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श्रीलंका का संकट और भारत

पड़ोसी देश होने के नाते भारत श्रीलंका को हर संभव सहायता दे रहा है और भविष्य में भी इसके जारी रहने की उम्मीद है.

डॉ अश्विनी महाजन

राष्ट्रीय सह-संयोजक, स्वदेशी जागरण मंच

ashwanimahajan@rediffmail.com

पिछले कुछ समय से श्रीलंका अत्यंत विकट आर्थिक समस्या से गुजर रहा है. सरकार को समझ ही नहीं आ रहा है कि इस संकट से कैसे निपटा जाए. श्रीलंका पूर्व में दुखद गृहयुद्ध की स्थिति से निकल चुका है, जो 26 वर्ष चला और 2009 में समाप्त हो गया, लेकिन गृहयुद्ध के बावजूद उसे आर्थिक संकट से नहीं गुजरना पड़ा. इस वर्ष जनवरी के बाद श्रीलंका में खाने और ईंधन की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि और उसके बाद सामान की भारी कमी जीना दूभर कर रही है. वर्ष 2020 में श्रीलंका की प्रतिव्यक्ति आय बाजार विनिमय दर के हिसाब से 4053 डॉलर वार्षिक और क्रयशक्ति समता के आधार पर 13537 डॉलर वार्षिक थी, जो भारत से कहीं अधिक थी. संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट (2020) में श्रीलंका का स्थान 72वां था, जबकि भारत 131वें स्थान पर था. इस प्रकार आर्थिक विकास की दृष्टि से श्रीलंका की स्थिति काफी बेहतर थी.

पूर्व के शासनाध्यक्षों और वर्तमान राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और उनके बड़े भाई प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने काफी नीतिगत गलतियां कीं, जिससे यह संकट खड़ा हुआ. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने श्रीलंका की साख रैंकिंग काफी नीचे कर दी है. सो, श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार से बाहर हो गया है. इसके चलते वह अपने विदेशी उधार का पुनर्वित्तियन नहीं करा सका. विदेशी मुद्रा की कमी के कारण श्रीलंका की करेंसी का अवमूल्यन शुरू हो गया. जब सरकार ने आयात को नियंत्रित करना शुरू किया, तो वस्तुओं, खास तौर पर ईंधन और खाद्य पदार्थों का अभाव होना शुरू हो गया.

सरकार का मानना था कि इससे विदेशी मुद्रा बचेगी और घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे निर्यात भी बढ़ेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. कर्ज भुगतान में कोताही रोकने के लिए श्रीलंका सरकार को अपने स्वर्ण भंडार बेचने पड़े तथा भारत व चीन से करेंसी स्वैप समझौते करने पड़े. श्रीलंका परंपरागत रूप से पर्यटकों का आकर्षण का केंद्र रहा है और विदेशी मुद्रा अर्जित करने में पर्यटन का खासा योगदान रहा है, पर महामारी के चलते पिछले साल पर्यटन से होनेवाली आमदनी लगभग पांच अरब डॉलर घट गयी.

श्रीलंका ने अत्यंत गैर जिम्मेदाराना तरीके से अचानक पूरी तरह से जैविक खेती की ओर बढ़ने का फैसला लिया और रासायनिक खाद पर पाबंदी लगा दी गयी. इससे कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ और कृषि उत्पादों की कीमतें बेतहाशा बढ़ने लगीं. इससे चाय निर्यात पर भी असर हुआ. जैविक खेती में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसे अचानक अंजाम देना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती. जहां सरकारी राजस्व पहले से ही घट रहा था, बिना सोचे-समझे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में की गयी कमी ने परिस्थितियां और बिगाड़ दीं. मजबूरी में बढ़ते हुए सरकारी खर्च के कारण बजट घाटा बढ़ता गया और उसके लिए ज्यादा नोट छापने के कारण मुद्रा का प्रसार बढ़ा और स्वाभाविक तौर पर महंगाई भी बढ़ी.

जब आयात पर रोक लगी, तो खाने-पीने और ईंधन की कमी तो हुई ही, निर्यात करने वाले उद्योग भी कच्चा माल और आवश्यक मध्यवर्ती वस्तुएं न मिलने के कारण प्रभावित होने लगे. इससे निर्यात में खासी कमी आयी. एक तरफ 10 अरब डॉलर का व्यापार घाटा और दूसरी तरफ भारी विदेशी कर्ज और उसमें भी बड़ी मात्रा में संप्रभु बांड, ऋण पुनर्भुगतान की समस्या श्रीलंका के लिए एक बुरे सपने से कम नहीं है. इन सब के ऊपर चीन के चंगुल में फंसकर जैसे श्रीलंका ने इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर भारी कर्ज उठाया, उसने बदहाली की रही-सही कसर भी पूरी कर दी. रूस और यूक्रेन से बड़ी संख्या में पर्यटक आते रहे हैं, रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते वह भी प्रभावित हुआ है. अब श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को गुहार लगायी है कि वह उधार के पुनर्गठन के साथ अतिरिक्त उधार प्रदान करे.

श्रीलंका में सदियों पूर्व तमिलनाडु से स्थानांतरित हुई बड़ी संख्या में तमिल जनसंख्या का निवास है. वहां की बिगड़ती स्थिति के कारण बड़ी संख्या में तमिल शरणार्थी तमिलनाडु के समुद्री तट पर पहुंच रहे हैं. मानवता के नाते उनकी मदद करना भारत और तमिलनाडु सरकार की प्राथमिकता रहेगी. इसके अलावा सरकार ने एक अरब डॉलर का उधार श्रीलंका को दिया है और 50 करोड़ डॉलर की सहायता भी उसे दी है, ताकि वह आवश्यक पेट्रोलियम उत्पाद खरीद सके. श्रीलंका सरकार ने अतिरिक्त 1.5 अरब डालर की मदद भी भारत सरकार से मांगी है.

एक पड़ोसी और मित्र देश होने के नाते भारत हर संभव सहायता दे रहा है और भविष्य में भी इसके जारी रहने की उम्मीद है. लेकिन संकट के समय सहायता देना ही पर्याप्त नहीं होगा. श्रीलंका के सामने इस आसन्न संकट से निपटने के लिए भारत को समाधान की ओर भी ले जाना होगा. श्रीलंका ने मुद्रा कोष से उधार की गुहार लगायी है, लेकिन यह सर्वविदित ही है कि उसके उधार शर्तों के साथ होते हैं और वे शर्तें अधिकांशतः उधार लेने वाले देशों के खिलाफ ही होती हैं. इसलिए उसके विकल्पों के बारे में भी विचार करना होगा. भारत सरकार इस मामले में मात्र उधार देने के अतिरिक्त यह भी प्रयास कर सकती है कि श्रीलंका के इस उधार का पुनर्गठन हो और उसे राहत मिले.

श्रीलंका के उधार के इस संकट के पीछे ऋण जाल में फंसाने की चीन की पुरानी रणनीति भी है. केवल श्रीलंका ही नहीं, बीसियों देश चीन के ऋण जाल में फंस चुके हैं. वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को एकजुट होकर चीन के इस कुत्सित प्रयास का जवाब देना होगा. इसके अतिरिक्त भारत सरकार श्रीलंका के दीर्घकालीन धारणीय विकास के लिए कार्य योजना का सुझाव देते हुए उसे मानवीय एवं व्यावसायिक सहायता प्रदान कर सकती है.

इसके लिए कृषि के पुर्नउत्थान, उद्योगों में कच्चे माल की कमी के कारण आयी अस्थिरता, आम लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं की कमी को दूर करने हेतु प्रयासों के साथ-साथ भारत संप्रभु ऋण की अदायगी हेतु मदद प्रदान कर श्रीलंका के लोगों का दिल तो जीत ही सकता है, साथ ही साथ चीन के चंगुल में फंसे अपने इस पुराने मित्र देश को पुनः विकास के पथ पर अग्रसर कराने का महत्वपूर्ण कार्य भी कर सकता है. आज जब चीन की कुत्सित रणनीति की पोल खुल चुकी है, यह एक महत्वपूर्ण अवसर है कि हिंद महासागर क्षेत्र से चीन का साया हटा कर इस क्षेत्र में अशांति के उसके प्रयासों को धत्ता दिखाया जाए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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