ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक द्वारा दीपावली के अगले दिन अपनी एक वर्ष पुरानी मंत्रिपरिषद में किये गये फेरबदल ने उनके समर्थकों और विरोधियों के साथ-साथ राजनीतिक समीक्षकों को भी हैरत में डाल दिया है. तमिल और गोवा मूल की पूर्व गृहमंत्री सुवैला ब्रावरमैन मंत्री बनने के बाद से ही विवादों के घेरे में रही थीं. परंतु, उन्हें सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी के दक्षिणपंथी खेमे का पुरजोर समर्थन हासिल था. इसलिए उन्हें भी मंत्रिपरिषद से निकाले जाने की आशा कम ही लोगों को थी. लेकिन सबसे बड़ी हैरत पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को राजनीतिक संन्यास से वापिस बुलाकर विदेश मंत्री बनाने को लेकर है, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. ब्रिटेन में पूर्व प्रधानमंत्रियों का सत्ता से हटने और विपक्ष में रहने के बाद दोबारा सत्ता में आना नयी बात नहीं है.
स्टेनली बॉल्डविन, विंस्टन चर्चिल और हैरल्ड विल्सन समेत छह प्रधानमंत्री ऐसा कर चुके हैं. लेकिन एक पूर्व प्रधानमंत्री की विदेश मंत्री के रूप में वापसी केवल तीसरी बार हो रही है. साठ के दशक में प्रधानमंत्री रहे लॉर्ड डगलस ह्यूम कई साल विपक्ष में रहने के बाद सत्तर के दशक में एडवर्ड हीथ मंत्रिपरिषद में विदेश मंत्री बनकर लौटे थे. उससे पहले उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में प्रधानमंत्री रहे आर्थर बैलफर दूसरे दशक में डेविड लॉयड जॉर्ज की सरकार में विदेश मंत्री बने थे. यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाने की उनकी घोषणा को ही इस्राइली-फिलस्तीनी संकट की जड़ माना जाता है. विदेश मंत्री बनकर सत्ता में लौट रहे डेविड कैमरन के समक्ष भी वही संकट सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है.
कैमरन के पास विदेशी मामलों का खासा अनुभव है और छह वर्ष प्रधानमंत्री रहने के नाते दुनिया के बड़े नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं. उनके 11 साल के नेतृत्व में कंजर्वेटिव पार्टी दो चुनाव जीती थी. वे पार्टी में जनहितकारी मध्यमार्गी विचारधारा को बढ़ावा देना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने बहुमत मिलने के बावजूद लिबरल पार्टी नेता निक क्लेग के साथ मिलकर सरकार बनायी. परंतु वे पार्टी में यूरोप और आप्रवासी विरोधी लहर को भांपने में चूक गये, जिसकी वजह से ब्रेक्जिट जनमत संग्रह में हार हुई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया. दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक कंजर्वेटिव पार्टी के दक्षिणपंथी खेमे से हैं और उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के नेतृत्व में ब्रेक्जिट का प्रचार किया था. इसलिए जहां वे सरकार को अनुभव और प्रभाव की गरिमा प्रदान करेंगे, वहीं गृह मंत्री सुवैला ब्रावरमैन को निकालने से खिन्न दक्षिणपंथी खेमे की नाराजगी को और बढ़ा सकते हैं. इसके अलावा, कैमरन के कार्यकाल में हुई भूलें भी विपक्ष के लिए नया हथियार बन सकती हैं.
कंजर्वेटिव पार्टी में उनके दक्षिणपंथी समर्थकों को छोड़कर देश के किसी को समझ नहीं आ रहा था कि नियुक्ति के पहले से ही विवादों में घिरी आ रहीं ब्रावरमैन को अनुशासनप्रिय सुनक बर्दाश्त क्यों कर रहे थे. ब्रावरमैन को पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने भी अपना गृह मंत्री बनाया था. लेकिन, एक सांसद को एक गोपनीय दस्तावेज अपने निजी ईमेल से भेज कर मंत्री संहिता का उल्लंघन करने की भूल के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. इसलिए जब सुनक ने भी उन्हें गृह मंत्री बनाया, तो विपक्ष के साथ-साथ कंजर्वेटिव पार्टी के भी कुछ नेताओं ने सवाल उठाये थे. फिर शरणार्थियों को रवांडा भेजने की उनकी योजना अदालतों में उलझ गयी.
कंजर्वेटिव पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने अवैध मार्गों से ब्रिटेन आने वाले शरणार्थियों को ‘शरणार्थी हमला’ बता कर और बच्चियों का यौन शोषण करने वाले अपराधियों को ग्रूमिंग गिरोह बता कर विवाद खड़े किये. पर पिछले सप्ताह जब उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय की अनुमति के बिना टाइम्स अखबार के लिए लेख लिखा, जिसमें लंदन की महानगरीय पुलिस पर फिलिस्तीनियों और दूसरों के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों पर नरमी दिखा कर पक्षपात करने का आरोप लगाया, तो सुनक के सब्र का बांध भी टूट गया. लगता है प्रधानमंत्री और ब्रावरमैन के बीच मतभेद बहुत बढ़ चुका था, इसीलिए उन्हें पद से ही नहीं, बल्कि मंत्रिपरिषद से भी निकाल दिया गया.
ब्रिटेन में सरकारें पुलिस के कामकाज में दख़ल नहीं देती. सरकार नीतियां बनाती और बदलती है, लेकिन उन पर अमल का काम पुलिस का होता है. यही कारण था कि ब्रावरमैन के लेख को पुलिस पर फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शन पर रोक लगाने का दबाव डालने की कोशिश के रूप में देखा गया. गत रविवार को ब्रिटेन में शहीद दिवस भी था. फिलिस्तीन समर्थकों ने भी इसी दिन प्रदर्शन की योजना बनायी थी, जिसके कारण कुछ लोगों को मार-पीट होने की आशंका थी. ब्रावरमैन ने इसी आशंका के साथ लेख लिखा था. परंतु प्रदर्शन में विशेष मार-पीट नहीं हुई. इसलिए सरकार पर ब्रावरमैन को निकालने का दबाव बना.
गाजा में इस्राइल की सैन्य कार्रवाई में मारे जा रहे बच्चों और नागरिकों को लेकर ब्रिटिश शहरों और छात्रों में सरकार की ढुलमुल नीति को लेकर खासा रोष है. विरोध प्रदर्शनों का आकार बढ़ता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र में जॉर्डन के युद्धविराम प्रस्ताव पर भारत की तरह ब्रिटेन ने भी मतदान में हिस्सा नहीं लिया था. लेकिन बढ़ते दबाव के चलते अब सुनक को भी इस्राइल से कहना पड़ा है कि उसे अपनी रक्षा के साथ-साथ फिलिस्तीनी नागरिकों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी चाहिए. फिलिस्तीन और यूक्रेन के संकटों की चुनौती के समय ब्रिटिश नीति को दमदार आवाज में रखने के लिए कैमरन को विदेश मंत्री बनाया गया है. लंदन में प्रदर्शनों को शांतिपूर्ण रखने की चुनौती पूर्व विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली को संभालनी होगी, जिन्हें गृह मंत्री बनाया गया है.
असली चुनौतियां प्रधानमंत्री सुनक के सामने हैं. उनकी लोकप्रियता का ग्राफ उठने का नाम नहीं ले रहा है. जनता तेजी से बढ़ी महंगाई से नाराज है. उस पर काबू पाने के लिए बढ़ायी जा रही ब्याज दरें जले पर नमक का काम कर रही हैं. लोग कंजर्वेटिव पार्टी के 13 साल लंबे शासन से उकताये हुए हैं और पार्टी के भीतर खेमेबाजी भी बढ़ रही है. इनसे निपटने के लिए सुनक के पास समय कम बचा है क्योंकि एक साल बाद चुनाव होने हैं. गाजा की लड़ाई में दूसरी ताकतों के कूद पड़ने का खतरा बना हुआ है. यदि ऐसा हुआ, तो तेल के दाम में आने वाला उछाल ब्रिटेन के साथ-साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है. इसे रोकने के लिए और पार्टी को एकजुट करने के लिए कैमरन को केबिनेट में बुलाया गया है. कैमरन की मध्यमार्गी की छवि के सहारे सुनक पार्टी के जनाधार को भी बढ़ाना चाहते हैं. पर आलोचकों को लगता है कि उनका यह प्रयास हताशा की निशानी है.