इस बार गर्मी जल्दी आयी, साथ में प्यास भी गहरायी. ‘हर घर जल योजना’ भी जल संकट दूर नहीं कर पा रही है . धरती का सीना चीर गहराई से पानी उलीचने से हर एक का कंठ तर होने से रहा. वैसे हकीकत तो यह है कि अब देश के 32 प्रतिशत भाग को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है.
समझना होगा कि एक अरब, चौवालीस करोड़ की विशाल जनसंख्या को पानी देना महज सरकार के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता. गर्मी और सूखती जल निधियों के प्रति यदि समाज आज सक्रिय हो जाए, तो अगली गर्मी में उन्हें यह संकट नहीं झेलना होगा. एक बात समझ लें, प्रकृति से जुड़ी जितनी भी समस्या है उनका निदान न वर्तमान के पास है न भविष्य के. इसके लिए हमें अतीत की ही शरण में जाना होगा. थोड़ी गाद हटानी होगी- कुछ सूख चुकीं हमारे पुरखों द्वारा बनायी जल निधियों से और कुछ अपनी समझ से.
यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें, तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे क्षेत्र अपने स्थानीय स्रोतों की सहायता से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे. एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था. समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी.
परंतु एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गये और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गयी है. तभी बीते तीन दशक में केंद्र और राज्य की अनेक योजनाओं के तहत तालाबों से गाद निकालने, उन्हें सहेजने के नाम पर अफरात पैसा खर्च किया गया. नतीजा रहा ‘ढाक के तीन पात.’ भारत के हर हिस्से में वैदिक काल से लेकर ब्रितानी हुकूमत के पहले तक, सभी कालखंडों में समाज द्वारा अपने देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बनायी गयी जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के कई प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब हर एक जगह है. यहां तक कि ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है. हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो (ईसा से 3000 से 1500 वर्ष पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवशेष मिले हैं.
ईसा से 321-297 वर्ष पहले, कौटिल्य का अर्थशास्त्र बानगी है, जो बताता है कि तालाबों को राज्य की भूमि पर बनाया जाता था. समाज ही तालाब गढ़ने का सामान जुटाता था. जो लोग इस काम में असहयोग करते या तालाब की पाल को नुकसान पहुंचाते, उन्हें राजदंड मिलता. आधुनिक तंत्र की कोई भी जल संरचना 50 से 60 वर्ष में दम तोड़ रही हैं, जबकि चंदेल काल, अर्थात 1200 वर्ष से अधिक पुराने तालाब आज भी लोगों को जीवन का भरोसा दिये हुए हैं. जाहिर है कि हमारे पूर्वजों की समझ सूझबूझ भरी एवं वैज्ञानिक थी. उन दिनों उन्नत जल विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी का पूरा समाज था, जो मिट्टी और जलवायु की बेहतर समझ रखता था.
अंग्रेज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देखकर. उन दिनों कुंओं के अतिरिक्त केवल तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे. फिर आधुनिकता की आंधी में सरकार और समाज दोनों ने तालाबों को लगभग बिसरा दिया, जब आंख खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है. तालाबों में भरी गाद, वर्षों से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्टों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है. किसानों को यदि इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए, तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं.
गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन कब्जाने के लिए तालाबों को सुखाते हैं. गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है, तो शहरों में कॉलोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं. समाज और सरकार पारंपरिक जल स्त्रोतों- कुओं, बावड़ियों और तालाबों- में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है. सदानीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया, तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया. एक तरफ प्यास से बेहाल होकर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है, तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार.
यदि जल संकटग्रस्त क्षेत्रों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए, तो वहां के हर इंच खेत को सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है. एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए. दो वर्ष पहले केंद्र सरकार ने देश के सभी तालाबों का सर्वेक्षण करवा क्रांतिकारी काम किया है. जब तक सहेजे गये तालाबों का उपयोग समाज की हर दिन की जल जरूरत के लिए नहीं होगा, जब तक समाज को इन तालाबों का जिम्मा नहीं सौंपा जाता, तालाब की विरासत को स्थापित नहीं किया जा सकता.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)