विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर चार मिनट में एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है. भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 16.4 प्रति एक लाख है, जबकि पुरुषों की 25.8 है. किसानों की आत्महत्याएं समस्या का दूसरा ही पहलू सामने लाती हैं. एक नये अध्ययन का निष्कर्ष है कि दुनिया में जितने लोग हत्यारों के शिकार नहीं होते, उनसे ज्यादा आत्महत्या को मजबूर होते हैं.
यह बताता है कि मानव जीवन की यह असुरक्षा हमारी चिंता से कहीं ज्यादा बड़ी है. इस अध्ययन के अनुसार हमारे देश में आत्महत्या करनेवालों की संख्या हत्याओं से जान गंवानेवालों से पांच गुनी अधिक है. इस चिंता को खत्म करना है, तो महज इस उपदेश से काम नहीं चलेगा कि आत्महत्या कायरता है या जीवन से पलायन है.
समझना होगा कि मनोविकारों या रोगों से पीड़ित और अवसादग्रस्त व्यक्तियों को छोड़ दें, तो कोई भी व्यक्ति यूं ही अपने जीवन का अंत नहीं करता. वह तब तक जिंदगी बचाने की कोशिश करता है, जब तक उसे लगता है कि उसके सामने मौजूद रात की कोई न कोई सुबह जरूर है. उसका यह विश्वास बनाये रखने में उसके परिवेश, परिजनों और प्रियजनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
जब वे यह भूमिका नहीं निभा पाते और संबंधित व्यक्ति इस निष्कर्ष तक पहुंच जाता है कि अब उसकी कोई सुबह नहीं बची, तभी उसकी निराशा चरम पर पहुंचती है. इस रूप में कोई भी आत्महत्या सामाजिक व आर्थिक संरचना की विसंगतियों, जटिल जीवन परिस्थितियों, दरकते सपनों और संवेदनहीन तंत्र के खिलाफ जोरदार टिप्पणी होती है.
फिर भी, जैसा कि एक विचारक ने लिखा है कि हत्याएं, जो आत्महत्याओं की अपेक्षा कम होती हैं, रोकने के लिए तो कई कानून, एजेंसियां, जेल व न्यायालय होते हैं, लेकिन आत्महत्याओं को रोकने के लिए कोई कारगर तंत्र बनाने पर विचार तक नहीं किया जाता. साल में एक दिन आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाकर अपना कर्तव्य समाप्त मान लिया जाता है.
निस्संदेह मानसिक अवसाद आत्महत्याओं का सबसे बड़ा कारक है, लेकिन हमारे समाज में न उससे पीड़ितों के प्रति सहानुभूति का भाव है, न उनके उपचार की कारगर चिकित्सा व्यवस्था. तिस पर अभी तक उन समूहों को चिह्नित करने का काम भी पूरा नहीं हुआ है, जिनमें आत्महत्या की दर या अंदेशे अधिक होते हैं.
किसे नहीं मालूम कि परीक्षाओं में नाकामी झेलनेवाले छात्र, पारिवारिक तनाव से जूझते बुजुर्ग, जटिल परिस्थितियों में तनाव के बीच काम करने वाले सैन्य व अर्धसैनिक बलों के जवान और थोड़े से वेतन में जैसे-तैसे जीवन घसीटते बेरोजगारों वगैरह पर ही आत्महत्या का सबसे ज्यादा कहर टूटता है, लेकिन जब चिह्नित करने का काम ही पिछड़ा हुआ है, तो यह कैसे होगा कि आत्महत्या की प्रवृत्ति से पीड़ित या उसका प्रयास कर बच जाने वालों की देखभाल व पुनर्वास के काम को गंभीरता से लिया जाए!
आत्महत्या की सरकारी परिभाषा को लेकर भी समस्या है, जिसके अनुसार किसी भी मौत को आत्महत्या तब माना जाता है, जब वह अप्राकृतिक मृत्यु हो और मरने का इरादा व्यक्ति के भीतर उत्पन्न हुआ हो. साथ ही, जीवन समाप्त करने का कारण सुसाइड नोट में लिखा गया हो. इन मानदंडों में से एक भी पूरा नहीं होता, तो मृत्यु को बीमारी, हत्या या किसी अन्य कारण से मृत्यु के रूप में वर्गीकृत कर दिया जाता है.
साल 2017 में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम बनने से पहले तक तो हालत यह थी कि कोई मानसिक रोगी आत्महत्या का कदम उठाता, तो उसके प्रति सहानुभूति जताने के बजाय उसे अपराधी माना जाता था. इस अधिनियम के बाद स्थिति थोड़ी बदली है और संवेदनशील पहलों की राहें खुली हैं, उनकी चिकित्सा सुविधा की भी और बिजली के झटके से उपचार जैसी अमानवीय पद्धति पर रोक की भी, लेकिन अभी भी बाधाएं हैं. आमतौर पर मानसिक रोगी अपनी समस्या को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. स्वीकारें भी, तो उनको तुरंत पागल करार देने की प्रवृत्ति समाज से अभी गयी नहीं है.
समाज में मादक द्रव्यों का सेवन भी मानसिक रोगों को बढ़ा रहा है. इन बाधाओं को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से जोड़ कर देखें, तो समस्या बहुत विकट नजर आती है. देश में आत्महत्या करनेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और कोरोना संकट ने इसे और गंभीर बनाया है. दूसरी लहर में अपने परिजनों को खोकर अनेक लोग अवसादग्रस्त हुए और जहां वह परिवारों के मुखिया को ही निगल गयी, वहां गहरा अवसाद किसी भी परिजन का पीछा नहीं छोड़ रहा. इनमें बच्चे भी शामिल हैं.
आंकड़ों के अनुसार आत्महत्या करने वालों में 67 प्रतिशत लोग 18 से 45 साल तक की उम्र के हैं और उनमें पढ़े-लिखे लोगों की संख्या भी कम नहीं है. गांवों-कस्बों और दूरदराज के क्षेत्रों को छोड़ भी दें, तो महानगरों में भी हालात चिंताजनक हैं, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा हेल्पलाइन नंबर जारी करने और जागरूकता अभियान चलाने के बावजूद. काश, अभी भी हम समझते कि आत्महत्या न कायरता होती है, न पलायन और न ही साहस. वह एक टूटे हुए व्यक्ति का फैसला होती है. देश या समाज में रहते हुए भी कोई इस कदर अकेला पड़ जाता है कि उसे मौत जिंदगी से भली लगने लगे, तो यह टूटन उसकी अकेले की नहीं, सारे देश व समाज की होती है.