आज से 165 वर्ष पहले 1857 में देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम दस मई को शुरू हुआ था. ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बागी देसी सिपाहियों ने इसी दिन दिल्ली से 60-70 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ छावनी में उस गुलामी से मुक्ति के लिए पहला सशस्त्र अभियान शुरू किया था, जो एक सदी पहले 1757 में प्लासी की ऐतिहासिक लड़ाई में राॅबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में कंपनी की जीत के बाद से देशवासियों की छाती पर लदी हुई थी. दुर्भाग्य से वह संग्राम अपनी मंजिल नहीं पा सका था और कुटिल अंग्रेजों ने उसे विफल कर दिया था.
फिर भी इस संग्राम ने इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को विवश कर दिया था कि वे देश की सत्ता कंपनी से छीन कर अपने अधीन कर लें. उनके ऐसा करने के कोई पचास साल बाद तक दस मई अपने दुर्भाग्य पर रोने को अभिशप्त रही, लेकिन फिर कई जागरूक देश प्रेमियों की कोशिशों से राष्ट्रीय त्योहार बन गयी.
इस दिन हिंदुस्तानी ये पंक्तियां दोहराने में गर्व का अनुभव करते- ओ दर्दमंद दिल दर्द दे चाहे हजार, दस मई का शुभ दिन भुलाना नहीं / इस रोज छिड़ी जंग आजादी की, बात खुशी की गमी लाना नहीं. अमेरिका में भारतवंशियों द्वारा गठित हिंदुस्तान गदर पार्टी के अनुयायियों ने तो इस गीत को अपना कंठहार ही बना रखा था.
दस मई, 1857 को रविवार था. उस दिन पहले स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत यूं हुई कि मेरठ में देसी सिपाहियों ने उग्र होकर जेल पर हमला किया और गाय व सुअर की चर्बी वाले बहुचर्चित कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार के ‘कुसूर’ में वहां बंदी अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया. इसमें बाधक बने अंग्रेज अफसरों को जान से मारने और उनके बंगले वगैरह फूंक देने के बाद अपनी जीत का बिगुल बजाते हुए ये सैनिक अगले दिन दिल्ली आ पहुंचे और उन्होंने अंग्रेजों द्वारा अपदस्थ आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को फिर से गद्दी पर बैठा दिया.
जफर ने असमर्थता जताते हुए उनसे कहा कि उनके पास खजाना कहां है कि वे उन्हें तनख्वाह देंगे, तो जोशीले सैनिकों का जवाब था- आप हुक्म भर दे दें, हम ईस्ट इंडिया कंपनी को शिकस्त देकर उसका सारा खजाना लायेंगे. इसके बाद जो कुछ हुआ, उसे कवयित्री स्वर्गीया सुभद्राकुमारी चौहान ने इन शब्दों में लिखा है- बूढे भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी.
अंग्रेज अगले दो साल तक पश्चिम में पंजाब, सिंध व बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में अरुणाचल व मणिपुर और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केरल व कर्नाटक तक अलग-अलग मोर्चों पर कभी मुंह की खाते और कभी छल-प्रपंच से बढ़त हासिल करते. उन्हें मैदानी इलाकों में हल जोतने वालों से लेकर छोटानागपुर/रांची की पर्वतीय जनजातियों, हिंदुओं से लेकर मुसलमानों, सिखों, जाटों, मराठों व बंगालियों तक, शिक्षितों से लेकर अंगूठा छाप किसानों व मजदूरों, सिपाहियों से लेकर राजमिस्त्रियों,
राजे-रजवाड़ों से लेकर मेहतरों और रानियों-बेगमों से लेकर उनकी दासियों-बांदियों तक के दुर्निवार क्रोध से निपटना पड़ा, पर यह संग्राम कंपनी की कुटिलताओं से पार नहीं पा सका, न ही देश की ब्रिटिश उपनिवेश वाली नियति ही बदल सका. बहरहाल, 10 मई के अच्छे दिन 1907 में आये, जब विजयोन्माद में अंधे अंग्रेज पहले स्वतंत्रता संग्राम और उसके नायकों पर तमाम लानतें भेजते हुए इंग्लैंड में जश्न मना रहे थे.
तब लंदन में पढ़ाई कर रहे विनायक दामोदर सावरकर का राष्ट्रप्रेम जागा और उन्होंने वहां रह रहे हिंदुस्तानी नौजवानों व छात्रों को ‘अभिनव भारत’ और ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के बैनर तले संगठित करके ‘1857 के शहीदों की इज्जत और लोगों को उसका सच्चा हाल बताने के लिए’ अभियान शुरू किया. साल 1909 में उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द हिस्ट्री आफ इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ लिखी, जिसमें 1857 को ‘भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम’ बताया. उसे अंग्रेजों ने तुरंत जब्त कर लिया.
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन व नौजवान भारत सभा से संबद्ध क्रांतिकारी चिंतक भगवती चरण वोहरा ने अप्रैल, 1928 में ‘किरती’ में ‘दस मई का शुभ दिन’ शीर्षक अपने लेख में लिखा- भारतवासियों द्वारा अपनी गुलामी की जंजीरें तोड़ने का यह प्रथम प्रयास था, जो भारत के दुर्भाग्य से सफल नहीं हुआ. इसलिए हमारे दुश्मन इस ‘आजादी की जंग’ को गदर और बगावत के नाम से याद करते हैं और इसके नायकों को कई तरह की गालियां देते हैं. विश्व इतिहास में ऐसी कई घटनाएं मिलती हैं, जहां ऐसी जंगों को इसलिए बुरे शब्दों में याद किया जाता है कि वे जीती नहीं जा सकीं.
आज दुनिया गैरीबाल्डी और वाशिंगटन की बड़ाई व इज्जत करती है क्योंकि उन्होंने आजादी की जंग लड़ी और उसमें सफल हुए. इसी तरह तात्या टोपे, नाना साहिब, झांसी की महारानी, कुंवर सिंह और मौलवी अहमदउल्ला शाह आदि वीर जीत हासिल कर लेते, तो आज वे हिंदुस्तान की आजादी के देवता माने जाते.
उन्होंने आगे लिखा है कि 1907 में सावरकर ने दस मई को भारत के राष्ट्रीय त्योहार में बदल दिया. यह बड़ी बहादुरी का काम था, जो अंग्रेजी राज की राजधानी लंदन में किया गया, लेकिन बाद में इंग्लैंड में भारतीयों द्वारा यह त्योहार मनाने का सिलसिला टूट गया. इसकी क्षतिपूर्ति यूं हुई कि अमेरिका में हिंदुस्तान गदर पार्टी बनी और उसने वहां हर साल इसे मनाना शुरू कर दिया. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)