प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित
कुलपति
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली
वीर सावरकर का व्यक्तित्व बहुआयामी था. वे एक साथ स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक, कवि, इतिहासकार, राजनेता और दार्शनिक थे. उनकी 141वीं जयंती के अवसर पर हमें यह समझने की जरूरत है कि एक वैज्ञानिक चेतना के मानववादी और जाति प्रथा जैसी कुरीतियों से लड़ने वाले योद्धा एवं अपने संगठन पतित पावन संगठन के माध्यम से मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए संघर्ष करने वाले व्यक्ति को रूढ़िवादी और कायर क्यों कहा जाता है.
वे एक महान समाज सुधारक थे, जिनका विचार था कि जाति व्यवस्था को इतिहास के कचरे में फेंक देना चाहिए. स्वतंत्रता के बाद नेहरूवादी राजसत्ता के षड्यंत्र ने उनकी छवि सांप्रदायिक एवं रूढ़िवादी की बना दी, जबकि वे संशयवादी थे, जो पुणे में ‘क्या ईश्वर है?’ विषय पर साप्ताहिक व्याख्यान देते थे. उन्होंने सभी धर्मों की निंदा की, इसीलिए नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षतावादियों ने उनकी निंदा की क्योंकि उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल हिंदुओं की आलोचना है, अब्राहिमी धर्मों की नहीं.
समय आ गया है कि सावरकर के योगदान का मूल्यांकन हो और उसे सराहा जाए.
सावरकर के कार्य और गतिविधियां राष्ट्रवाद की वास्तविक परिभाषा को परिलक्षित करती हैं. वे मुश्किलों के सामने डटे रहे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते रहे. वे युवावस्था के प्रारंभ से ही औपनिवेशिक शासन को नापसंद करने लगे और उच्च शिक्षा के लिए जब ब्रिटेन गये थे, तो वहां भी इंडिया हाउस और फ्री इंडिया सोसायटी जैसी संस्थाओं के माध्यम से स्वतंत्रता संघर्ष में योगदान दिया. भारत में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाकर कालापानी की सबसे कठोर सजा दी गयी और वे 1911 से 1921 तक अंडमान के सेलुलर जेल में रहे.
इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता से वे मुख्यभूमि लौटने में सफल रहे, पर उनकी गतिविधियों पर पाबंदी थी. उनके प्रारंभिक कार्यों में एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘भारत का स्वतंत्रता संग्राम’ है, जिसने 1857 के विद्रोह का भारतीय आख्यान प्रस्तुत किया. ब्रिटिश शासन ने इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया. सावरकर ने हिंदुत्व पर एक पुस्तक लिखी, जो हिंदू राष्ट्र की उनकी दृष्टि का वैचारिक आधार बनी. उन्होंने अन्य अहम किताबों की रचना भी की, जो भारत के बौद्धिक आयाम में उनके योगदान को रेखांकित करती हैं.
हिंदू महासभा के माध्यम से उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान देते हुए स्वतंत्रता के बाद के भारत के प्रश्न पर अपने राजनीतिक विचार प्रस्तुत किये. उन्होंने केवल ब्रिटिश शासन के बारे में विचार नहीं किया, बल्कि भारतीय समाज की चुनौतियों, मसलन- जाति व्यवस्था और विभाजन आदि, पर भी अपनी समझ रखी. हिंदू संस्कृति को पुनर्जीवित करने की उनकी कोशिश एकाकी नहीं थी, बल्कि उसने भारतीय मानस पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा, जिसके परिणाम आज भी देखे जा सकते हैं. फिर भी वैचारिक भक्ति और अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए उनके विचारों और योगदान को अनदेखा किया गया तथा उनपर अंगुली उठायी गयी.
भारतीय इतिहास के इतिहासकारों ने सावरकर के साथ पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर बुरा बर्ताव किया है. सेलुलर जेल में उनका अनुभव एक भयावह कथा है, जिससे बहुत से युवा अपरिचित हैं. इसीलिए सावरकर के बारे में अधिक पढ़ा जाना चाहिए ताकि उनके कार्य, सोच, बलिदान और उपलब्धि के बारे में जागरूकता बढ़े तथा भारतीय सभ्यता की दृढ़ भावना को समझा जा सके.
अपने ही लोगों से जो धोखा उन्हें मिला, वह उनकी दृढ़ता और शक्ति को जानने का एक विषय होना चाहिए. भारत के स्वाधीनता संघर्ष और उसकी समृद्ध बौद्धिक धरोहर की समुचित समझ के लिए सावरकर की विरासत की पहचान और उसका प्रसार आवश्यक है. सावरकर भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कि दृढ़ता, व्यावहारिकता और मानस का खुलापन हैं. अनदेखा, बहिष्कृत और दंडित होने के बावजूद वे गर्वित भारत के आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध रहे. सावरकर जैसा विचार, सक्रियता एवं दृष्टि में एकाकार व्यक्ति मिलना बेहद मुश्किल है. सावरकर के योगदान उनके अपने समय में महत्वपूर्ण तो थे ही, आज उनका महत्व और भी अधिक है, जब भारत वैश्विक परिणामों को प्रभावित करने की स्थिति में आ खड़ा हुआ है.
एक सभ्यतागत राजसत्ता के लिए यह एक त्रासदी है कि एक ऐसे महान राष्ट्रवादी को निंदित किया गया, जिसने अपना सब कुछ देश के लिए त्याग दिया, जो एक जातिविहीन और तार्किक एवं वैज्ञानिक चेतना वाले समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहा. वीर सावरकर ने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, लेकिन कृतघ्न और सतही लोगों के समूह द्वारा शासित देश ने उन्हें अपमान के रूप में बहुत कुछ दे दिया. पर वे इन सबसे उबर गये.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)