11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

जयंती विशेष राधागोबिंद कर : दुर्गति से कैसे बचे विरासत?

Radha Gobind Kar : मेडिकल कॉलेज राधागोबिंद कर की देश को इकलौती देन नहीं है और उन्हें केवल इसी के लिए दूरदर्शी व परोपकारी नहीं माना जाता. जानकार बताते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जब प्लेग की महामारी कोलकाता की सांसें रोकने पर उतर आयी, तो उन्होंने उसे काबू करने के प्रयत्नों में कुछ भी उठा नहीं रखा.

Radha Gobind Kar : महिला चिकित्सक से हैवानियत को लेकर चर्चित कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज के संस्थापक डॉ राधागोबिंद कर की जयंती पर यह सोचना किसी त्रास से गुजरने से कम नहीं है कि आज वे हमारे बीच होते, तो अपने द्वारा बेहद पवित्र इरादे से स्थापित इस कॉलेज की ऐसी दुर्गति देख कितने व्यथित होते. बहरहाल, जानना दिलचस्प है कि 23 अगस्त, 1852 को हावड़ा के रामराजतला स्टेशन के पास पैदा हुए कर को चिकित्सा सुविधाओं को आम लोगों तक ले जाने की प्रेरणा विरासत में मिली थी.


उनके पिता दुर्गादास कर ने भी डॉक्टर के रूप में अविभाजित भारत के ढाका में आम लोगों के लिए मिडफोर्ड अस्पताल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. परंतु उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के क्रम में राधागोबिंद ने 1880 में कलकत्ता स्थित बंगाल मेडिकल कॉलेज (जिसे बाद में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज कहा जाने लगा) से डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू की] तो थियेटर के प्रति अपने आकर्षण से विमुख नहीं हो पाये, जिसके चलते उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. अलबत्ता, बाद में उन्होंने दत्त-चित्त होकर उसे पूरा किया और 1883 में विशेषज्ञता प्राप्त करने स्कॉटलैंड चले गये, जहां एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से एमआरसीपी की डिग्री हासिल की. इसके बाद स्वदेश लौटे और बंगाल के बहुविध विपन्न बीमारों की सेवा में लग गये. उन्होंने उन अभावग्रस्त धुर ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनी सेवाएं दीं, जहां दूसरे डॉक्टर जाने से घबराते थे. मगर कुछ ही दिनों में वे इस निष्कर्ष पर जा पहुंचे कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता और वे अपना बलिदान करके भी तब तक अपनों का बहुत भला नहीं कर सकते, जब तक अंग्रेजी के प्रभुत्व वाली उन औपनिवेशिक नीतियों का तोड़ नहीं निकाल लेते जो भारतीय भाषाओं में डॉक्टरी की पढ़ाई की राह रोके हुए हैं.


फिर क्या था, बांग्ला में डॉक्टरी की पढ़ाई संभव बनाने के लिए उन्होंने बांग्ला में चिकित्सा शिक्षा की किताबें तो लिखीं ही, कलकत्ता में स्कूल ऑफ मेडिसिन की स्थापना की भी सोच डाली. धन की कमी उनके इस सपने के आड़े आने लगी, तो अपनी कई पुश्तैनी संपत्तियां बेच दीं. इससे भी काम नहीं चला तो लोगों से जनसहयोग जुटाने में नाना प्रकार के अपमान भी झेले. उनका बड़प्पन कि जब उन्होंने उक्त स्कूल खोला तो उससे अपना नाम नहीं जोड़ा. हालांकि कलकत्ता स्कूल ऑफ मेडिसिन से आरजी कर मेडिकल कॉलेज तक की यात्रा में कई बार उसके नाम बदले और कई नामचीन शख्सियतों से जुड़े. इस दौरान यह कॉलेज कर के पथ-प्रदर्शन में एशिया के पहले गैर-सरकारी मेडिकल कॉलेज के रूप में न केवल बंगाल, बल्कि देशभर में हेल्थकेयर के क्षेत्र में प्रकाश स्तंभ बना. परंतु कर का नाम इसे देश को आजादी मिलने के बाद 1948 में 12 मई को मिला, जब वे इस दुनिया में नहीं थे. अनंतर, पश्चिम बंगाल सरकार ने 12 मई, 1958 को इस कॉलेज को अपने अधीन कर पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय से संबद्ध कर लिया. गौरतलब है कि इस कॉलेज का पहला मेडिकल कोर्स तीन वर्ष का था और इसमें बांग्ला भाषा में चिकित्सा शिक्षा दी जाती थी. आठ वर्ष पहले 2016 में पश्चिम बंगाल ने इस मेडिकल कॉलेज का शताब्दी वर्ष मनाया, क्योंकि बेलगछिया मेडिकल कॉलेज के रूप में सौ वर्ष पहले 1916 में इसका औपचारिक उद्घाटन किया गया था.


यह भी गौरतलब है कि यह मेडिकल कॉलेज राधागोबिंद कर की देश को इकलौती देन नहीं है और उन्हें केवल इसी के लिए दूरदर्शी व परोपकारी नहीं माना जाता. जानकार बताते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जब प्लेग की महामारी कोलकाता की सांसें रोकने पर उतर आयी, तो उन्होंने उसे काबू करने के प्रयत्नों में कुछ भी उठा नहीं रखा. वे स्वयं एक बैग में जरूरी दवाएं और उपकरण लिये अपनी साइकिल पर विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूमकर उन मरीजों का उपचार किया करते थे, जिनके पास न डॉक्टर की फीस चुकाने के लिए पैसे होते थे, न दवाएं खरीदने के लिए. वे ऐसे मरीजों को बिना फीस लिए देखते और उन्हें दवाएं खरीदने के लिए पैसे भी देते. सेवा के इस काम में वे न दिन देखते, न रात. वे न केवल पीड़ितों की जान बचाते, बल्कि लोगों को उन एहतियातों की जानकारी भी देते जिन्हें बरतकर प्लेग के कहर को कम किया जा सकता था.


कर यहीं नहीं रुके. उन्होंने विदेशों से मंगायी जाने वाली महंगी दवाओं के सस्ते देसी विकल्पों के विकास के लिए भी जी जान लगाया. अकारण नहीं कि आगे चलकर उन्हें ‘बंगाली केमिस्ट’ की संज्ञा दी गयी और उन्हें उन्नीसवीं शताब्दी के चिकित्सा विज्ञान व चिकित्सा शिक्षा के उन्नायकों व अग्रदूतों में शुमार किया जाने लगा. वर्ष 1918 के 19 दिसंबर को उनका निधन हुआ तो उनके पास एक घर को छोड़कर कोई निजी संपत्ति नहीं थी. और वह घर भी वे अपने द्वारा स्थापित इस कॉलेज के नाम वसीयत कर गये थे.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें