आजादी के आंदोलन में स्वामी सहजानंद सरस्वती वह सम्मानपूर्ण उपस्थिति हैं, जिस पर समूचे भारतीय समाज को गौरव का अनुभव होता है. गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह ने स्वतंत्रता आंदोलन को किसानों एवं मजदूरों के लिए आकर्षक बनाया. गुजरात में सरदार पटेल के नेतृत्व में खेड़ा और बारदोली के किसान संग्रामों में मिली सफलता ने किसानों में विश्वास स्थापित किया कि आजादी के बाद उनकी दशा-दिशा सुधारने का काम कांग्रेस ही कर सकती है.
स्वामी जी ने किसान आंदोलन को और जनोन्मुखी बनाने का प्रयास किया, जब उन्होंने स्वतंत्र भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त करने का शंखनाद किया. कहने की आवश्यकता नहीं है कि उत्तर भारत में पार्टी का बड़ा नेतृत्व जमींदार परिवार से संबंधित था. भूमि सुधार, सामाजिक परिवर्तन जैसे संवेदनशील मुद्दों से नेतृत्व का बड़ा हिस्सा न सिर्फ दूरी बनाये हुए था, बल्कि समय-समय पर वर्ग हितों पर हो रहे हमलों का मुकाबला करने को भी तैयार रहता था.
स्वामी जी गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में नागपुर सम्मेलन में शामिल हुए. इससे पूर्व उनका बैरागी मन संन्यास से प्रभावित था. परिजनों ने उनके इस रुझानों पर विराम लगाने हेतु 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह कर दिया. दुर्भाग्य से शादी के दो वर्ष बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया. पुन: विवाह के लिए मना करने के बाद उन्होंने काशी में दशनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानंद से दीक्षा ली. काशी के निकट ही उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के देवा ग्राम में 22 फरवरी, 1889 को उनका जन्म हुआ था.
उन्होंने 1910 से 1912 तक काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्ययन किया. बलिया में हथुआ नरेश सजातीय भूमिहार समाज को एकत्र कर सुधारों के कार्यों में लगे थे. स्वामी जी समाज संगठन से प्रभावित होकर ब्राह्मण पत्र निकालने लगे. पटना में नवंबर, 1920 में महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद उन्होंने असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को एकजुट किया.
इसी सिलसिले में गांव-देहात की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का नजदीक से अध्ययन करने का अवसर मिला. वर्ष 1927 में उन्होंने पटना के बिहटा में सीताराम जी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीताराम आश्रम बनाकर अपना स्थायी निवास बनाया और 1929 में भूमिहार ब्राह्मण सभा से मतभेद के कारण नाता तोड़ लिया.
उसी वर्ष उन्होंने प्रांतीय किसान सभा का गठन कर जमींदारों के शोषण से मुक्ति और जमीन पर रैयतों का हक दिलाने हेतु संग्राम छेड़ दिया. बिहार में आये 1934 के भयंकर भूकंप के दौरान उन्होंने राहत कार्यों में अग्रणी भूमिका निभायी. जमींदारों के आक्रामक रुख के कारण संघर्ष को उन्होंने क्रांतिकारी स्वरूप देना प्रारंभ कर दिया. यहीं से कांग्रेस नेताओं के आचरण और सामंती समर्थक व्यवहार के कारण उनके मतभेद खुलकर सामने आने लगे.
उस समय कांग्रेस में भी समाजवादी विचारधारा के लोगों का जमघट संगठित होने का प्रयास कर रहा था. साल 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में एक विराट सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, आश्रम के महंतो, आचार्य कृपलानी, डॉ संपूर्णानंद, अच्युत पटवर्धन, इएमएस नंबूदरीपाद, अरुणा आसफ अली जैसे दिग्गज नेता उपस्थित रहे.
वर्ष 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा के स्थापना सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्वामी जी को अध्यक्ष चुना गया. सभा ने उसी साल किसान घोषणा पत्र जारी कर जमींदारी प्रथा समाप्त कर सारे कर्ज माफ करने की मांग उठायी. उस दौर के शीर्षस्थ साहित्यकार भी स्वामी जी के साथ जुड़ने लगे, जिनमें रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, महाश्वेता देवी, भीष्म साहनी, प्रभाकर माचवे, अज्ञेय, मुल्क राज आनंद, नागार्जुन आदि प्रमुख थे. स्वामी जी की कद-काठी का अंदाजा इसी से लग जाता है कि उनके द्वारा गठित प्रांतीय किसान सभा में उनके सचिव के तौर पर बिहार के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री बाबू ने कार्य किया.
सुभाषचंद्र बोस जनसभाओं में उन्हें धरती पर एक जादुई करिश्मे के नाम से पुकारते थे. मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपनी आत्मकथा में किसान विद्रोह का एजेंडा तैयार किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि जिसका हक छिन गया हो, उसे हक दिलाना ही आजादी तथा असली समाज सेवा है. मुजफ्फरपुर में 26 जून, 1950 को स्वामी जी महाप्रयाण कर गये. उन्हीं के संघर्षों का नतीजा रहा कि स्वतंत्र भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुई, लेकिन सपने अभी अधूरे हैं. हाल के किसान आंदोलन के मुद्दों ने इसे साबित कर दिया है. लाखों किसान आत्महत्या के लिए विवश हुए हैं.