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शांति की राह आसान नहीं

अमेरिका काफी समय से अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी के लिए तैयारी कर रहा है. इसके लिए पिछले कई वर्षों से वह लगातार प्रयास भी कर रहा है.

शशांक

पूर्व विदेश सचिव

अमेरिका काफी समय से अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी के लिए तैयारी कर रहा है. इसके लिए पिछले कई वर्षों से वह लगातार प्रयास भी कर रहा है. डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव के दौरान इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था. हालांकि, उनसे पहले बराक ओबामा भी सैनिकों की वापसी को लेकर कई बार बयान दे चुके थे. ऐसा नहीं है कि यह केवल रिपब्लिकन का ही मुद्दा रहा है, अमेरिका में इसे लेकर आम सहमति रही है कि अफगानिस्तान से सैनिकों को वापस बुलाया जाये.

जहां तक अफगानिस्तान में सुरक्षा आदि से जुड़ा मुद्दा है, वे कहते रहे हैं कि यह उनकी चिंता का विषय नहीं है. अगर शांति बहाल करना है, तो स्थानीय अफगान सरकार को इस मामले में पहल करनी होगी. सरकार को विभिन्न पक्षों के साथ मिल कर बातचीत करनी होगी. अमेरिका यह भी कहता रहा है कि अफगानिस्तान में शांति बहाली में स्थानीय देश और पड़ोसी देश भी अपनी रचनात्मक भूमिका अदा करें.

अब अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हो गया. हालांकि, पाकिस्तान यह समझाने में सफल रहा कि शांति समझौते के बाद हक्कानी नेटवर्क आदि की भूमिका अब सकारात्मक हो जायेगी. फिलहाल, तालिबान का रुख स्पष्ट नहीं है, वह अफगान सरकार को मानने को तैयार नहीं है. वह लगातार स्थानीय सरकार की मुखालफत कर रहा है. अशरफ गनी को अमेरिका की कठपुतली बता कर वह बातचीत में व्यवधान डालता रहा है. ऐसा लगता है कि दोनों तरफ अविश्वास आगे भी बना रहेगा.

दूसरी बात, तालिबान, पाकिस्तान और उसके समर्थकों को लगता है कि आधा देश तो उनके कब्जे में है ही, अगर वह थोड़ा और प्रयास करें, तो सरकार गिर जायेगी और वे पूरे देश पर काबिज हो जायेंगे. पाकिस्तान बहुत दिनों से सोचता रहा है कि इससे उसे सामरिक बढ़त मिल जायेगी. साथ ही उनके जो आतंकी गुट सक्रिय हैं, जिसे लेकर भारत हमेशा आवाज उठाता रहा है, उसे वे अफगानिस्तान-पाकिस्तान बॉर्डर पर शिफ्ट कर सकते हैं. बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद पाकिस्तान को यह भय है कि कहीं भारत ऐसे हमले दोबारा न कर दे. अगर आतंकी कैंपों को वह अफगान बॉर्डर एरिया में शिफ्ट कर देता है, तो यह काम भारत के लिए थोड़ा मुश्किल जरूर हो जायेगा.

अमेरिका और तालिबान वार्ता पर भारत की नजरें लगी हुई थीं. भारत की अपनी चिंताएं है. अमेरिका ने आश्वासन दिया था कि यह कदम शांति व्यवस्था को बहाल करने के लिए उठाया जा रहा है, लेकिन अगर यह वार्ता असफल होती है या फिर से हिंसा फैलती है, वह दोबारा कार्रवाई करेंगे और कड़ा रुख अपनायेंगे. अमेरिका अपनी लंबी योजना लेकर चल रहा है. वह अफगानिस्तान से निकलना चाहता है, जिसके लिए वह चरणबद्ध तरीके से प्रयास कर रहा है.

तालिबान के जो समूह जैसे हक्कानी नेटवर्क आदि हैं, वे अपना रुख बदलेंगे या नहीं, यह भ‌विष्य में ही पता चलेगा. अशरफ गनी के साथ वे किस तरह से वार्ता प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं, इससे आगे की राह स्पष्ट होगी. हालांकि, तालिबान के अप्रत्याशित रुख की वजह से अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि तालिबान के उभरने के बाद ड्रग्स आदि का कारोबार तेजी से बढ़ेगा, जिससे उनके पास काफी धन आ जायेगा. वे इन पैसों का इस्तेमाल हथियार खरीदने के लिए भी कर सकते हैं. जिस तरह से अफगान सैनिकों और सुरक्षाबलों को निशाना बनाया जा रहा है, उससे तालिबान पर विश्वास कर पाना मुश्किल है. अमेरिका शांति वार्ता प्रक्रिया में अफगान सरकार को शामिल करने की बजाय अपने स्तर पर तालिबान से बातचीत कर रहा था.

हालांकि, अफगान सरकार को लेकर अमेरिका का रुख रक्षात्मक है. क्योंकि तालिबान का जैसा दौर अफगानियों ने देखा है, उसकी वापसी कोई नहीं चाहता. उन्हें उम्मीद है कि पड़ोसी देश अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर दबाव बना कर रखेंगे. इसमें ईरान, चीन और रूस समेत अन्य देश भी मिल कर दबाव बनायेंगे, जिससे वहां दोबारा उस तरीके के तालिबान का उभार न हो सके. अगर अफगानिस्तान अशांत होता है, तो उसका असर अन्य देशों पर भी पड़ेगा. जिस तरह से वार्ता के बाद तालिबान पर अमेरिका ने हमला किया है, उससे स्पष्ट होता है कि अगर अशांति बढ़ती है, तो वे मजबूत वापसी के लिए तैयार हैं. अब गौर करनेवाली बात होगी कि क्या तालिबान अपने हमले कम करता है या फिर हमले को जारी रखता है. उसके रुख के अनुसार ही अमेरिका की कार्रवाई होगी. भारत की अपनी अलग चिंता है, क्योंकि भारत ने वहां करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है. वहां भारत ने कई इन्फ्रॉस्ट्रक्चर प्रोजेक्ट, डैम, स्कूल, सड़कें और संसद भवन आदि बनाये हैं. अभी भी कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं.

भारत अमेरिका की तरह अमीर मुल्क नहीं है. अरबों डॉलर खर्च करके वे निकल सकते हैं. भारत ऐसा नहीं कर सकता. पड़ोसी देश के नाते उसकी चिंता स्वाभाविक है. अगर अफगानिस्तान और पाकिस्तान अस्थायित्व और अशांति के शिकार हो जाते हैं, तो वह भारत के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं. इसमें हमें अपने स्तर पर पहल करनी होगी. चाहे रूस हो, ईरान हो या फिर चीन, हमें उनके साथ मिल कर काम करना होगा. अगर इस क्षेत्र में आतंकवाद बढ़ता है, तो भारत को अमेरिका के सहयोग की जरूरत होगी.

जो आतंकी गुट हैं, अगर वे भारत को निशाना बनाते हैं, तो अमेरिका को विश्वास में लेकर उन पर कार्रवाई करनी होगी. हालांकि, तालिबान ने अमेरिका से यह वादा किया है कि अलकायदा आदि गुटों के साथ संबंध नहीं रखेगा. उन्हें अफगानिस्तान में आने से रोकेगा. अगर वह अपनी बात पर अमल करता है, तो अलकायदा, दायेस और इस्लामिक स्टेट आदि कट्टरपंथी समूह पर रोक लग सकती है. वे अमेरिका के सैनिकों को छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन अफगान सैनिकों को लेकर शर्तें रख रहे हैं, वे अपने लड़ाकों को छुड़वाने की बात कर रहे हैं. हालांकि, इस मामले में अशरफ गनी के साथ बातचीत आगे बढ़ानी होगी. अफगान सरकार के साथ भारत का सामरिक संबंध है. समझौते के दौरान भारत के विदेश सचिव भी उपस्थित रहे. कुल मिला कर भारत को सतर्क रहना होगा और पाकिस्तान पर दबाव बनाकर रखना होगा. भारत को अन्य देशों के साथ मिल कर इस मुहिम आगे बढ़ाना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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