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अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों के प्रदर्शन

मूल रूप से मुद्दा पैसे के जोर का है, लेकिन उस बारे में कोई कम ही बात करता है. अंग्रेजी में लिखे गये कुछ लेखों में अमेरिकी छात्रों के प्रदर्शनों को लोकतंत्र के संकट, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बदलती परिभाषा आदि से जोड़ा गया, पर ये सब गौण मसले हैं.

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों के प्रदर्शन रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं. करीब तीन हफ्ते पहले कुछ संस्थानों से शुरू हुए इन प्रदर्शनों के दौरान कई छात्रों और प्रोफेसरों को गिरफ्तार किया जा चुका है, जबकि कई परिसरों में अभी भी छात्रों ने तंबू लगाकर प्रदर्शन जारी रखा है. इन प्रदर्शनों का संबंध पिछले साल अक्तूबर में हुई घटना से है, जिसमें फिलिस्तीनी गुटों ने इस्राइली इलाके में हमला किया था.

इसके बाद इस्राइली कार्रवाई में गाजा पट्टी में अब तक हजारों फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं. इस्राइल की इस लगातार चल रही कार्रवाई की न तो अमेरिका ने आलोचना की है और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे रोकने के लिए कोई गंभीर प्रयास हुए हैं. अमेरिकी सरकार पूर्व के अपने रवैये की तर्ज पर इस्राइल का समर्थन कर रही है. राष्ट्रपति जो बाइडन ने गाजा में मानवीय संकट होने की बात मानी है, लेकिन वे इस्राइल के खिलाफ न तो कोई कार्रवाई करने के पक्ष में हैं और न ही उसकी मनमानी रोकने के. यही हाल राष्ट्रपति चुनाव में उनको चुनौती दे रहे रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का भी है.

इसकी एक वजह अमेरिकी राजनीति में इस्राइल समर्थक व्यवसायियों और अन्य समूहों से मिलने वाला अकूत धन है. येरुशलम पोस्ट अखबार की 2018 की एक खबर पर यकीन करें, तो डेमोक्रेटिक पार्टी को मिलने वाले चंदे का पचास प्रतिशत ऐसे लोगों से आता है, जबकि रिपब्लिकन पार्टी को मिलने वाले चंदे में उनका योगदान पच्चीस प्रतिशत है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में उनका कितना महत्व है. लेकिन मामला यहीं पर खत्म नहीं होता है.

अमेरिका के कई बड़े व्यवसाय और संस्थान इस्राइल समर्थक चलाते हैं और उनके तार हर सरकार से जुड़े होते हैं.
फिलिस्तीन में हो रही व्यापक इस्राइली कार्रवाई पर अमेरिकी सरकार की चुप्पी से अमेरिकी विश्वविद्यालयों के छात्र बेहद नाराज हैं और वे इसी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. उनकी मांग है कि कम से कम विश्वविद्यालय उन व्यवसायों में किया गया अपना निवेश वापस लें, जो हथियारों के धंधे से जुड़ी हैं और जिन्हें गाजा में हो रही लड़ाई से लाभ पहुंच रहा है. इसे समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि अमेरिका के ज्यादातर बड़े विश्वविद्यालय प्राइवेट संस्थान हैं, मसलन- कोलंबिया, प्रिंस्टन, हाॅर्वर्ड, एमआइटी आदि, और इन सभी में पिछले कुछ हफ्तों से लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं.

इन विश्वविद्यालयों के पास एक बड़ी राशि होती है, जिसका वे निवेश करते हैं और इससे मिलने वाले लाभ से संस्थान चलाया जाता है. छात्र जो फीस देते हैं, वह भी यूनिवर्सिटी चलाने के काम आता है, यानी एक तरह से विश्वविद्यालय किसी कॉरपाेरेट कंपनी की तरह ही चलते हैं. छात्रों का कहना है कि चूंकि वे एक बड़ी रकम फीस के तौर पर देते हैं, तो उन्हें इस पर सवाल उठाने का पूरा अधिकार है कि यूनिवर्सिटी अपनी रकम का निवेश कैसे करे.

इन प्रदर्शनों की शुरुआत छोटी मांगों से हुई थी और अप्रैल की शुरूआत में कुछ यूनिवर्सिटियों में छात्रों ने तंबू लगाकर विरोध करना शुरू किया था. पहले कुछ दिनों तक तक तंबू लगे रहे, लेकिन जैसे-जैसे इन प्रदर्शनों को प्रोफेसरों, आम लोगों का समर्थन मिलना शुरू हुआ, वैसे-वैसे यूनिवर्सिटियों ने इसके खिलाफ कार्रवाई करनी शुरू कर दी. न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पुलिस ने तंबूओं को उखाड़ दिया और कई छात्रों को गिरफ्तार कर लिया. प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में दो छात्रों को निलंबित कर दिया गया. एमआइटी और अन्य संस्थानों में भी छात्रों के कॉलेज परिसर में तंबू लगाने पर रोक लगा दी गयी है और सप्ताहांत में अलग से पुलिस निगरानी हो रही है.


भारत में इन प्रदर्शनों की तस्वीर देखने वाले इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि अमेरिकी पुलिस भी कमोबेश अमेरिकी छात्रों के साथ वैसी ही हिंसा करती है, जैसा भारत में पुलिस करती है. इसका उत्तर बस यह हो सकता है कि पुलिस हर जगह एक जैसी होती है- हिंसक, निर्मम और आदेशों का पालन करने वाली. वह अमेरिका में भी वही कर रही है, जो उनसे सत्ता कह रही है. एमरी यूनिवर्सिटी की एक बुजुर्ग प्रोफेसर को पुलिस ने धक्का दिया और घसीट कर गिरफ्तार किया, जिसकी भारी आलोचना हुई है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि हर यूनिवर्सिटी में पुलिस कार्रवाई हुई ही हो. कुछ विश्वविद्यालयों में वहां के कुलपतियों ने न तो पुलिस बुलाया है और न ही छात्रों को हटने को कहा है. वहां के प्रोफेसर और प्रशासन के लोग लगातार छात्रों से बात कर रहे हैं और बीच का कोई रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं. यह मुश्किल काम है क्योंकि मामला निवेश का है. अगर विश्वविद्यालय इस तरह से निवेश का फैसला करने लगेंगे, तो कल को उन्हें डोनेशन मिलने में मुश्किल हो सकती है. इस्राइल समर्थक बड़े दानदाता हैं. वे इन यूनिवर्सिटियों को पैसा देना बंद कर सकते हैं. मूल रूप से मुद्दा पैसे के जोर का है, लेकिन उस बारे में कोई कम ही बात करता है. अंग्रेजी में लिखे गये कुछ लेखों में अमेरिकी छात्रों के प्रदर्शनों को लोकतंत्र के संकट, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बदलती परिभाषा आदि से जोड़ा गया, पर ये सब गौण मसले हैं. मुख्य मुद्दा यह है कि इस्राइल समर्थक पैसा अमेरिकी राजनीति की दशा और दिशा लंबे समय से तय करता रहा है.

मुश्किल यह है कि अगर कोई इस बात को स्पष्टता से कहे, तो उस पर बड़ी ही आसानी से यहूदी-विरोधी या एंटीसेमाइटिक होने का आरोप मढ़ दिया जाता है. ऐसा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले जर्मनी द्वारा किये गये यहूदी नरसंहार में बचे कुछ यहूदी और उनके परिजन भी गाजा में इस्राइल की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि जनसंहार की आड़ लेकर यहूदियों को ऐसा नहीं करना चाहिए और गाजा में शांति बहाली का रास्ता खोजना चाहिए.
बहरहाल यह सप्ताह अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ग्रैजुएशन वीक है, यानी ग्रैजुएट हो रहे छात्रों को सम्मानित करने का सप्ताह. इस अवसर पर भव्य आयोजन होते हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इन आयोजनों के दौरान कई छात्र फिलिस्तीन का समर्थन करेंगे और प्रशासनिक अधिकारियों के सामने ही उनका विरोध करेंगे और अपनी बात रखेंगे. साठ के दशक के बाद अमेरिकी छात्रों ने पहली बार इतने व्यापक स्तर पर पूरे अमेरिका में प्रदर्शन किये हैं, लेकिन क्या इससे अमेरिकी राजनीति या जनमानस का चरित्र बदलेगा, इस सवाल का जवाब अभी किसी के पास नहीं है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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