यह कड़वा सच है कि हमारे मछुआरे आये दिन श्रीलंका की सीमा में घुस जाते हैं और फिर उनके नारकीय दिन शुरू हो जाते हैं. जैसे तैसे छूट भी आते हैं, तो उनके जीवनयापन का जरिया नावें वहीं रह जाती हैं. इस त्रासदी के निदान के लिए कच्चातिवु द्वीप एक भूमिका निभा सकता है. उसे वापस लेने के बजाय निर्धारित शर्तों के कड़ाई से पालन की बात हो, तो भारतीय मछुआरों के लिए उचित ही होगा. लेकिन यह समझना होगा कि यह चुनावी मुद्दा नहीं है क्योंकि भारत ने भी श्रीलंका से इसके एवज में बेशकीमती जमीन ली है. कच्चातिवु द्वीप 285 एकड़ का हरित क्षेत्र है, जो एक नैसर्गिक निर्माण है और ज्वालामुखी विस्फोट से 14वीं सदी में उभरा था.
इसका अधिकार 17वीं सदी में मदुरै के राजा के पास होने के दस्तावेज हैं. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान यह द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी में था. इस पर मछुआरों के दावों को लेकर 1921 में भी सीलोन यानी श्रीलंका और भारत के बीच विवाद हुआ था. साल 1947 में इसे भारत का हिस्सा माना गया, पर श्रीलंका इस पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं था. इंदिरा गांधी के दौर में भारत के श्रीलंका से घनिष्ठ संबंध थे. कोलंबो में 26 जून 1974 और 28 जून को दिल्ली में दोनों देशों ने एक समझौता किया, जिसके तहत कुछ शर्तों के साथ इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया.
समझौते के मुताबिक, दोनों देशों के मछुआरे कच्चातिवु का उपयोग आराम करने और अपने जाल सुखाने के साथ-साथ वहां सेंट एंथोनी चर्च में पूजा कर सकते थे. साल 1983 तक ऐसा होता भी रहा. तब भारतीय मछुआरों की संख्या कम थी और जाफना में अशांति भी नहीं थी. अब श्रीलंका की सेना भारतीय मछुआरों को उधर फटकने नहीं देती. यह सच है कि भाजपा से जुड़े मछुआरों के संगठन की लंबे समय से मांग रही है कि इस टापू को यदि वापस लिया जाता है, तो भारतीय मछुआरों को जाल डालने के लिए अधिक स्थान मिलेगा और वे श्रीलंका की सीमा में गलती से भी नहीं जायेंगे.
लेकिन यह भी सच है कि आज जिस द्रमुक को इसके लिए जिम्मेदार कहा जा रहा है, वह 1974 के बाद कई बार भाजपा के साथ सत्ता में हिस्सेदार रहा है. यह भी सच है कि तमिलनाडु के मछुआरों का एक वर्ग कच्चातिवु के समझौते से खुश नहीं था. फिर भारत और श्रीलंका के बीच 1976 में एक और करार हुआ, जिसके तहत श्रीलंका ने हमें कन्याकुमारी के करीब वेज बैंक सौंप दिया, जो 3,000 वर्ग किलोमीटर में फैला द्वीप है. इस संधि से भारतीय मछुआरों को इलाके में मछली पकड़ने का अधिकार मिला. इसके तीन साल बाद श्रीलंकाई मछुआरों के वहां जाने पर रोक भी लगा दी गयी. वेज बैंक कच्चातिवु जैसे निर्जन द्वीप के मुकाबले अधिक सामरिक महत्व का और कीमती है. यहां तेल एवं गैस के बड़े भंडार भी मिले हैं.
मछुआरों की समस्या को समझे बगैर कच्चातिवु के महत्व को नहीं समझा जा सकता. रामेश्वरम के बाद भारतीय मछुआरों को अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा लगभग 12 समुद्री मील मिली है. इसमें भी छोटी नावों के लिए पहले पांच समुद्री मील छोड़े गये हैं. गत एक दशक के दौरान हमारे तीन हजार से ज्यादा मछुआरे श्रीलंका सेना द्वारा पकड़े गये, जिनमें से कई को गोली लगी और जान भी गयी. सैंकड़ों लोग सालों तक जेल में भी रहे. भारत और श्रीलंका में साझा बंगाल की खाड़ी के किनारे रहने वाले लाखों परिवार सदियों से समुद्री मछलियों से अपना पेट पालते आये हैं.
जैसे मछली को नहीं पता कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे भारत और श्रीलंका भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि समुद्र के असीम जल पर सीमा कैसे खींची जाए. यह भी कड़वा सच है कि जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है, तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने, शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है. अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए काफी दूर निकलना पड़ता है. खुले सागर में सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है.
दोनों देशों के बीच मछुआरा विवाद की एक बड़ी वजह हमारे मछुआरों द्वारा इस्तेमाल नावें और तरीके भी हैं. हमारे लोग बॉटम ट्रॉलिंग के जरिये मछली पकड़ते हैं. इसमें नाव की तली से वजन बांध कर जाल फेंका जाता है. इस तरीके को पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नुकसानदेह माना जाता है. श्रीलंका में ऐसी नावों पर पाबंदी हैं. तभी श्रीलंका सीमा में हमारे मछुआरे अवैध तरीके से मछली पकड़ने के दोषी बन जाते हैं. श्रीलंका के सुरक्षा बल भारतीय तमिलों को संदिग्ध नजर से भी देखते हैं.
भारत एवं श्रीलंका के बीच अच्छे संबंधों की सलामती के लिए कच्चातिवु द्वीप और मछुआरों का विवाद बड़ी चुनौती हैं. हालांकि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ सीज के अनुसार जल सीमा निर्धारण और उस द्वीप को वापस लेना सरल नहीं है, लेकिन समझौते की शर्तों पर जोर दिया जाए, तो हमारे मछुआरों के लिए बढ़िया होगा. साल 2015 में ही हमने बांग्लादेश के साथ भूमि लेन-देन का बड़ा समझौता किया था. यदि पूर्ववर्ती सरकारों के समझौतों को चुनावी मुद्दा बनाया जायेगा, तो हमारी साख गिरेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)