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शलभ के निकट समर भूमि थी दुनिया

भारतीय समाज और राजनीति में क्रांति का स्वप्न देखनेवाले भावुक, सरल और बेहद ईमानदार कवि के रूप में शलभ की आभा ऐसी निर्मल थी कि लोगों को उनमें कबीर की अक्खड़ता, नजरूल की क्रांतिचेतना और निराला का ओज एक साथ नजर आते थे.

कृष्ण प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

न फस-नफस, कदम-कदम, बस एक फिक्र दम-ब-दम, घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए, जवाब-दर-सवाल है कि इंकलाब चाहिए. हिंदी साहित्य प्रेमियों की नयी पीढ़ी को न सही, पुरानी को तो यह अच्छी तरह याद है कि युयुत्सावाद के प्रवर्तक कवि शलभ श्रीराम सिंह का क्रांतिकारी चेतना से ओतप्रोत यह गीत एक समय देश के प्रायः सारे परिवर्तनकामी जन-आंदोलनों का प्रयाण-गीत हुआ करता था. इससे अभिभूत बाबा नागार्जुन ने उन्हें बगावत का कवि करार देते हुए कहा था कि वे अपने पाठकों को जनसाधारण की जिंदगी कठिन करनेवाली क्रूर शक्तियों के विरुद्ध हथियारों जैसे शब्द देते हैं.

भारतीय समाज और राजनीति में क्रांति का स्वप्न देखनेवाले भावुक, सरल और बेहद ईमानदार कवि के रूप में शलभ की आभा ऐसी निर्मल थी कि लोगों को उनमें कबीर की अक्खड़ता, नजरूल की क्रांतिचेतना और निराला का ओज एक साथ नजर आते थे. शलभ के अपने शहर फैजाबाद की बात करें, तो उनके निधन के दो दशकों बाद भी वे यहां की दंतकथाओं में जीवंत हैं. शलभ अपरिचितों को भी पहली मुलाकात में ही बताना नहीं भूलते थे कि उनके नाम का ‘श’ शत्रुघ्न के लिए, ‘ल’ लक्ष्मण के लिए और ‘भ’ भरत के लिए है. फिर पूछते थे- इन भाइयों के बगैर श्रीराम हैं भी क्या?

फिर कोई काव्यप्रेमी आपको उनकी ये पंक्तियां सुनाकर चमत्कृत भी कर सकता है- तुम खड़े-खड़े सहो रोबोट की मार/ कंप्यूटर के डांटे चबाओ पड़े-पड़े/ अलविदा, मैं चला/ एक कविता मेरे इंतजार में है!/ रॉकेटों, मिसाइलों, बमों और रसायनों से दूर/ अपनी दुनिया में वापस जा रहा हूं मैं/ एक बच्चा मेरे इंतजार में है/ इंतजार में है एक फूल/ एक पत्ती मेरे इंतजार में है! उनकी कवि प्रतिभा ने 1991 में ही पहचान लिया था कि सौ रुपये किलो पालक खरीदने के लिए/ तैयार हो रहा है देश/ तैयार हो रहा है जनगण/ एक कभी न खत्म होनेवाले युद्ध के लिए/ सिक्कों से लड़ा जानेवाला यह युद्ध/ शुरू हो चुका है पृथ्वी पर!

वे अपनों से प्रायः पूछा करते थे- तुम्हारा कभी लोगों से झगड़ा-वगड़ा होता है या नहीं, और जवाब में ‘नहीं’ सुनते ही कहते थे, ‘जिसका कभी किसी से झगड़ा नहीं होता, वह भी भला कोई आदमी है?’ उर्दू शायरी के लिए उन्होंने अपना ‘शलभ फैजाबादी’ नाम रखा था, जो हिंदी में सक्रियता के कारण शलभ श्रीराम सिंह ही हो गया. युयुत्सावाद के प्रवर्तन के बाद उन्होंने इस संसार को कभी भी शांतिभूमि नहीं माना. वे संसार को समरभूमि मानकर हमेशा इसे अपने विचारों व सपनों के अनुकूल बनाने के लिए लड़ते रहे. लेकिन, कोई नहीं जानता कि उनके अंतिम दिनों में यानी 23 अप्रैल, 2000 से पहले अचानक ऐसा क्या हुआ कि फैजाबाद को ही बांटकर बनाये गये नये अंबेडकरनगर जिले में जलालपुर कस्बे के निकट अपने गांव मसोढ़ा में उनको ‘अनैतिक व अयोग्य’ लोगों से भरे हुए समाज में सांस लेना ‘पाप के समान’ प्रतीत होने लगा? क्यों वे इस निष्कर्ष तक जा पहुंचे कि मूल्यहीन व भ्रष्टाचारग्रस्त भारतीय समाज में उनके जैसे व्यक्ति की आवश्यकता ही नहीं रह गयी है? अपने कथित सुसाइड नोट में उन्होंने क्यों लिख डाला कि उन्हें ‘अपनी शर्तों पर’ यह संसार छोड़कर चले जाना चाहिए?

दरअसल, इस संसार से शलभ का रिश्ता था ही कुछ ऐसा. फिर भी विभिन्न आंदोलनों के मकड़जाल में फंसी, कृत्रिम, अराजक और लदी-लदाई हो चली की हिंदी कविता को अराजकता के शिखर से उतारकर सच्ची जमीन और जनजीवन से जोड़ने के उपक्रमों में उनका यह विश्वास पूरे जीवन अपरिवर्तित रहा कि : ‘कविता के बीच से तुम्हें गुजार देने की क्षमता से युक्त, कोई न कोई पुरुष जन्म लेता रहेगा हमेशा.’

शलभ सिर्फ कवि नहीं थे. उनका विचार और चिंतन-संसार भी उतना ही समृद्ध था, जितनी उनकी कविताएं. यह उनका चिंतन ही था, जिसने युयुत्सा को ऐसे वाद के तौर पर प्रतिष्ठा दिलायी, जिसमें अस्पष्टता के लिए कोई जगह नहीं है. वे मानते थे कि मानव सभ्यता का इतिहास युद्धों से भरा है और अलग-अलग देशों व कालों में अलग-अलग कारणों से युद्ध होते रहे हैं. ये कारण व्यक्तिगत हों अथवा वर्ग, वर्ण, राष्ट्र या राज्य को लेकर पैदा हुए राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, नस्लीय या सांप्रदायिक कारण. उनके अनुसार ‘युद्ध विचारों से जन्म लेते हैं और जिंदगी के किसी भी मोड़ पर इनसे आमना-सामना हो सकता है. इनसे नजरें फेरकर जो संसार को शांतिभूमि कहते हैं, वे और कुछ नहीं आनेवाले इंकलाब की राह रोकने का निष्फल प्रयत्न कर रहे होते हैं.

’ उनकी मानें, तो युयुत्सा मानव की केंद्रीय प्रवृत्ति और इतिहास को प्रतिफलित करनेवाला संघर्षबोध है. यह संघर्ष बोध उनके अनुसार जीवन में गति और सौभाग्य का सूचक है. अब शलभ नहीं हैं और परिस्थितियां ऐसी कि उन्हें अभीष्ट इंकलाब की राह और कठिन होती मालूम पड़ती है, इसलिए कई लोगों को आनेवाला समय और अंधेरा लग सकता है. पर, शलभ ऐसा नहीं मानते थे. अपने निधन से कुछ ही समय पहले इन पंक्तियों के लेखक से एक मुलाकात में उन्होंने नयी पीढ़ी में अपने असीम विश्वास का प्रदर्शन करते हुए कहा था- यह समय विलाप करने का नहीं, कुछ नया करने और नयी प्रतिभाओं के पास जाने का है- पूरे आत्मविश्वास के साथ क्रांति के गीत गाने का.

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