आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक , प्रभात खबर
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कुछ दिनों पहले मजदूर दिवस बीता है, जिसमें अर्थव्यवस्था में मजदूरों के योगदान को याद कर कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. आज लॉकडाउन के कारण उत्पन्न मजदूरों की मुश्किलों की चर्चा हो रही है. कई ऐसी खबरें सामने आयी हैं, जो विचलित कर देती हैं. आप सभी ने यह खबर पढ़ी होगी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास 16 प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी से कट कर मौत हो गयी. ये सभी मजदूर महाराष्ट्र की एक स्टील फैक्ट्री में काम करते थे और काम बंद होने से परेशान थे. वे सभी श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ने के लिए औरंगाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचने की कोशिश में थे, ताकि घर वापस जा सकें. चूंकि, हाइवे पर लॉकडाउन के कारण चलना संभव नहीं है, इसलिए सभी ने पटरियों का रास्ता पकड़ा. आजकल ट्रेनों की आवाजाही लगभग बंद है. इसलिए थक कर वे पटरियों पर ही सो गये. भोर में एक मालगाड़ी आयी और 16 श्रमिकों की ट्रेन से कट कर मौत हो गयी.
दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर एक अभियान ट्रेंड कर रहा है #metoomigrant यानी मैं भी प्रवासी मजदूर हूं, जो मजदूरों की मुश्किलों का एक तरह से माखौल है. ऐसी संवेदनहीनता की जितनी निंदा की जाए, वह कम है. अनेक मजदूर पैदल ही हजार-हजार किलोमीटर की दूरी तय करते हुए अपने घरों की ओर चल दिये हैं. पंजाब, तेलंगाना और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों ने तो अनुरोध किया है कि प्रवासी मजदूर वापस न जाएं, अन्यथा फैक्ट्रियों में काम ठप पड़ जायेगा और खेतों में फसल की कटाई रुक जायेगी. लॉकडाउन से मजदूरों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन एक बात तो साबित हो गयी है कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश मजदूरों से चलता है. यह भी स्पष्ट हो गया है कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम चलनेवाला नहीं है. गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो चमक दमक नजर आती है, उसमें प्रवासी मजदूरों का बड़ा योगदान है. राज्यों की चमक दमक उनके बिना खो भी सकती है.
दरअसल, ये प्रवासी मजदूर मेहनतकश हैं, लेकिन इन मजदूरों को जैसा आदर मिलना चाहिए, वैसा नहीं मिलता है. कई राज्यों में मजदूरों को बेइज्जत करने तक की कोशिश की जाती है. कई राज्यों में बेवजह मजदूरों को निशाना भी बनाया गया है, लेकिन कोरोना ने मजदूरों और उनकी कठिनाइयों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है. कॉरपोरेट जगत को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वे अपने कल-कारखाने बिहार-झारखंड जैसे राज्यों में लगाएं, जहां हुनरमंद कामगारों की भरमार है. इन मजदूरों के बिना कारोबार जगत का कामकाज कितना कठिन हो सकता है, इस विषय में उन्होंने इससे पहले कभी सोचा ही नहीं है. इनका भरपूर शोषण किया जाता है. अक्सर न्यूनतम वेतन निर्धारित नहीं होता है. काम के घंटे, छुट्टियां, कुछ भी तो निर्धारित नहीं होते हैं. दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूमन आठ घंटे काम करने का प्रावधान होता है, लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन कुछ निर्धारित नहीं हैं. कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं है. जिस दिन मजदूर छुट्टी करे या बीमार पड़े, उस दिन उसकी तनख्वाह तक कट जाने का खतरा रहता है.
महानगरों में तो जाति गौण हो गयी है और उनकी जगह समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है. उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और कामगार हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है. मुंबई में वह धारावी में रहता है, तो दिल्ली-एनसीआर में उसका डेरा खोड़ा है. बॉलीवुड ने धारावी को चर्चित कर दिया है, लेकिन खोड़ा से हम ज्यादा परिचित नहीं है. दिल्ली-नोएडा और गाजियाबाद से सटा एक गांव है, जिसका नाम है खोड़ा. यह देश का सबसे बड़ा गांव है और इसकी आबादी चार से पांच लाख है. इस पूरे क्षेत्र में कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं. इनमें अधिकांश अवैध हैं. बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है, जबकि यह गांव ठीक दिल्ली-एनसीआर की नाक के नीचे है. यहां बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, जिस राज्य का आप नाम लें, उसका गरीब तबका आपको मिल जायेगा. सबकी एक पहचान है कि वे सब मजदूर हैं. यह गांव दिल्ली आनेवाले हर मजदूर को पनाह देता है. कम-से-कम आधे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को यह गांव दाइयां, ड्राइवर, ऑटो चलानेवाले, बढ़ई, पुताई करनेवाले और दिहाड़ी मजदूर उपलब्ध कराता है.
सुबह से साझा ऑटो से यहां से दाइयों के जत्थे काम पर निकल पड़ते हैं. ऐसा कहा जाता है कि अगर खोड़ा के लोग हड़ताल पर चले जाएं, तो कम-से-कम आधी दिल्ली ठप हो जाए. ड्राइवर के नहीं आने से साहब लोग दफ्तर नहीं पहुंच पायेंगे और मेड के न आने से मैडम नौकरी पर नहीं पहुंच पायेंगी. यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उपलब्धि के बावजूद ये राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं. हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे, ताकि लोगों को बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े. अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती. हर साल दिल्ली और दक्षिण के राज्यों में पढ़ने के लिए बिहार और झारखंड के हजारों बच्चे जाते हैं.
राजस्थान के कोटा में बिहार- झारखंड के हजारों बच्चे कोचिंग के लिए जाते हैं. हमें बिहार और झारखंड को शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित करने की जरूरत है. हम ऐसा ढांचा विकसित करें कि हमारे बच्चों को पढ़ाई और कोचिंग के लिए बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े. मेरा मानना है कि बिहार और झारखंड में तालमेल की काफी संभावना है. बिहार के पास उद्योग नहीं है, लेकिन बड़ी संख्या में प्रशिक्षित कामगार हैं. झारखंड में उद्योग हैं और बिजली उत्पादन में भी झारखंड आगे है. दोनों राज्य मिलकर विकास का नया मॉडल स्थापित कर सकते हैं. वक्त आ गया है कि बिहार और झारखंड भविष्य का चिंतन करें. मेरा मानना है कि जब हिंदी पट्टी के राज्य प्रगति करेंगे, तभी देश भी प्रगति कर पायेगा.