अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने 1903 में मजदूर दिवस के अपने बहुचर्चित संबोधन में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी कि मनुष्य के जीवन में अगर कोई सबसे बड़ा पुरस्कार है, तो वह है ऐसा काम करने का मौका, जिससे उसकी जीविका भी चले और महत्ता भी बढ़े. बड़े अफसोस की बात है कि दुनिया में आज भी बड़ी संख्या में मजदूर इस ‘सबसे बड़े पुरस्कार’ से न केवल वंचित हैं, बल्कि वे निकट भविष्य में इसकी उम्मीद भी नहीं कर पा रहे हैं.
कुछ विकसित देशों में उनकी एक छोटी संख्या इस सुखद अहसास के नजदीक पहुंच गयी है कि उसने अपने सारे सपने पूरे कर लिये हैं. स्वाभाविक रूप से पूंजी के लिए सारी सीमाएं तोड़ने और श्रमिकों के लिए नयी सीमाएं बनाने के इस दौर में इन देशों की व्यवस्थाएं मजदूरों की उक्त छोटी संख्या को उनकी एकता खंडित कर मजदूरों के ही मार्फत मजदूरों के शोषण के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुन कर आयीं सरकारें भी आम मजदूरों के प्रति अनुदार होने से परहेज नहीं कर पा रहीं.
इस काम में उनका सबसे बड़ा बहाना तकनीक का विश्वव्यापी बदलाव है, जिसके फलस्वरूप मजदूरों के पुराने प्रायः सारे कौशल बेकार करार दिये गये हैं तथा कुशलता और अकुशलता की कथित लड़ाई को तेज कर दिया गया है. इस लड़ाई के माध्यम से इस हकीकत को झुठलाने की कोशिशें की जा रही हैं कि आम मजदूर बेरोजगार रहने, बेहद कम मजदूरी पर काम करने और अपने काम से संतुष्टि या महत्ता न पाने को अभिशप्त हैं.
स्वाभाविक ही इससे पूरी दुनिया में न सिर्फ आय की असमानता, बल्कि उसके चलते बढ़ रहे सामाजिक तनाव और असंतोष का भी बोलबाला है. फिर भी, मजदूर दिवस की मूल भावना के विपरीत श्रम को व्यक्तिगत उपलब्धियों से जोड़ा जा रहा है और उस सोच को सिरे से खत्म किया जा रहा है, जो समाज के लिए श्रम करने और सामूहिकता की प्रवृत्ति के विकास में सहायक हो. रोजगार और मजदूरी की संरचना में काफी बदलाव आये हैं और मशीनों व उपकरणों के कारण कई कठिन परंपरागत काम आसान हो गये हैं, लेकिन धनी देशों में भी बेरोजगारी की ऊंची दरें हालात के दूसरे पहलू को बेपर्दा करती हैं.
तभी तो नोबेल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस का कहना है कि रोजगार नयी तकनीकों की वजह से भी कम हो रहे हैं, लेकिन भूमंडलीकरण का वर्चस्व और कल्याणकारी नीतियों का अभाव ही इसका सबसे बड़ा कारण है. इस स्थिति में ऐसे प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं कराये जा रहे हैं, जिनसे कौशल बढ़े और अकुशल व कुशल मजदूरों के बीच की खाई पाटी जा सके.
अपने देश में भी मजदूर बुरी तरह विभाजित हैं, जिससे सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन के हिरावल दस्ते के रूप में उनकी कोई भूमिका नहीं बची है. ऊपर संे उनकी मजदूर पहचान पर कई दूसरी संकीर्ण पहचानें हावी हो गयी हैं, जिसके कारण सत्ता प्रतिष्ठान उनका कोई वर्गीय दबाव महसूस नहीं करता. क्या आश्चर्य कि हमारे देश में, जो अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का संस्थापक सदस्य है,
मजदूर दिवस पर सार्वजनिक अवकाश तक नहीं होता और अनेक मजदूरों को यह तक मालूम नहीं कि 19वीं शताब्दी के नवें दशक तक मजदूर प्रायः सारी दुनिया में अत्यंत कम व अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे. वर्ष 1810 के आसपास ब्रिटेन में सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने रॉबर्ट ओवेन की अगुवाई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठायी और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया.
तब नारा यह था- आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम. उसके संघर्षों के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पायी थी कि इंग्लैंड के महिला व बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गयी थी. ऑस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबोर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और प्रदर्शन किया, तो 1866 में जेनेवा कन्वेंशन में इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन ने भी इस हेतु अपनी आवाज बुलंद की.
निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आयी, जब पुलिस की गोली से मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में चार हड़तालियों की मौत के अगले दिन अमेरिका के शिकागो स्थित हेमार्केट स्क्वायर में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदर्शन किया और बर्बर दमन सहा. उसके बाद उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ, तो इस दिन को श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को पुनरुस्थापित करने और शोषण के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाने का दिन बनते देर नहीं लगी.
भारत में यह दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1923 में भारतीय मजदूर किसान पार्टी के नेता कॉमरेड सिंगरावेलू चेट्यार की पहल पर मनाया गया. आज सौ साल बाद यह सवाल और बड़ा होकर जवाब की मांग कर रहा है कि दुनिया के सारे मजदूर ‘अपने जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार’ कब पायेंगे? (ये लेखक के निजी विचार हैं.)