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बंगाल में पंचायत चुनाव और हिंसा का रिश्ता

पश्चिम बंगाल में यह एक रणनीति-सी बन गयी है कि जब हिंसा होती है, तो नेता बस बयान भर देते हैं और स्थानीय कार्यकर्ताओं को मनमानी करने देते हैं. इसके पहले भी, जब वाम दलों के राज में चुनाव होते थे, तब भी हिंसा होती थी और नेता मुंह बंद रखा करते थे.

निर्माल्य मुखर्जी, वरिष्ठ पत्रकार

पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में हिंसा पहले भी होती रही है, मगर इस बार इसमें तेजी आयी है. आधिकारिक तौर पर चुनाव आयोग के पास हिंसा में मारे गये लोगों का कोई आंकड़ा नहीं है, मगर अनाधिकारिक तौर पर यह संख्या 10 से 40 के बीच बतायी जा रही है. वर्ष 2018 के चुनाव में उतनी हिंसा नहीं हुई थी. हां, 2013 के चुनाव में लगभग 80 लोग मारे गये थे. तब तृणमूल कांग्रेस सत्ता में थी और चुनाव में केंद्रीय बलों को तैनात किया गया था, मगर मतदान के दिन ही 40 लोग मारे गये. इसी तरह, वर्ष 2003 में भी लगभग 80 लोग मारे गये थे. तब वाम दलों की सरकार थी. पश्चिम बंगाल में अभी जो हिंसा दिखायी दे रही है, वह अचानक से नहीं हुई है. 2021 में विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के 15 दिन बाद तक हिंसा होती रही. तब तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने हिंसा प्रभावित स्थलों का दौरा किया था. इस बार भी राज्यपाल सीवी आनंद बोस पंचायत चुनाव से पहले दौरा कर रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में यह एक रणनीति-सी बन गयी है कि जब हिंसा होती है, तो नेता बयान भर देते हैं, पर कार्यकर्ताओं को मनमानी करने देते हैं. जब वाम दलों के राज में चुनाव होते थे, तब भी हिंसा होती थी और नेता मुंह बंद रखा करते थे. केंद्रीय बलों की तैनाती से हिंसा में निश्चित तौर पर कमी आयेगी, मगर समस्या यह है कि केंद्रीय सुरक्षाकर्मी दो-तीन महीने बाद चले जायेंगे और उसके बाद फिर से हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर शुरू हो सकता है. यह ध्यान रखना जरूरी है कि पुलिस सामान्यतः सत्ताधारी दल के प्रभाव में रहती है और ऐसे में हिंसा में ऐसे ही लोगों का पलड़ा भारी रहता है जिनके पास सत्ता का समर्थन हो. प्रदेश में जब वामपंथी दल सत्ता में थे और उनके पहले जब कांग्रेस का राज था, तब भी ऐसा ही होता था.

पश्चिम बंगाल में सीपीएम के दौर से वर्ष 2018 तक संघर्ष एकतरफा होता था और पलड़ा हमेशा सत्ता पक्ष का भारी रहता था, लेकिन इस बार भ्रष्टाचार, पार्टी अनुशासनहीनता और अन्य मुद्दों की वजह से ममता बनर्जी का रुख रक्षात्मक हो गया है. यही वजह है कि मुख्य विपक्षी दल भाजपा ग्राम पंचायत के लिए 60 प्रतिशत से ज्यादा, जिला परिषद के लिए लगभग 70 प्रतिशत और पंचायत समिति के लिए 90 प्रतिशत सीटों के लिए नामांकन कर पाने में सफल रही है. सीपीएम भी 74 हजार सीटों में से 38 हजार सीटों के लिए नामांकन कर सकी है. चुनाव में हर पार्टी सभी सीटों पर चुनौती देना चाहती है, इन चुनावों में जो एकमात्र पार्टी सभी सीटों पर नामांकन कर सकी है, वह तृणमूल कांग्रेस है. तृणमूल के 82 हजार प्रत्याशियों ने नामांकन दाखिल कर दिया है, जो कि सीटों की संख्या से भी ज्यादा है. पिछले चुनाव में 34 प्रतिशत सीटों पर तृणमूल के उम्मीदवार निर्विरोध जीत गये थे.

ऐसे ही, वर्ष 2008 में वाम दलों के समय 11 प्रतिशत सीटों पर बिना वोट के उम्मीदवार जीत गये. पांच साल पहले हुए चुनाव में तृणमूल की ताकत के आगे भाजपा, वाम दल और कांग्रेस लगभग नेस्तनाबूद हो गये थे. इस बार भी कुछ ऐसी ही स्थिति बन रही थी, लेकिन मामला अदालत तक पहुंच गया. कोलकाता हाइकोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग से पूछा कि 20 हजार नामांकन क्यों नहीं हो पाये और उसे इस बारे में शपथ पत्र दाखिल करने का आदेश दिया. पंचायत चुनाव में 20 हजार सीटें बहुत मायने रखती हैं, जो कुल सीटों का लगभग एक तिहाई हिस्सा हैं. ऐसे में, यदि 20 हजार लोगों को नामांकन नहीं करने दिया जाता है, तो इससे नतीजों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.

पिछले चुनाव में तृणमूल ने 64 हजार सीटों में से लगभग 40 हजार सीटें जीती थीं. बीजेपी को साढ़े पांच हजार सीटें मिली थीं. इस बार यदि इनमें 20 प्रतिशत सीटें भी इधर-उधर होती हैं, तो वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में उसका प्रभाव बढ़ कर 40 प्रतिशत से भी ज्यादा हो सकता है. पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का चक्र विपक्ष के विरोध से ही टूट सकता है. इस बार ऐसी भी अटकलें हैं कि विरोधी पार्टियों के बीच सत्ता पक्ष को चुनौती देने के लिए एक अदृश्य समझौता हो गया है. भाजपा, वाम दल और कांग्रेस के लोग एकजुट होकर नामांकन कर रहे हैं. इस बार के चुनाव में अदालत की भूमिका अहम रही है.

वर्ष 2018 में भी विरोधी दल अदालत गये थे, मगर वहां वे हिंसा होने की बात को साबित नहीं कर सके और उनकी याचिका निरस्त हो गयी, लेकिन इस बार अदालत ने केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग को हरी झंडी दे दी है. इस वजह से इस बार ऐसी सीटों की संख्या घट कर 12 प्रतिशत रह गयी है, जहां तृणमूल के सामने कोई विरोधी नहीं है. पिछली बार ऐसी सीटों की संख्या 34 प्रतिशत थी, जिन पर तृणमूल प्रत्याशी बिना लड़े जीत गये थे. यानी, पिछले चुनाव की तुलना में इस बार 22 प्रतिशत का फर्क आ गया है. केंद्रीय बलों को यदि पहले बुलाया गया होता, तो नामांकन की संख्या और अधिक बढ़ सकती थी. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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