आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
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गैंगस्टर विकास दुबे का एनकाउंटर आजकल चर्चा में हैं. ‘एनकाउंटर के जरिये तत्काल न्याय’ से पूरी न्याय प्रणाली पर देशव्यापी बहस छिड़ गयी है. एक वर्ग इस एनकाउंटर की प्रशंसा कर रहा है, तो दूसरी ओर अनेक लोग इस पर सवाल भी उठा रहे हैं. सोशल मीडिया तो इस विमर्श का केंद्र बन गया है. एक दिन पहले विकास दुबे के मध्य प्रदेश के उज्जैन में सरेंडर की खबर आयी थी, लेकिन अगले ही दिन सुबह लोगों को एनकाउंटर की खबर मिली. उत्तर प्रदेश पुलिस ने कानपुर से 30 किलोमीटर दूर उसे मार गिराया. पुलिस का कहना है कि उज्जैन से उसे सड़क के रास्ते लाया जा रहा था, तभी काफिले में शामिल एक वाहन पलट गया.
इसका फायदा उठा कर उसने भागने की कोशिश, जिसमें पुलिस ने उसे मार गिराया, लेकिन पुलिस की इस कहानी में कई झोल हैं. लिहाजा उन पर सवाल उठने लाजिमी हैं. घटनाक्रम को बारीकी से देखें, तो विकास दुबे ने उज्जैन के महाकाल मंदिर में आत्मसमर्पण किया. कोरोना काल होने के बावजूद वहां लोगों की आवाजाही रहती है.
उसे आशंका रही होगी कि एकांत में गिरफ्तारी देने में एनकाउंटर का खतरा है. उसे लगा होगा कि सरेंडर के बाद एनकाउंटर का खतरा टल गया है. इसके बाद उसे कोर्ट में पेश किया जाता और रिमांड के बाद वह जेल में पहुंच जाता, मगर इससे पहले ही वह मारा गया. इस पर अनेक सवाल हैं. जब सब कुछ उसके मुताबिक चल रहा था, तो उसने भागने की कोशिश क्यों की, गाड़ी कैसे पलट गयी, गोलियां पीठ पर न लगकर छाती पर क्यों लगीं इत्यादि.
विकास दुबे के मामले में पुलिस महकमे से जुड़े कुछेक लोगों की भूमिका भी शुरू से संदिग्ध रही है. यह कितनी चौंकाने वाली बात है कि एक अपराधी की तलाश में पुलिस दबिश देती है, जिसकी सूचना लीक हो जाती है. नतीजतन पुलिस को अपने आठ जवान गंवाने पड़ते हैं. सवाल यह भी है कि घटना के बाद अलर्ट के बावजूद विकास दुबे उत्तर प्रदेश के तमाम पुलिस नाकों को पार करते हुए कैसे सड़क के रास्ते मध्य प्रदेश के उज्जैन तक बेरोकटोक पहुंच जाता है.
इसमें कोई शक नहीं कि जो शख्स आठ पुलिसकर्मियों का हत्यारा हो और जिसके खिलाफ 60 से अधिक संगीन मामले दर्ज हों, उसकी कहानी का पटाक्षेप होना ही चाहिए, लेकिन यह जिम्मेदारी न्यायपालिका की बनती है कि वह अपराधी काे उचित सजा सुनाए. जब आप मुद्दई और मुंसिफ दोनों बने जायेंगे, तो सवाल उठने लाजिमी है. ऐसी कार्रवाई से पूरी व्यवस्था पर भी सवाल खड़े होते हैं और लोगों का उस पर भरोसा डगमगाता है.
भारत में अपराधियों, पुलिस प्रशासन और नेताओं का गठजोड़ कोई नयी बात नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद राजनीति में आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों का दबदबा कम नहीं हुआ है, क्योंकि बाहुबलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग रखने के बारे में राजनीतिक दलों में आम सहमति का अभाव है. संसद और विधानसभाओं में संगीन आरोपों वाले अनेक लोग पहुंच जाते हैं.
अनेक अवसरों पर ऐसे मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें भी गठित हुई हैं, लेकिन उनकी सुनवाई की रफ्तार भी धीमी है. विकास दुबे व्यवस्था की उपज था, इस बात में भी कोई शक नहीं है. इतने अपराधों के बावजूद वह जमानत पर छुट्टा घूम रहा था. यह भी बड़ा प्रश्न है कि उसे संगीन मामलों में भी जमानत कैसे मिल जाती थी? सवाल यह भी उठ रहे हैं कि थाने में घुस कर दर्जा प्राप्त मंत्री की हत्या करने वाले शख्स के खिलाफ पुलिस एक भी चश्मदीद गवाह खड़ा नहीं कर पायी.
मीडिया में जो खबरें आयीं हैं, उनके अनुसार विकास दुबे 90 के दशक में एक छोटा-मोटा बदमाश हुआ करता था. जब भी पुलिस उसे पकड़ कर ले जाती थी, तो उसे छुड़वाने के लिए स्थानीय रसूखदार नेताओं के फोन आते थे. विकास दुबे को सत्ता का संरक्षण मिला, तो वह राजनीति में भी पांव पसारने लगा और वह एक बार जिला पंचायत सदस्य भी चुन लिया गया था. उसके घर के लोग तीन गांव में प्रधान रहे हैं. जाहिर है कि विकास दुबे अपराध, राजनीति और प्रशासन के गठजोड़ की ही उपज था.
पद्म विभूषण से सम्मानित जूलियो रिबेरो सुपर पुलिस अधिकारी माने जाते हैं. जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था, तो उन्होंने उसके खात्मे में अहम भूमिका निभायी थी. इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख में उन्होंने लिखा है कि वे 1953 में पुलिस सेवा में शामिल हुए थे और उन्होंने कभी सपने में भी सोचा नहीं था कि विकास दुबे जैसे अपराधी भारत में पनप सकते हैं. उनके दौर में भी अपराधी होते थे, लेकिन वे पुलिस से डरते थे और पुलिस का इकबाल बुलंद था.
किसी अपराधी में पुलिस दल पर हमला करने की हिम्मत नहीं थी, खासकर जब कोई वरिष्ठ अधिकारी उसका नेतृत्व कर रहा हो. कैसे एक छोटे अपराधी, जिसका असर उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक सीमित था, उसके दिल से पुलिस प्रशासन का भय समाप्त हो गया? वे लिखते हैं कि इसका जवाब ढूंढना कोई मुश्किल नहीं है. संस्थाओं के राजनीतीकरण और न्यायिक व्यवस्था के क्षरण के कारण यह पहले से ही स्पष्ट नजर आने लगा था.
कोई भी नागरिक कानून व्यवस्था के लिए सबसे पहले पुलिस से संपर्क करता है. उसके बाद अभियोजन पक्ष, बचाव पक्ष और जज आते हैं. यदि पहला पड़ाव ही पैसे और राजनीति से प्रभावित हो जाए, तो फरियाद का कोई नतीजा नहीं निकलता है. रिबेरो लिखते हैं कि आजकल तो अधिकारियों की तैनाती राजनीतिक लाभ हानि देख कर की जाती है. यही वजह है कि यदि किसी ने सही व्यक्ति से पैरवी लगवा दी, तो अभियुक्त का छूट जाना तय है.
कुछ समय पहले एक और घटना चर्चा में आयी थी. हैदराबाद के बहुचर्चित रेप कांड में पकड़े गये चारों अभियुक्त एक एनकाउंटर में मारे गये थे. एनकाउंटर हैदराबाद से 50 किलोमीटर दूर उसी स्थान पर हुआ, जहां दुष्कर्म हुआ था. एनकाउंटर से पहले अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया गया था. एनकाउंटर के बाद कुछ लोग घटनास्थल पर पहुंच गये और वे पुलिस पर फूल बरसाते और मिठाई बांटते नजर आये. घटनास्थल पर स्थिति यह हो गयी कि लोगों को संभालने के लिए पुलिस फोर्स बुलानी पड़ी.
विकास दुबे एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को भी कुछ लोगों ने माला पहना कर सम्मानित किया और उनके पक्ष में नारे लगाये. इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसा ही जारी रहा, तो हमारी पूरी न्याय व्यवस्था पर संकट उत्पन्न हो सकता है, लेकिन इस सवाल का जवाब भी देना जरूरी है कि क्या ऐसे अपराधियों के शिकार हुए लोगों को न्याय मिलने का अधिकार नहीं है? बड़ी संख्या में लोगों का इसके पक्ष में आना सामाजिक व्यवस्था की विफलता का भी संकेत है.
लोगों का यह रुख न्याय प्रणाली को लेकर हताशा से उपजा है. इसमें धीमी चाल से चलने वाली अदालतें, कार्रवाई में सुस्ती बरतने वाली हमारी पुलिस, कड़े कानून बनाने में विफल हमारे जनप्रतिनिधि और ऐसे लोगों को संरक्षण देनेवाले सफेदपोश भी बराबर के दोषी हैं. कहा गया है कि न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए. हालांकि इसका जवाब किसी भी स्थिति में एनकाउंटर तो नहीं है, लेकिन सरकारों, न्यायपालिका और समाज का यह दायित्व भी है कि विकास दुबे जैसे अपराधी बच कर नहीं निकल पाने चाहिए.