पद्मश्री अशोक भगत, सचिव, विकास भारती, झारखंड
delhi@prabhatkhabar.in
भारत समेत दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में जीविकोपार्जन के संसाधनों में हस्तशिल्प का बड़ा योगदान रहा है. वास्तव में हस्तशिल्प उद्योग, भारत के रचनात्मक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति के साथ ही भारतीय समाज की एक सांस्कृतिक संरचना भी है. हस्तशिल्पी सनातन काल से भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रभावशाली आधार रहे हैं. मुगलों और फिरंगियों की साम्राज्यवादी सोच ने भारतीय ग्रामीण संस्कृति को बहुत हानि पहुंचायी. अंग्रेजों के समय इस क्षेत्र पर सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा संगठित रूप से प्रहार किया गया.
नतीजा, धीरे-धीरे हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आधार निष्प्राण हो गया. स्वतंत्र भारत में भी आधुनिकता के नाम पर साम्राज्यवादी सोच आधारित विकास माॅडल ही खड़ा किया गया, जबकि महात्मा गांधी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की बात कही थी. उन्होंने स्वदेशी सोच पर आधारित कुछ आधुनिक माॅडल भी प्रस्तुत किये, लेकिन बाद की सरकारों ने उस पर कुछ नहीं किया.
गांधीजी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आधार बनाकर खादी व बुनियादी स्कूलों की स्थापना करवायी, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे प्रभावशाली नौकरशाहों ने आधुनिकता के नाम पर पश्चिम परस्त विकास माॅडल अपनाया. इससे पहले ग्रामीण कारीगरी आधारित कुटीर उद्योग खत्म हुए, बाद में खेती चौपट हो गयी और ग्रामीण भारत उजड़ गया. कोविड महामारी ने एक बार फिर से हमारा ध्यान ग्रामीण अर्थवस्था की ओर आकृष्ट किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकल को वोकल बनाने की बात कही है.
इस नारे में पूरा अर्थशास्त्र छुपा है. यदि हम इसे अपना जीवन आधार बना लें, तो आत्मनिर्भर भारत का निर्माण संभव है. कोविड संक्रमण से जूझ रही अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए गत दिनों भारत सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी. ग्रामीण क्षेत्र की आधारभूत संरचना की मजबूती के लिए बड़े वित्तीय सहायता देने की बात भी इस घोषणा में है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण कृषि क्षेत्र को मजबूत करने की बात बार-बार दुहरा रही हैं. जब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होगी, तब तक आत्मनिर्भर भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि व पशुपालन के अतिरिक्त दो और बड़े आधार स्तंभ हैं, हस्तशिल्प उद्योग और भूमिहीन किसान. जब तक इन दोनों को सशक्त नहीं बनाया जायेगा, आत्मनिर्भर भारत व लोकल को वोकल बनाने का नारा महज नारा ही रहेगा. ग्रामीण आधारभूत संरचना को दुरुस्त करने के लिए इन चारों को अच्छे प्रशिक्षण की जरूरत है. भारतीय कृषि जब से मशीनीकृत हुई है, तभी से कृषि क्षेत्र में मंदी आयी है. पहले ग्रामीण शिल्पकार कृषि यंत्रों का निर्माण करते थे. ग्रामीण जरूरतों के रोजमर्रा के अधिकांश सामान ग्रामीण शिल्प उद्यमी ही पूरा कर देते थे. इस कारण ग्रामीण भारत आत्मनिर्भर था.
ग्रामीण पलायन नहीं के बराबर था. खेती के साथ शिल्पकारों का आर्थिक और सांस्कृतिक जुड़ाव था. यह केवल हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही मजबूत नहीं कर रहा था, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी बड़ा योगदान दे रहा था. दिल्ली सल्तनत काल से पहले विश्व व्यापार में भारत का योगदान 50 प्रतिशत से भी ज्यादा था. बाद में यह घटता गया. अब यह सिमट कर एक प्रतिशत से भी कम रह गया है.
मोटे तौर पर हस्तशिल्प का अर्थ कारीगर से लगाया जाता है- कारीगर यानी हाथ के कौशल का उपयोग कर वस्तुओं का उत्पादन करनेवाले. भारत में महाराजा दक्ष प्रजापति के समय इस वर्ग का संगठित रूप समाज में उभरकर आया. यही नहीं, विश्वकर्मा को तकनीक के देवता के रूप में मान्यता मिली. भारत की भव्य सांस्कृतिक विरासत और परंपरा की झलक देशभर में निर्मित हस्तशिल्प वस्तुओं में दिखायी पड़ती है. युगों से भारत के हस्तशिल्प ने अपनी विलक्षणता कायम रखी है. प्राचीन समय में इन हस्तशिल्पों को ‘सिल्क रूट’ के जरिये यूरोप, अफ्रीका, पश्चिम एशिया और दूरवर्ती पूर्व के देशों को निर्यात किया जाता था. इन शिल्पों में भारतीय संस्कृति का जादुई आकर्षण है.
सबसे विशिष्ट बात यह है कि भारतीय समाज की जातीय संरचना का आधार अन्य सभ्यताओं की तरह रेस (नस्ल) नहीं, अपितु कारीगरी है- लोहे का काम करने वाला लुहार, लकड़ी का काम करने वाला बढ़ई आदि. पूरे भारत में इस प्रकार की तमाम जातियों को जोड़ दिया जाए, तो वह 15 प्रतिशत से भी ऊपर चला जाता है. एक अनुमान के अनुसार, देश में 1.3 करोड़ लोग हस्त कारीगरी से अपनी रोजी कमाते हैं. अन्य शिल्पकारों की संख्या भी लगभग 60 लाख के करीब है. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकाॅनोमी रिसर्च द्वारा करवाये गये सर्वेक्षण के अनुसार, 1997-98 में 10.411 करोड़ रुपये का हस्तशिल्प उत्पादन किया गया.
वर्ष 2006-07 में यह 47 हजार करोड़ पहुंच गया, जिसका बड़े पैमाने पर निर्यात भी हुआ. फिलहाल देश में 14.5 लाख हस्तशिल्प इकाइयां हैं, जिनमें दो करोड़ के करीब प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार प्राप्त कर रहे हैं. भारत की पूरी कृषि प्रणाली ग्रामीण हस्त कारीगरों पर ही आधारित है. आज भी बड़े पैमाने पर कृषि यंत्रों का निर्माण ग्रामीण कारीगरों द्वारा किया जाता है. इस क्षेत्र में खेती की तरह ही रोजगार की अपार संभावनाएं हैं. कोविड में जिस प्रकार शहरी क्षेत्र में रोजगार सिमट गया है, यदि सरकार इस दिशा में सोचे, तो शहरी रोजगार का यह एक व्यापक और टिकाऊ विकल्प हो सकता है.