दुनिया के सबसे खुशहाल देश माने जाने वाले फिनलैंड में कर्ज के बढ़ते बोझ की वजह से राजनीति का पलड़ा वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर झुक गया है. यूक्रेन पर रूसी हमले का मुखर विरोध करने और दशकों की गुटनिरपेक्षता की नीति को छोड़कर फिनलैंड को नाटो में शामिल करने के कारण देश-विदेश में लोकप्रिय बनीं प्रधानमंत्री सन्ना मरीन कांटे की त्रिकोणीय टक्कर में हार गयी हैं.
विश्व की सबसे युवा, खूबसूरत, रॉक स्टार की छवि वाली और महिलाओं के नेतृत्व वाली पांच पार्टियों के मध्य-वामपंथी मोर्चे की नेता होने के कारण विश्व समुदाय में उनकी एक विशिष्ट पहचान बनी थी. परंतु एक पार्टी में पीने और नाचने का उनका वीडियो विवाद का विषय बन गया. उनके समर्थन में युवाओं और महिलाओं ने कई वीडियो जारी किये, पर कोई जुगत काम न आ सकी.
चुनाव में मरीन की रॉक स्टार की छवि और कार्यशैली मुद्दा बनी ही नहीं. यूक्रेन युद्ध और नाटो में शामिल होना भी मसला नहीं था क्योंकि इन पर लगभग सभी पार्टियों की एक राय थी. चुनाव के विषय बने तेजी से बढ़ता राष्ट्रीय और निजी कर्ज तथा उसे घटाने के लिए सरकारी खर्च में कटौती के उपाय, सामा आदिवासियों की अधिकार रक्षा का विधेयक सामा संसदीय बिल और आप्रवासियों की समस्या, जो यूरोप के हर देश में किसी न किसी रूप में मुद्दा बनती है.
फिनलैंड जैसे देश में कर्ज और खर्च का चुनावी मुद्दा बनना विरोधाभासी प्रतीत होता है, पर यह सच है. वर्ष 2019 में जब सन्ना मरीन सत्ता में आयी थीं, तब देश का राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी की तुलना में केवल 65 प्रतिशत था. महामारी के कारण 2020 में बढ़कर यह 74.8 प्रतिशत हो गया था और अब 72.6 प्रतिशत के आसपास है.
इसके बावजूद दूसरे विकसित देशों के परिप्रेक्ष्य में कर्ज का यह स्तर चिंता का सबब नहीं होना चाहिए क्योंकि अमेरिका, जापान, इटली, फ्रांस और ब्रिटेन समेत कई देशों का कर्ज उनके जीडीपी के बराबर या उससे अधिक हो चुका है. फिनलैंड का कर्ज जर्मनी से थोड़ा अधिक और स्वीडन एवं डेनमार्क से दोगुना से ज्यादा है. फिर भी फिनलैंड को कर्जदारों की ‘एएए’ श्रेणी में रखा जाता है, यानी उसकी साख श्रेष्ठ कर्जदार की है.
इसका मतलब यह है कि फिनलैंड को सबसे सस्ती दरों पर कर्ज मिल सकता है. श्रीलंका, पाकिस्तान और लेबनान को फिनलैंड से दो से तीन गुना दरों और कड़ी शर्तों पर कर्ज मिलता है. फिर भी फिनलैंड के लोग इतिहास के कड़वे सबक की वजह से कर्ज को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं. भारत की तरह फिनलैंड को भी नब्बे के दशक की मंदी में भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था. सोवियत संघ के बिखरने से उसके साथ होने वाला व्यापार ठप हो गया था तथा मुद्रा का तेज अवमूल्यन हुआ था.
बैंकों पर संकट छाने से बड़ी संख्या में कारोबार दिवालिया हो गये थे, जिससे बेरोजगारी फैल गयी थी. इससे निपटने के लिए सरकार को टैक्स बढ़ाने और खर्च घटाने पड़े थे तथा भारी कर्ज लेना पड़ा था. बहुत पहले फिनलैंड यूरोप का अकेला ऐसा देश था, जिसने कर्ज के भुगतान के लिए 1931 में अमेरिका से मिली एक साल की मोहलत के भीतर अपना कर्ज चुका दिया था.
वह पुरानी साख उसके काम आयी. फिर भी दो साल के भीतर उसका कर्ज जीडीपी के 10 प्रतिशत से बढ़कर 51 प्रतिशत हो गया था. इस समय वैसा आर्थिक संकट तो नहीं है, पर यूक्रेन युद्ध के कारण रूस के साथ होने वाला व्यापार ठप है. कोविड की मार से उबरी अर्थव्यवस्था को ऊर्जा संकट और महंगाई का सामना करना पड़ रहा है.
धीमी अर्थव्यवस्था के कारण राजस्व कम हो गया है तथा जनकल्याण और सरकार के खर्च बढ़ रहे हैं. लोगों की उम्र लंबी होने से पेंशनभोगियों की संख्या बढ़ रही है और काम करने वालों की घट रही है. पूरा यूरोप और जापान इस समस्या से जूझ रहे हैं. फ्रांस में तो पेंशन सुधारों के विरोध में उग्र आंदोलन चल रहा है. भारत को भी देर-सबेर इस समस्या से दो-चार होना होगा.
सवाल उठता है कि कर्ज टैक्स बढ़ा कर कम किया जा सकता है, उसके लिए जनकल्याण के खर्च में कटौती की ही बात क्यों हो रही है. उत्तर यह है कि फिनलैंड यूरोप ही नहीं, सारे विकसित देशों में सबसे अधिक टैक्स लेने वाला देश है. लेकिन बदले में स्कूल से लेकर कॉलेज तक शिक्षा और इलाज मुफ्त है. सबको पेंशन मिलती है और गर्मियों में एक माह की छुट्टी मिलती है. यही कारण है कि फिनलैंड शिक्षा, स्वास्थ्य एवं खुशहाली हर पैमाने में चोटी पर रहता है.
फिनलैंड के लोगों के खुश रहने के कारणों पर कई सर्वेक्षण हुए हैं. उनसे तीन कारणों का पता चलता है. पहला, फिनिश लोग दिखावे और होड़ से दूर रहते हैं. निजी विमान रखने वाले भी मेट्रो में चलते नजर आते हैं. दूसरा, लोगों का प्रकृति प्रेम. लोग गर्मियों की छुट्टियां एक रस्म की तरह प्रकृति के बीच बिताते हैं.
तीसरा और सबसे अहम कारण है पारस्परिक भरोसा. पिछले साल दुनिया के 16 शहरों में 192 बटुए गिराकर एक प्रयोग किया गया. फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में गिराये गये 12 बटुओं में से लोगों ने 11 लौटाये थे, जो एक रिकॉर्ड था. फिनिश लोग एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं और ईमानदारी को महत्व देते हैं.
यही कारण है कि चुनाव नतीजों में उन्नीस-बीस का फर्क होने पर भी न कोई हंगामा हो रहा है और न ही कोई खरीद-फरोख्त. वैसे भी यहां चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व से होते हैं. जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलते हैं, उसके अनुपात में संसद की सीटें मिल जाती हैं. कंजर्वेटिव राष्ट्रीय मोर्चे को 20.8 प्रतिशत वोटों से 48 सीटें मिली हैं, जबकि फिंस राष्ट्रवादी मोर्चे को 20.1 प्रतिशत वोटों से 46 सीटें और प्रधानमंत्री सन्ना मरीन की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी को 19.9 प्रतिशत वोटों से 43 सीटें हासिल हुई हैं.
फिनलैंड में अमेरिका, इजरायल और भारत की तरह हंगामा नहीं होता. ज्यादा सीटें पाने वालों के लिए रास्ता छोड़ दिया जाता है, इसलिए प्रधानमंत्री मरीन ने अपनी हार मान कर कंजर्वेटिव राष्ट्रीय मोर्चे के नेता पूर्व वित्त मंत्री पत्तेरी ओर्पो को जीत की बधाई दी है. परंतु ओर्पो के लिए भी नयी सरकार के गठन का काम आसान नहीं होगा क्योंकि उनके कंजर्वेटिव मोर्चे और फिंस राष्ट्रवादी मोर्चे के बीच यूरोप और आप्रवासन को लेकर गहरे मतभेद हैं.