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संतूर के सरताज पंडित शिवकुमार शर्मा का जाना

शिवकुमार शर्मा का संतूर सुनते हुए एहसास होता था कि हम कश्मीर की सुंदर वादियों में बैठे हुए हैं, जहां झरनों की कलकल है, तो पक्षियों की चहचहाट भी.

पिछले करीब 65 बरसों से संतूर की तानों से विश्व को मंत्रमुग्ध करने वाले पंडित शिवकुमार शर्मा के जाने से संतूर अनाथ हो गया है. हालांकि संतूर की मधुर संगीत यात्रा को उनके पुत्र राहुल शर्मा सहित और भी बहुत से लोग जारी रखेंगे, लेकिन संतूर को जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र से निकाल कर विश्व पटल पर मान-सम्मान और ख्याति दिलाने वाले शिवकुमार संतूर के ऐसे अभिवावक थे, जिनके हाथ में आते ही संतूर इतराने लगता था. यदि शिवकुमार न होते, तो शायद संतूर सिर्फ कश्मीर की वादियों में ही गूंजता रहता या वहीं कहीं इतिहास बन कर लुप्त हो जाता.

माना जाता है कि संतूर का जन्म फारस में हुआ था. चौदहवीं शताब्दी में एक फारसी यात्री इसे कश्मीर लेकर आये. तभी से यह कश्मीर के लोक संगीत का हिस्सा बन गया. हालांकि, बरसों बाद तक जम्मू-कश्मीर के महज कुछेक क्षेत्रों में ही इसे पहचान मिल सकी. संतूर की किस्मत तब रंग लायी जब जम्मू के संगीतज्ञ पंडित उमा दत्त शर्मा के यहां 13 जनवरी, 1938 को पुत्र शिवकुमार का जन्म हुआ.

इसे संयोग ही कहेंगे कि शिव के जन्म के बाद ही उमा दत्त को 100 तारों वाले छोटे से वाद्ययंत्र पर कुछ शोध करने की सूझी. उनके मन से आवाज आयी कि उनका बेटा शिव विश्व का ऐसा पहला वादक बनेगा, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत को संतूर पर बजायेगा. उमा दत्त ने पुत्र शिव को पांच वर्ष की उम्र से ही गायन और तबला वादन की शिक्षा देनी शुरू कर दी थी, लेकिन बाद में वे शिव को संतूर की शिक्षा भी देने लगे.

पंद्रह वर्ष की आयु तक पहुंच शिव स्वयं भी संतूर में नये-नये प्रयोग करने लगे. जब 17 वर्ष की आयु में शिव ने मुंबई में अपना पहला सार्वजनिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, तभी से संतूर और भारतीय शास्त्रीय संगीत का अटूट नाता बन गया. शिवकुमार की यह प्रस्तुति दर्शकों-श्रोताओं को इतनी पसंद आयी कि संतूर और शिव दोनों लोकप्रिय हो गये. इसके बाद 1960 में शिव ने अपने पहले एकल एलबम में संतूर और शास्त्रीय संगीत के रिश्ते को और मजबूत कर दिया.

शिव और संतूर की लोकप्रियता देख 1965 में उस दौर के दिग्गज फिल्मकार वी शांताराम ने अपनी फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ में संतूर को लेने का फैसला किया. इस फिल्म के संगीतकार वसंत देसाई थे. इस प्रकार यह देश की ऐसी पहली फिल्म बन गयी, जिसमें संतूर का खूबसूरत प्रयोग हुआ. सन 1967 में इनका एलबम ‘कॉल ऑफ द वैली’ (घाटी की पुकार) आया. इसमें, शिवकुमार के साथ जाने-माने बांसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया भी जुड़े.

इस एलबम में शिवकुमार का संतूर वादन इतना पसंद किया गया कि यह विदेशों तक लोकप्रिय हो गया. इसी के बाद शिवकुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया ने संतूर और बांसुरी पर जुगलबंदी की एक नयी परंपरा शुरू की, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया. ये दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी रहे हैं. बरसों से इन दोनों का ऐसा नाता रहा कि दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता.

जब भी शिवकुमार शर्मा से मुलाकात हुई या हरि प्रसाद से, दोनों एक-दूसरे की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. शिव और हरि की पहली मुलाकात 1960 के दशक में दिल्ली के तालकटोरा गार्डन में तब हुई, जब ये दोनों युवा संगीत महोत्सव में अपनी प्रस्तुतियों के लिए पहुंचे. हरि प्रसाद बताते हैं- ‘उनसे मिलने के बाद महसूस हुआ कि हम पिछले जन्म के सगे भाई हैं. उनकी सादगी और संतूर दोनों ने हमारा मन ऐसा मोहा कि हम हमेशा के लिए एक हो गये. वह हमेशा भाई से भी बढ़कर रहे.’

यूं इन दोनों ने शिव-हरि के नाम से पहली बार 1981 में फिल्म ‘सिलसिला’ में संगीत दिया. लेकिन इस फिल्म के कई बरस पहले से ये दोनों बीआर चोपड़ा की फिल्मों के संगीत में अपना योगदान देते रहे थे. इनकी प्रतिभा देख यश चोपड़ा हमेशा इन्हें एक संगीतकार के रूप में जोड़ी बनाने के लिए प्रेरित करते थे. वर्ष 1981 में जब यश चोपड़ा ने फिल्म ‘सिलसिला’ शुरू की, तो इस जोड़ी को पहली बार संगीतकार के रूप में लिया.

इस फिल्म की काफी शूटिंग कश्मीर में होनी थी और शिव कश्मीर की लोक धुनों को एवं हरि उत्तर प्रदेश की लोक धुनों को बखूबी समझते थे. इस फिल्म का संगीत बहुत पसंद किया गया. तब यशराज ने शिव-हरि को अपनी और भी कुछ फिल्मों में संगीत देने का मौका दिया. जिनमें चांदनी, लम्हे, परंपरा और डर के साथ फासले और विजय फिल्म भी शामिल हैं.

पद्मश्री और पद्मभूषण सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित शिवकुमार शर्मा का संतूर वादन जब भी सुना वह दिल में घर कर गया. उनका संतूर सुनते हुए एहसास होता था कि हम कश्मीर की सुंदर वादियों में बैठे हुए हैं. जहां झरनों की कलकल है, तो पक्षियों की चहचहाट भी.

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