चाहिए. अन्य बहुत सी चीजों के बिना लोग जी सकते हैं, पर दवाओं के बिना किसी का काम नहीं चल सकता है. अगर सरकार ठोस कदम उठाये, तो कंपनियों के पास इतना पैसा ही नहीं होगा कि वे डॉक्टर या अस्पताल को रिश्वत दे सकें. तब डॉक्टर भी अनैतिक होकर या लालच में पड़कर बेवजह दवाई नहीं लिखेगा. यह सब पिछले दो-ढाई दशकों से शुरू हुआ है, जब से कॉरपोरेट अस्पताल बढ़े हैं. इन सब पर रोक लगाने के लिए सरकार को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी पर भी प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए. अन्यथा ये सब ऐसे ही चलता रहेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(बातचीत पर आधारित)