Ram Navami Festival : पांच सौ वर्ष बाद अयोध्या के श्री रामजन्मभूमि मंदिर में भव्यता और सूर्याभिषेक के साथ राम नवमी मनाई गयी. इसका क्या अर्थ और मर्म है? यह सनातन हिन्दुओं की वीरता और उनके असीम धैर्य के साथ संघर्ष की निरंतरता बताता है तो उसके साथ ही हिन्दू द्वारा हिन्दू से विद्वेष, असंगठन, अपने स्वार्थ के लिए शत्रु के साथ जा मिलना और अपने ईर्ष्या भाव खत्म कर सामूहिक शत्रु का हनन करने की भावना में कमी भी बताता है. हिन्दुओं ने आत्म मुग्धता के साथ केवल अपने बारे में महानता की बातें कीं लेकिन जो सावरकर और हेडगेवार को जानते हैं वे समझते हैं कि अपनी दुर्बलताओं की और ध्यान दिए बिना, सबको व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की भावना के बिना अपने साथ लिए शक्ति अर्जन का पथ प्रशस्त नहीं होता.
ये पांच सौ वर्ष कैसे बीते हमारे? इन वर्षों में लाखों हिन्दुओं का वध हुआ, उनकी स्त्रियों का अपमान हुआ, बच्चे नर नारी गुलाम बनाकर काबुल और बगदाद के बाजारों में बेचे गए, हमारे मंदिरों का ध्वंस हुआ. देव-देवियों का अपमान हुआ, हमारे पूर्वजों को डरा धमकाकर, संहार के भय से इस्लाम में लाया गया. आज उन मतांतरित हिन्दुओं के वंशज ही आक्रमणकारी विदेशियों की भांति हिन्दू धर्म एवं आस्था स्थलों के प्रति घृणा का भाव रखते हैं. क्यों? पांच सौ वर्षों के संघर्ष की निरंतरता के बाद भी हिन्दुओं के असीम धैर्य के बावजूद उनके प्रति मतांतरित जिहाद-अनुयायियों की शत्रुता काम क्यों नहीं हुई? हिन्दू इन विषयों पर सोचना भी नहीं चाहता. मंदिरों की अपरिमित आय, उच्च जातियों द्वारा नियंत्रित रहती हैं. हिन्दुओं का कौन सा एक भी मंदिर है जो अपने ही रक्तबंधु दलितों के प्रति समता और सच्ची आत्मीयता का भाव जन-जन में पैदा करने के लिए दो रुपये का चढ़ावा खर्च करता होगा? अथवा देश के कोने-कोने में हिन्दुओं को धर्मान्तरित करने वाली शक्तियों के सामने हिन्दू रक्षक और समरसता के यथार्थ प्रहरी भेजने हेतु हिन्दू धर्म- दान का कोई अंश खर्च करता होगा? इन हिन्दू मंदिरों के संचालक एवं धर्म कोष के अधिपति अपनी राजनीतिक अभीप्साओं की पूर्ति के लिए मंदिर कोष कभी सरकारी कार्यों हेतु, कभी आगंतुक राजनीतिक महानुभाव के सहायता कोष हेतु, कभी सड़क पानी बिजली के लिए खर्च कर अपने लिए राजनीतिक पद और प्रतिष्ठा की संभावनाएं ढूंढ़ते हैं. लेकिन अरुणाचल से लेकर अंडमान और लद्दाख तक जो संगठन हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं, उनको कभी दो रुपये की सहायता नहीं देते.
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राम नवमी केवल लोकाचार- रीति रिवाज और कर्मकांड के पालन द्वारा अपनी क्षुद्र मनोकामनाएं पूरी करवाने का पाखंड नहीं होना चाहिए। हिन्दू क्यों हारा? किन कारणों से आक्रमणकारी जीते? किन कारणों से हमारा संगठन जातियों, धन कुबेरों के स्वार्थों, धार्मिक कुरीतियों और रूढ़िवादिता के कारण छिन्न-भिन्न होता रहा? और किन महापुरुषों ने हिन्दू संगठन का बीड़ा उठाया, जिस कारण पांच सौ साल ही सही लेकिन अयोध्या राम मंदिर में राम नवमी मनाना संभव हो पाया? इन पर विचार किये बिना रामनवमी का पूजन अधूरा ही कहा जायेगा. दुर्भाग्य से आज धार्मिक सुधारों तथा ऋषि दयानन्द की ‘पाखंड खंडिनी पताका’ के भाव के बजाय, धार्मिक कूप मण्डूकता, अंध रूढ़ियों का पालन ही ज्यादा दीखता है.
स्मरण रखिये महाशक्ति संपन्न, विष्णु के अवतार श्री राघव को भी रावण वध से पूर्व भगवती शक्ति का आवाहन कर आशीर्वाद लेना पड़ा था. राम दुष्ट हन्ता, जनसंगठक, मर्यादा रक्षक, प्रजा वत्सल, अत्यंत सौम्य, अक्रोधी, शालीन, भद्र, सबकी सुनने वाले और विनम्र हैं. वे शत्रु के प्रति भी उदारता एवं सम्मान का भाव रख सकते हैं. सामान्य दृष्टि से देखें तो उनको जीवन में कभी लौकिक सुख नहीं मिला- ऋषियों के आश्रम में राक्षसों से संघर्ष, सीता स्वयंवर के बाद चौदह वर्ष वनवास, वनवास में भी सीता अपहरण, अयोध्या से सेना बुलाये बिना जन संगठन द्वारा प्राप्त शक्ति से युद्ध, रावण वध, सीता के साथ अयोध्या आगमन तो धोबी का प्रकरण, अंततः माता जानकी का धरा में समा जाना और राम का सरयू में.
राम यूं ही जन जन के प्राण, श्वास और अंतिम अभीष्ट नहीं हुए। उनके जीवन का प्रत्येक क्षण वीरता और भक्ति की पराकाष्ठा का प्रतीक है. राम के अश्रु भी निकले, बाबा तुलसी की कवितावलि पढ़ लीजिये, पर राम ने कभी किसी के प्रति शब्द संयम छोड़ते हुए कुछ नहीं कहा, वाणी संयम और भद्रता ये अद्भुत राम प्रतीक है. राम भक्तों के आंसू पोंछते हैं, त्यागराज के जीवन में देख लें, परन्तु कभी किसी को अपने आंसू पोंछने नहीं दिए. शायद इसीलिए कृष्ण परम राम भक्त हुए, जो शायद कम ही वर्णित और चर्चित है.
कृष्ण शक्ति, नीति और पराक्रम के योद्धा पुरुष थे जिनको सुदर्शन चक्र के प्रतापी रूप से जाना गया. राम मर्यादा भक्षक रावण की स्वर्णमयी लंका भस्म कर विभीषण को सत्तारूढ़ कर – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ‘ कहकर अयोध्या लौटे- दोनों ही अवतारी पुरुष शक्ति और पराक्रम के अन्यतम उदाहरण हैं. अर्थात जहां आवश्यक हो वहां शत्रु का वध कर, अरि हनन कर सज्जनों को अभय देना ही हिन्दू सनातन परंपरा का प्राचीनतम सन्देश रहा है. शक्ति का उपार्जन करना, स्वयं को शत्रु से अधिक बलशाली बनाना, पश्चाताप रहित शत्रु को कभी क्षमा नहीं करना, उसके प्रति कोई दया भाव नहीं दिखाना, सत्य और धर्म रक्षा के लिए प्रत्येक पग उठाने का साहस रखना ही राम नवमी अर्थात राम की शक्ति पूजा का भावार्थ है. अष्टमी अथवा नवमी को कन्या पूजन के पीछे यही भाव है कि पुरुष भगवती स्वरूपा मां दुर्गा के समक्ष श्रद्धावनत होकर ही विजय प्राप्त कर सकता है. जिस दुष्ट रावण ने शक्ति का अपमान किया, उसका अंत होना ही होना है. यही अयोध्या है, यही राम विजय की नवमी है.
वर्तमान सन्दर्भों में राम की शक्ति पूजा करने वालों का विजय पथ पर आरोहण एक नए युग के प्रवर्तन का प्रतीक है. एक और यदि अपने राम के मंदिर की पुनः प्राप्ति में लगे पांच सौ वर्ष तथा संघर्ष का अटूट सातत्य और अयोध्या राम जन्मभूमि मंदिर में मनाई जा रही पांच सौ वर्ष बाद रामनवमी सनातन शक्ति का स्वर्णिम अध्याय है तो यह भी सत्य है कि राम पथ पर राम का नाम लेने वालों ने ही अति दुर्गम कंटक भी बोये, हिन्दू निर्वीर्य दुर्बलताओं का अनुभव भी हुआ, शक्ति अर्जन और जन संगठन में कमियां रहीं। ‘तुम विजयी हो गए तो क्या हुआ, पहले यह बताओ मुझको क्या मिला?’ इस प्रकार के भाव लेकर सनातन ही सनातन की पराजय का कारण बना. यह इस प्रकार था मानों लंका विजय के बाद हनुमान श्री रघुवीर से पूछें कि अब मुझे कौन सा मंत्रालय मिलेगा? अयोध्या वालों ने तो कोई युद्ध नहीं किया, इसलिए अधिकांश पद, वानर और रीछ जातियों के लिए आरक्षित होने चाहिए.
राम नवमी पर्व आत्ममंथन और भीतर छिपे रावणों के अंत का पर्व है. यह केवल राम नाम हृदय में धारण कर व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति का अनुष्ठान नहीं हो सकता. सामूहिक शक्ति संपन्न होने और राष्ट्र शत्रुओं के हनन की लक्ष्य पूर्ति का पर्व है राम नवमी. शत्रु के प्रति दया राष्ट्र के पतन का कारण होता है. ‘देश को मिला तो मुझे क्या, मेरे लिए महत्वपूर्ण है मेरा हित ” – यही विचार रावण है, यही अयोध्या विरोधी लंका भाव है जिसका राम ने अंत किया.