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मुद्रास्फीति वृद्धि की गंभीर चुनौती

आर्थिक नीति के लिए यह एक कठिन साल होगा और मुद्रास्फीति को नीचे रखने के लिए वित्तीय, मौद्रिक और प्रशासकीय नियंत्रण समेत हर औजार की आवश्यकता होगी.

सरकारी अनुदानों के बेहतर तरीके पर आर्थिक नीति-निर्माताओं में लंबे समय से बहस होती रही है. क्या इसे नकद दिया जाना चाहिए या सामान के रूप में? नकदी के पैरोकार गरीबों के खाते में पैसे डालना पसंद करते हैं, जिसे गरीब अपनी इच्छा से खर्च कर सकता है. जन धन योजना से सीधा हस्तांतरण आसान हो गया है. इसके तहत लगभग 45 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं. बैंकों के इलेक्ट्रॉनिक जुड़ाव से भी आसानी हुई है.

कई मामलों में सामान देने से नकदी देना अधिक असरदार होता है. लेकिन मार्च, 2020 से सरकार नकदी की जगह भोजन जैसी चीजों से फायदा पहुंचा रही है. प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत हर राशन कार्डधारी व्यक्ति को हर माह पांच किलो अनाज और एक किलो दाल दिया जाता है. यह कल्याण योजना दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य सुरक्षा योजना है, जिसमें लगभग 80 करोड़ लोगों को भोजन मिल रहा है. पहले यह योजना 2020 में ही कुछ माह बाद खत्म होनी थी, पर इसे बढ़ाया जाता रहा है और अब यह इस साल सितंबर तक चलेगी.

मुद्दा यह है कि अनुदान वस्तु के रूप दिया जा रहा है, नकदी में नहीं. ऐसे समय में, जब खाद्य वस्तुओं के मूल्य बढ़ रहे हैं और गेहूं के दाम आसमान छू रहे हैं, आप उन गरीबों की परेशानी का अंदाजा लगा सकते हैं, जिन्हें अगर केवल नकदी दी जाती, अनाज नहीं. नकद अनुदान की बुनियादी कमी यह है कि वे मुद्रास्फीति से लाभार्थी को नहीं बचाते. यह भी हो सकता है कि पैसा गलत खाते में जमा हो जाए या कोई साइबर धोखाधड़ी हो जाए.

चूंकि अनाज वितरण में चीजें दी जाती हैं, तो उनका मूल्य मुद्रास्फीति से कम नहीं होता. इसमें सरकार के सामने देश के कोने-कोने में बिना नुकसान या भ्रष्टाचार के अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करने की बड़ी चुनौती भी होती है. लेकिन राज्य सरकारों के सहयोग से खाद्य वितरण कमोबेश सफल रहा है. इस योजना में पात्रता 2013 में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून से तय होती है.

उसमें चावल, गेहूं और मोटे अनाज क्रमशः तीन, दो और एक रुपये प्रति किलो की दर से मुहैया कराने का प्रावधान है. महामारी के दौर में रोजगार और आजीविका खोने की स्थिति में मौजूदा योजना में यह पूरी तरह मुफ्त कर दिया गया है. माना जा रहा है कि इस योजना का असर अनेक राज्यों के चुनाव नतीजों पर भी पड़ा है. अनाज वितरण योजना एक जटिल प्रशासकीय व्यवस्था का उदाहरण है, जो महामारी और खाद्य मुद्रास्फीति के समय सबसे उचित था. चूंकि लाभार्थी खाद्य मुद्रास्फीति से सुरक्षित थे, इसने खाद्य सुरक्षा बेहतर करने के साथ खाद्य मूल्यों को भी स्थायित्व दिया.

अब जब हम यूक्रेन में युद्ध के कारण तेल के दाम में मुद्रास्फीति के गंभीर असर तथा उच्च वस्तु मुद्रास्फीति का सामना कर रहे हैं, तो कम से कम खाद्य मुद्रास्फीति को देखते हुए सरकार को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को बढ़ाना पड़ सकता है. पर ध्यान रहे कि इस योजना में भारी वित्तीय खर्च होगा क्योंकि इसमें उच्च दर पर खरीद कर और भंडारण व ढुलाई के खर्च के साथ अनाज मुफ्त दिया जाता है. फिर भी यह वित्तीय भार और प्रशासनिक उपाय रिजर्व बैंक द्वारा किये गये मात्र मौद्रिक उपायों से अधिक प्रभावी हैं.

सरकार ने घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए गेहूं निर्यात पर रोक लगाकर भी साहसी निर्णय लिया है. भारत के लिए यह एक असहज स्थिति है क्योंकि मार्च में कहा गया था कि हम ‘दुनिया को खिलायेंगे’ और गेहूं निर्यात पर रोक नहीं होगी, पर दो माह के भीतर ही इसके उलट फैसला करना पड़ा. ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि यह आकलन सामने आ गया कि इस साल गेहूं की पैदावार में बड़ी कमी आयेगी और शायद हमारे पास निर्यात के लिए अधिशेष न बचे.

रिजर्व बैंक ने भी कुछ दिन पहले पलटी मारते हुए अचानक ब्याज दरों और नकदी भंडारण अनुपात में बढ़ोतरी कर दी. इस अनुपात के बढ़ने से 12 फीसदी (लगभग 90 हजार करोड़ रुपये) नकदी मुद्रा आपूर्ति से बाहर हो गयी. मौद्रिक मोर्चे पर यह अचानक जकड़न उस बात से पूरी तरह उलट थी, जो कई सालों से रिजर्व बैंक कहता रहा है. साल 2018 के बाद यह पहला ऐसा कदम है. रिजर्व बैंक ने महामारी के दौरान बहुत नकदी मुहैया कराया था (जीडीपी का लगभग आठ प्रतिशत), ब्याज दरों को बहुत नीचे रखा था तथा कर्ज चुकौती में राहत देने जैसे उपायों की मदद की थी.

हालांकि उन नीतियों से अर्थव्यवस्था को भले मदद मिली, पर अधिक नगदी के कुछ खराब असर भी हुए. शेयर बाजार (और आवास योजनाओं में भी) खूब पैसा आया, जिससे बाद में बड़ी गिरावट का अंदेशा पैदा हुआ. स्टॉक मार्केट का बढ़ा धन मुख्य रूप से धनिकों के पास जाता है, और उस पर कोई टैक्स भी नहीं लगता क्योंकि उसका लाभ निकाला नहीं जाता है. इसलिए इससे वित्तीय घाटे को कम करने में मदद नहीं मिलती.

दूसरा असर यह हुआ कि मुद्रास्फीति बहुत ऊपर रही, जो महामारी से पहले से ही थी. दो साल से अधिक समय से औसत मुद्रास्फीति की दर छह फीसदी के आसपास रही है, जो कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति द्वारा तय सीमा का ऊपरी स्तर है. एक साल से अधिक समय से थोक मूल्य सूचकांक 14 प्रतिशत है. रिजर्व बैंक ने दरें बढ़ाकर पहले नियंत्रण का प्रयास नहीं किया.

शायद उसे कमजोर आर्थिक बेहतरी का ध्यान था या वह सरकार के उधारी लेने के कार्यक्रम की मदद करना चाहता था. बैंकिंग तंत्र में सबसे अधिक उधार भारत सरकार लेती है और ब्याज दर कम होने से उसे राहत मिलती है. इसी साल सरकार को लगभग 14 लाख करोड़ उधार लेने हैं.

कुल संप्रभु कर्ज पहले ही जीडीपी के 90 फीसदी के लगभग है. अगर ब्याज दर एक फीसदी भी बढ़ती है, तो 70 हजार करोड़ का अतिरिक्त भार बढ़ जायेगा. रिजर्व बैंक ने अंतत: जोखिम उठाने का फैसला किया है. मुद्रास्फीति के अलावा रुपये के मुकाबले डॉलर का दाम भी बढ़ता जा रहा है. भारतीय बॉन्ड बाजार में डॉलर को आकर्षित करने के लिए जरूरी है कि भारत में ब्याज दरें अमेरिका से अधिक हों.

स्पष्ट रूप से हमारे सामने अनेक चुनौतियां हैं- मुद्रास्फीति प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा, निवेशकों का भरोसा बहाल रखना आदि. आर्थिक नीति के लिए यह एक कठिन साल होगा और मुद्रास्फीति को नीचे रखने के लिए वित्तीय, मौद्रिक और प्रशासकीय नियंत्रण समेत हर औजार की आवश्यकता होगी.

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