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नेपाल के साथ रिश्तों में तनाव

कुछ समय पहले तक चीन की नेपाल में भूमिका केवल आधारभूत ढांचा खड़ा करने तक सीमित थी, लेकिन अब उसका दखल राजनीतिक ढांचे में स्पष्ट नजर आता है.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

पिछले कुछ समय से नेपाल की भाषा और स्वर दोनों बदले हुए हैं. भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद कोई नया नहीं है, यह पुराना है और वर्षों से चला आ रहा है. जब दुनिया कोविड-19 से जूझ रही है और सारे विवाद ठंडे बस्ते में हैं, उस वक्त नेपाल सरकार ने अचानक नया राजनीतिक नक्शा जारी कर एक विवाद उत्पन्न कर दिया है. इससे नेपाल सरकार की मंशा पर भी सवाल उठ रहे हैं. इस नक्शे में लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल की सीमा में दिखाया गया है. स्वाभाविक रूप से भारत को नेपाल के इस कदम पर खासी नाराजगी है और सरकार ने आधिकारिक रूप से इस पर आपत्ति जतायी है.

वहीं, नेपाल की कैबिनेट ने इसे अपना जायज दावा करार देते हुए कहा कि महाकाली (शारदा) नदी का स्रोत दरअसल लिम्पियाधुरा ही है, जो फिलहाल भारत के उत्तराखंड का हिस्सा है. गौर करने वाली बात यह है कि नेपाल की कैबिनेट का यह फैसला भारत की ओर से लिपुलेख इलाके में सीमा सड़क के उद्घाटन के कुछ दिनों बाद आया है. यह सड़क भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि लिपुलेख से होकर ही मानसरोवर जाने का रास्ता है. इस सड़क के बनाये जाने के बाद नेपाल ने विरोध दर्ज किया था. नक्शा जारी करने के बाद भी नेपाली नेताओं के आक्रामक बयान सामने आये हैं.

इसने इस विवाद में घी का काम किया है. नेपाल के सरकारी अखबार गोरखा पत्र ने नेपाल की भूमि प्रबंधन मंत्री पद्मा कुमारी आर्यल का बयान छापा, जिसमें उन्होंने कहा कि हम अपने राष्ट्रीय क्षेत्रों की रक्षा करने से कतराते नहीं हैं. कुछ दिन पहले नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कोविड-19 महामारी में भारत के प्रयासों के साथ रहने की प्रतिबद्धता जतायी थी, लेकिन थोड़े ही दिन बाद वह नेपाल का नया नक्शा जारी करते हुए कह रहे थे कि नेपाल अपनी जमीन का एक इंच हिस्सा भी नहीं छोड़ेगा. अनेक भारतीय विशेषज्ञ इसे नेपाल सरकार पर चीन के बढ़ते प्रभाव के रूप में भी देखते हैं.

उनका मानना है कि नेपाल के साथ भूमि विवाद तो पहले से ही था, लेकिन ऐसी आक्रामक भाषा का इस्तेमाल इसके पहले नहीं हुआ. मीडिया में भी इस तरह की खबरें आती रही हैं कि नेपाल में चीन का दखल बढ़ रहा है. हालांकि नेपाली नेता ऐसे बयानों को खारिज करते आये हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि नेपाल में चीन पांव पसारने का प्रयास लगातार कर रहा है. कुछ समय पहले तक चीन की नेपाल में भूमिका केवल आधारभूत ढांचा खड़ा करने तक सीमित थी, लेकिन अब उसका दखल राजनीतिक ढांचे में स्पष्ट नजर आने लगा है.

भारत और नेपाल के रिश्ते सदियों पुराने हैं. यह बात दीगर है कि इसमें उतार-चढ़ाव भी आते रहे हैं. भारत और नेपाल के बीच जैसा जुड़ाव है, वैसा दुनिया में किसी अन्य देश के बीच नहीं है. हम भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक, हर तरह से एक दूसरे से जुड़े रहे हैं. भारत और नेपाल ने अपने विशेष संबंधों को 1950 की भारत-नेपाल शांति एवं मैत्री संधि से नयी पहचान दी.

इस अंतरराष्ट्रीय संधि के माध्यम से दोनों देशों के संबंधों के आयाम निर्धारित किये गये. संधि के अनुसार, दोनों देशों की सीमा एक-दूसरे के नागरिकों के लिए खुली रहेगी और वे एक-दूसरे के देश में बेरोकटोक आ जा सकेंगे और उन्हें काम करने की भी छूट होगी. यही संधि दोनों देशों के बीच एक गहरा रिश्ता स्थापित करती है. प्रधानमंत्री मोदी ने पद संभालने के तुरंत बाद पड़ोसी देशों पर विशेष ध्यान देना शुरू किया. वे नेपाल की यात्रा पर भी गये. नेपाल में आये भूकंप के दौरान भारत ने तत्काल मदद के लिए हाथ बढ़ाया और राहत एवं बचाव कार्य में अहम भूमिका निभायी.

इससे दोनों देशों के संबंध और प्रगाढ़ हुए और लगा कि रिश्ते नये मुकाम तक पहुंचेंगे, लेकिन मधेसी और अन्य मुद्दों को लेकर दोनों देशों के बीच खटास आ गयी और नेपाल के नया नक्शा जारी करने के बाद तो दोनों देशों के बीच अविश्वास बढ़ गया है. नेपाली नेतृत्व के चीन की ओर झुकाव को लेकर भारत चिंतित है. प्रधानमंत्री ओली के शुरुआती बयानों से इस धारणा को बल मिला था. नेपाल के प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि नेपाल चीन की वन बेल्ट वन रोड़ योजना में शामिल होगा, लेकिन चीन के बजाय भारत की पहली विदेश यात्रा कर ओली ने रिश्तों को पटरी पर लाने की दिशा में पहल की थी. हालांकि ये प्रयास अब नाकाफी नजर आ रहे हैं.

नेपाल की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भारत पर निर्भर है. वर्तमान में भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग के तहत छोटी-बड़ी लगभग 400 परियोजनाएं चल रही हैं. वहां उद्योग-धंधे नगण्य हैं. भारत में लगभग 50 लाख नेपाली नागरिक काम करते हैं. वे नेपाल में अपने परिवारों को अपनी कमाई का एक हिस्सा भेजते हैं. यह राशि नेपाल की जीडीपी में प्रमुख योगदान देती है. बिहार का तो नेपाल के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता रहा है. नेपाल का दक्षिणी इलाका भारत की उत्तरी सीमा से सटा है. यह तराई वाला इलाका है, जो मधेस के नाम से जाना जाता है.

भारत-नेपाल के रिश्तों के बीच खटास का एक अन्य प्रमुख कारण नदी जल विवाद भी रहा है. भारत अरसे से कोसी नदी पर बांध बनाये जाने की मांग नेपाल से करता आया है. दरअसल, बिहार का एक बड़ा इलाका हर साल इसी नदी के कारण बाढ़ की चपेट में आ जाता है और भारी तबाही होती है. बांध बनने से बरसात में इस नदी के जल-प्रवाह को नियंत्रित किया जा सकेगा. इससे नेपाल में बिजली उत्पादन भी संभव हो पायेगा, जिसका लाभ नेपाल को होगा. इसके लिए भारत ने पूरी मदद की पेशकश भी की है, मगर नेपाल सरकार का इस मामले में हमेशा से टालमटोल का रवैया रहा है.

बहरहाल, भारत और नेपाल के बीच विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध हैं. ऐसे में यह चिंता का विषय है कि इतने घनिष्ठ और मधुर संबंधों के बावजूद अविश्वास की यह परिस्थिति कैसे उत्पन्न हो गयी? जाहिर है, इसमें चीन की बड़ी कूटनीतिक भूमिका है. इस तथ्य काे समझते हुए भारत-नेपाल के द्विपक्षीय मसलों पर कूटनीतिक पहल को और बारीकी, सावधानी और संतुलित तरीके से आगे बढ़ाया जाए, ताकि को वहां पांव पसारने का अवसर न मिले.

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