संयुक्त राष्ट्र ने 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया था. उस बात को उनचास वर्ष हो गये. बीती लगभग इस आधी सदी में देखा जाए, तो बहुत कुछ बदल गया है. तब न तो इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियां अपने घर से बाहर दिखाई देती थीं, न ही स्कूल में और न बाजार में. किसी देश की स्त्री की आर्थिक स्थिति का आकलन करना हो, तो बाजार में उसकी उपस्थिति को देखा जाना चाहिए. बाजार माने क्रय-विक्रय और बाजार में स्त्री के होने का मतलब उसके पर्स में पैसे यानी खरीद करने की उसकी ताकत का होना है. दरअसल, पर्स होने का मतलब ही स्त्री का सशक्तीकरण है क्योंकि उसमें पैसे हैं. पैसे के बिना किसी के पास ताकत नहीं होती.
तब से अब तक समाज में इस धारणा ने जोर पकड़ लिया है कि लड़कियों की न केवल शिक्षा, बल्कि उनकी आत्मनिर्भरता भी बहुत जरूरी है. शहरों के साथ-साथ गांवों में भी स्त्रियों की आत्मनिर्भरता के विचार ने जोर पकड़ा है. आज बड़ी संख्या में लड़कियां गांवों, कस्बों, छोटे शहरों से उन शहरों की ओर रुख कर रही हैं, जहां रोजगार के बेहतर साधन और अवसर उपलब्ध हैं. माता-पिता भी अब उन्हें यह कहकर नहीं रोक रहे हैं कि हाय लड़की है, कैसे अकेली बाहर भेजें. लेकिन इसकी कुछ विपरीत परिस्थितियां भी शहरों में देखने को मिलती हैं. जहां जैसे ही अकेली लड़की किराये पर कमरा या घर मांगने जाती है, तो पचास तरह के सवालों का उसे सामना करना पड़ता है, जैसे कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें अकेली कैसे भेज दिया, ऑफिस से कितने बजे लौटा करोगी, कोई संगी-साथी तो साथ नहीं आयेगा, शराब तो नहीं पीती हो, रात में पार्टी तो नहीं करती हो.
संयोग से पिछले दिनों ऐसी ही दो लड़कियों से इस लेखिका की मुलाकात हुई. एक हिमाचल से आयी थी और नोएडा में काम कर रही थी. दूसरी मध्य प्रदेश से थी. दोनों की समस्या एक जैसी थी. नोएडा में काम करने वाली लड़की तो फिर भी आठ बजे तक दफ्तर से लौट आती थी, लेकिन गुड़गांव में कार्यरत लड़की का तो दफ्तर ही रात के डेढ़ बजे खत्म होता था. ऐसे में वह घर ढाई बजे के आसपास पहुंचती. लौटने का यह समय सुनकर कोई भी उसे कमरा देने को तैयार नहीं होता था. वह परेशान थी क्योंकि वह अपने पिता के एक मित्र के यहां रहती थी. आखिर वहां कितने दिन तक रहती! इसलिए वह किसी ऐसे पीजी हॉस्टल की तलाश में थी, जो दफ्तर के पास हो. मगर आसानी से नहीं मिल रहा था. जो लड़कियां अकेली रोजगार की दुनिया में निकलती हैं, उनके लिए चुनौतियां कम नहीं होती हैं. अपने माता-पिता, घर वाले कुछ कहें या न कहें, अक्सर बाहर वाले उनके अभिभावक बन जाते हैं. इसीलिए उन्हें रहने की जगह ढूंढ़ने के लिए भारी मुश्किल का सामना करना पड़ता है.
कायदे से तो जब सरकारों ने यह लक्ष्य तय कर रखा है कि उन्हें हर लड़की को न केवल शिक्षित करना है, बल्कि अपने पैरों पर भी उसे खड़ा करना है, तो इस बात को भी उन्हें ध्यान में रखना चाहिए कि जब ये लड़कियां अपने घरों से बाहर निकलेंगी, तो उनके आवास की उचित और सुरक्षित व्यवस्था कैसे होगी. सुरक्षा लड़कियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है. आज छोटे शहरों की तो छोड़िए, बड़े शहरों में भी कामकाजी लड़कियों के लिए हॉस्टल और पीजी की सुविधा बहुत कम हैं. जो हैं, उनमें अधिकांश में सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं है. ऐसी खबरें लगातार आती ही रहती हैं. इसके अलावा रात-बिरात जो लड़कियां काम से लौटती हैं, महानगरों की सड़कें उनके लिए बेहद डरावनी हैं. हालांकि कैब वालों को कंपनियों की तरफ से ये स्पष्ट निर्देश होते हैं कि वे लड़की को सड़क पर नहीं, बल्कि उस जगह उतारें, जहां से वह सीधी घर या हॉस्टल अथवा पीजी के अंदर जा सके. मगर रास्ते में यदि लड़की के साथ कोई दुर्घटना हो जाए, तो क्या हो! ऐसी व्यवस्था कैसे हो कि लड़कियां निरापद होकर काम पर आ-जा सकें, रह सकें.
शहर में रहने वाली अकेली लड़की की समस्या स्वास्थ्य से भी संबंधित है. मान लीजिए, वह बीमार पड़ गयी, तो उसके उचित इलाज की व्यवस्था कैसे हो, अस्पताल में उसकी सुरक्षा के क्या उपाय हों, जब तक परिजन आ पायें, उसकी देखभाल कैसे हो? जब लड़कियां पढ़ेंगी, लिखेंगी, नौकरी करेंगी, तो जाहिर तौर पर ये चुनौतियां आयेंगी ही. इस लेखिका ने यूरोप में हर उम्र की स्त्री को दिन और रात में अकेली आते-जाते देखा है. उनकी आंखों में निर्भयता का भाव साफ देखा जा सकता है. वहां कोई लड़कियों को इस तरह परेशान भी नहीं करता है, जैसे कि हमारे यहां आम तौर पर होता है. इस तरह का वातावरण हमारे यहां की स्त्रियों को प्राप्त नहीं हैं. हम अपनी संस्कृति पर गर्व करें, स्त्रियों को देवी मानें, लेकिन उन्हें ऐसा वातावरण प्रदान न कर सकें, जहां वे बिना डरे रोजमर्रा के अपने काम कर सकें, तो ऐसा क्यों है? इस बारे में सरकारों और समाज दोनों को सोचने की आवश्यकता है. किसी भी समस्या का हल ऐसा नहीं होता कि जो प्रयास करने से मिल न सके.