US Election Results : अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को देखने और समझने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं. चुनिंदा स्विंग राज्यों, विशेषकर पेनसिलवेनिया, जॉर्जिया और नॉर्थ कैरोलिना में उन्होंने कमला हैरिस को हरा दिया, जो दर्शाता है कि अमेरिकी मतदाताओं ने उनमें पूरा भरोसा जताया है. ट्रंप की जीत से पढ़े-लिखे तबके में निराशा होगी, परंतु अगर यह पढ़ा-लिखा या लिबरल तबका अपने अंदर झांकेगा, तो समझ पायेगा कि बाइडेन के चार साल के कार्यकाल के बाद ट्रंप अधिक लोकप्रिय क्यों हुए हैं.
कमला हैरिस एक कमजोर उम्मीदवार
मतदान से पहले ही डेमोक्रेट उम्मीदवारों में यह भाव था कि उनके सामने कमला हैरिस के रूप में एक कमजोर उम्मीदवार है, जिसके पास अपना कोई नया एजेंडा नहीं है. इन चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी के लोग हैरिस के समर्थक के रूप में वोट देने की बजाय ट्रंप के खिलाफ वोट कर रहे थे. जाहिर है कि इससे कमला हैरिस को कम वोट मिले और अमेरिका पहली महिला राष्ट्रपति चुनने से वंचित रहा. इस बात पर कुछ लोगों को भले ही आश्चर्य हो कि ट्रंप महिलाओं के साथ खराब व्यवहार के आरोपों के बावजूद पॉपुलर वोटों में भी कमला हैरिस से आगे रहे हैं. आम तौर पर अमेरिकी चुनावों में स्थानीय मुद्दे ही हावी रहते हैं और इन चुनावों में भी ट्रंप ने इमिग्रेशन और अर्थव्यवस्था को मुद्दा बनाया था. कमला हैरिस ने अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त अबॉर्शन के मुद्दे पर जोर दिया था. टेक्नीकली कमला हैरिस की स्थिति सांप-छछूंदर वाली थी क्योंकि वह नया एजेंडा पेश नहीं कर सकती थीं. नये एजेंडे का मतलब था कि वह अपनी ही आलोचना करें. ऐसे में उन्होंने न तो कोई नया प्रस्ताव ही रखा और न ही अपने कार्यकाल के दौरान किया गया कोई बड़ा काम ही गिना सकीं. ट्रंप ने इसके उलट इमिग्रेशन, अर्थव्यवस्था और युद्ध को मुद्दा बना कर एक बड़े मतदाता वर्ग को अपनी तरफ कर लिया.
विदेश नीति में बहुत कुछ अलग नहीं होगा
हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप और हैरिस की विदेश नीति में बहुत कुछ अलग नहीं होगा, क्योंकि अमेरिकी विदेश नीति आम तौर पर एक जैसी ही रहती है, भले ही राष्ट्रपति बदलते हों. परंतु वास्तविकता में यह सही नहीं है. ट्रंप के पिछले कार्यकाल के दौरान कोई भी नया युद्ध नहीं हुआ था, जिसमें अमेरिका की संलिप्तता रही हो. दूसरी तरफ देखें, तो बाइडेन के कार्यकाल को अंतरराष्ट्रीय रूप से यूक्रेन युद्ध और गाजा में हो रहे नरसंहार को समर्थन देने के लिए याद किया जायेगा. गाजा, जहां बाइडेन चाहते तो इस्राइल के खिलाफ कदम उठा सकते थे, या कम से कम सार्थक हस्तक्षेप करके कई जानें बचा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. सच तो यह है कि अमेरिका की एक बड़ी जनसंख्या को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया में क्या हो रहा है. उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय छवि कैसी बन रही है या फिर सुपर पावर होने के नाते अमेरिका के ऊपर एक नैतिक दबाव है लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने का. किसी भी अन्य देश के मतदाताओं की तरह अमेरिका की बड़ी जनसंख्या के लिए रोजगार, मजबूत अर्थव्यवस्था और घरेलू मुद्दे जरूरी हैं. ट्रंप ने अपना अभियान इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित किया और यह भय दिखाया कि अवैध रूप से अमेरिका में आ रहे लोग अमेरिकी लोगों की नौकरियां छीन लेंगे. यह भय भले ही झूठा क्यों न हो, परंतु लोगों को यह बात सही लगी और उन्होंने आगे बढ़ कर ट्रंप को वोट दिया.
पढ़े-लिखे लोगों में ट्रंप को लेकर हिकारत का भाव
इन सबमें यह भी ध्यान रखने की बात है कि लिबरल, प्रोग्रेसिव और पढ़े-लिखे लोगों में ट्रंप को लेकर जिस कदर हिकारत का भाव है, उसने भी ट्रंप की जीत में बड़ी भूमिका निभायी है. इसके दो छोटे-छोटे उदाहरण हैं. पिछले दिनों मैं एक परिवार के साथ रेस्तरां में डिनर कर रहा था, जहां रेस्तरां की मैनेजर और मेरे मेजबान के बीच चुनाव की चर्चा चल पड़ी. मेरी मेजबान, जो एक यूनिवर्सिटी में काम करती हैं, उन्होंने बातों-बातों में कहा- चाहे कुछ हो ट्रंप को नहीं जीतना चाहिए. रेस्तरां की मैनेजर वियतनामी मूल की अमेरिकी नागरिक थीं. वह चुप रहीं और थोड़ी देर बाद बोलीं- हमारे सामने दो खराब उम्मीदवार हैं. जाहिर था कि ऐसे मतदाता जो कमला से एक बेहतर कैंपेन, सटीक वादे की उम्मीद कर रहे थे, उन्होंने ट्रंप को वोट दिया है क्योंकि कमला हैरिस के पास इन लोगों के लिए कुछ नहीं था अपनी नर्वस हंसी के अलावा. मतदान से एक दिन पहले एक और वाकया हुआ. यूनिवर्सिटी में इस्राइल-फिलिस्तीन के मुद्दे पर एक लेक्चर था. बेहतरीन लेक्चर के बाद जब लोगों ने लेक्चरर से चुनाव के बारे में पूछा तो वो बोले- अमेरिका में टैक्स देने वाला हर व्यक्ति फिलिस्तीन में हो रहे नरसंहार के लिए जिम्मेदार है. उन्होंने लिबरल तबके की इस आदत को चिह्नित किया कि वह अपनी सुविधा से मुद्दों पर आंखें मूंद लेता है.
ट्रंप ने आमलोगों की टारगेट किया
ट्रंप के मामले में भी लिबरल लोगों ने असलियत से मुंह मोड़ लिया और उन्हें लगा कि ट्रंप को मूर्ख, घमंडी और बदमाश कह देने भर से उन्हें हरा दिया जायेगा. पढ़े-लिखे लोग अमेरिका की बहुसंख्यक जनसंख्या का मन नहीं पढ़ पाये. ट्रंप ने अपने भाषण में जहां इमिग्रेशन पर अपना पक्ष रखते हुए अवैध लोगों को वापस भेजने की बात कही, वहीं यह भी कहा कि यह देश कॉमन सेंस से चलेगा. कॉमन सेंस से उनका अभिप्राय संभवत: यही होगा कि जो आम लोगों को पसंद होगा, वो वैसे ही कदम उठायेंगे. साथ ही उन्होंने जोर दिया कि जब वो राष्ट्रपति थे, तब कोई युद्ध नहीं हुआ था और वह आने वाले समय में शांति चाहते हैं. और वे किसी तरह के युद्ध के पक्ष में नहीं हैं.
अमेरिका चाहे तो मध्य-पूर्व में युद्ध रोक सकता था और आगे भी ऐसा कर सकता है. गाजा भले ही पूरी तरह बर्बाद हो गया हो, परंतु ट्रंप अगर मध्य-पूर्व में इस्राइल के पागलपन को रोक पाये, तो यह उनकी उपलब्धि मानी जायेगी. जहां तक कॉमन सेंस का सवाल है, तो यह सोचना अब लिबरल लोगों की जिम्मेदारी है कि वो अपने किताबों से भरे ड्राइंग रूमों में बैठ कर ट्रंप की आलोचना करते हैं या फिर आम लोगों के बीच जाकर अपनी बात रखते हैं, उन्हें समझने की कोशिश करते हैं या शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में छुपा कर बस शर्मिंदा होते हैं. आने वाला समय अमेरिका के लिए ऐतिहासिक होगा, यह तय बात है. क्योंकि ट्रंप के पास अपनी विरासत को पुख्ता करने के लिए पूरे चार साल का समय होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)