रांची, गुरुस्वरूप मिश्रा
Jharkhand Village Story: कभी बालुडीह में बालू ही बालू हुआ करता था, जहां बच्चे कबड्डी खेला करते थे. बचपन के दिनों के साथ बालू अब पूरी तरह गायब हो गये. अब पक्की सड़कें हैं. पलाश और आम के पेड़ भी अब खोजे नहीं मिलते. पलाश के फूलों से और इनके झुरमुटों में छिपने-पकड़ने का खेल भी सपना हो गया. आज बच्चों में क्रिकेट का जुनून है. बरसात में अब कोई हाथ में चप्पल-जूता उठाकर सड़क पर चलता नहीं दिखता. ढिबरी बारने के दिन भी गये. बिजली और स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी है. पहले गिनती के पढ़े-लिखे लोग थे. अब हर घर में पढ़ा-लिखा मिल जाएगा. बदलाव की ये कहानी झारखंड के पलामू जिले के पांकी प्रखंड की नवडीहा पंचायत के बालुडीह गांव की है. यहां बुनियादी सुविधाओं का कभी घोर अभाव था. गांव में बिजली आना किसी चमत्कार से कम नहीं था. वक्त के साथ सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन अब भी कई जरूरी सुविधाओं का ग्रामीणों को इंतजार है.
‘बदल गया है गांव मेरा, बदल गयी हैं गलियां भी, अब तो सूखी-सूखी हैं फूलों की ये कलियां भी. चौपालों में सूनापन है, चौराहे पर सन्नाटा है, हस्तशिल्प के पंखे गायब, मिलता अब तो फर्राटा है’
यह कविता गांव-देहात की बदलती तस्वीर की हकीकत बयां कर रही है. गांव की चर्चा होते ही अक्सर कच्ची सड़कें, खेत-खलिहान में गुली-डंडा खेलते बच्चे और रात में ढिबरी के पास बैठकर पढ़ते छात्र जेहन में तैरने लगते हैं. अगर गांव को लेकर आपकी धारणा आज भी ऐसी ही है, तो इस भ्रम से बाहर निकलिए. कच्ची सड़कों की जगह पीसीसी सड़कों पर रफ्तार से बात करतीं गाड़ियां, साइकिल की जगह बाइक, पैदल की बजाए साइकिल से स्कूल जाती लड़कियां, हर घर में मोबाइल, अंधेरे में ढिबरी या लालटेन की जगह बिजली या सोलर लाइट की सुविधाएं बदलते बालुडीह की तस्वीर है.
Also Read: झारखंड के गांवों की कहानियां : एक ऐसा गांव है मठेया, जहां 199 एकड़ जमीन पर मकान तो छोड़िए झोपड़ी तक नहींहर शाम सजती थी गांव की चौपाल
कभी नक्सल प्रभावित रहा बालुडीह गांव पांकी प्रखंड मुख्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर है. पांकी-रांची मुख्य सड़क के सोरठ से पूर्व दिशा में नावाडीह के बाद ये गांव है. गांव में प्रवेश करते ही करीब 100 साल पुराना विशाल बरगद का पेड़ आपका इस्तकबाल करता है. यहां कभी बालू, पलाश और आम के पेड़ काफी संख्या में हुआ करते थे. चारों तरफ हरियाली थी. जंगल से बिल्कुल सटे इस गांव के पांच मुहान (चौक) पर हर शाम चौपाल सजती थी. बुजुर्ग, पुरुष, महिलाएं और युवा जुटते थे और संवाद होता था. गांव के सबसे बुजुर्ग 80 वर्षीय प्यारी प्रजापति कहते हैं कि 1952 में देववंश नारायण सिंह मंगलपुर पंचायत के मुखिया थे. बुजुर्ग होने के बावजूद साइकिल से गांवों में घूम-घूम पंचायती किया करते थे. उनकी साइकिल देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी. छोटे-मोटे मामले वह खुद ही निबटा दिया करते थे. 70 के दशक से गांव में कुछ बदलाव दिखने लगा. कुछ घरों में साइकिल आयी. फिर गांव में रेडियो बजने लगे. गांव में रोजगार का अभाव था. इसलिए काम की तलाश में लोग पंजाब और दिल्ली जाने लगे थे. आज भी गांव के युवा रोजगार के लिए झारखंड से बाहर जाने पर मजबूर हैं.
Also Read: झारखंड के गांवों की कहानियां: गांव का नाम था ऐसा कि बताने में आती थी शर्म, अब बेहिचक बताते हैं ये नया नामजब गांव में नहीं था कोई स्कूल
1956 में बालुडीह में 12 घर थे. दो घर ब्राह्मण, तीन घर कुम्हार (प्रजापति), दो घर यादव और पांच घर भुइयां बिरादरी थे. चारों बिरादरी के अलग-अलग टोले थे. गांव प्रवेश करते ही ब्राह्मण टोला मिलता. दायीं ओर कुम्हार टोली और जंगल के समीप यादव और भुइयां टोली थी. आबादी करीब 50 थी. सभी के मकान मिट्टी के थे. खेती-बारी ही आजीविका का मुख्य साधन था. पीने के पानी के लिए चार कुएं थे. कोई स्कूल गांव में नहीं था. दो किलोमीटर दूर मंगलपुर जाकर कुछ लोग पढ़ते थे. बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव था. काफी गरीबी थी. गांव में किसी के पास साइकिल तक नहीं थी. बिजली, सड़क, स्कूल, अस्पताल किसी तरह की कोई सुविधा नहीं थी. इलाज के लिए ग्रामीणों को चार किलोमीटर दूर पांकी जाना पड़ता था. 70 के दशक से गांव में कुछ बदलाव दिखने लगा.
Also Read: Jharkhand News: झारखंड में सीएमपीडीआई ने खोजा कोयले का भंडार, पढ़िए पूरी डिटेल्स1976 में बालुडीह में आयी थी बाढ़
संजय नाथ मिश्रा बताते हैं कि 1976 में बालुडीह गांव में बाढ़ आई थी. जंगल से काफी सटे होने और तालाबों के लबालब भर जाने के बाद पानी गांव के बीचोंबीच वाली केवाल मिट्टी की सड़कों को खनहारती हुई चोरया की तरफ निकल गया था. इस कारण गांव की पथरीली सड़क पर चलना उस समय काफी मुश्किल भरा हो गया था. यादव टोले काफी ऊंचाई पर थे. यहां दलदल कच्ची संकरी सड़क करीब आठ फीट नीचे थी. काफी मशक्कत के बाद वे घर में प्रवेश कर पाते थे. इसी रास्ते से होकर गांव के लोग गाय-बकरी चराने जंगल जाया करते थे. कीचड़युक्त संकरी सड़क से गुजरने का अलग ही अहसास था. हाल में बनी पीसीसी सड़कों ने उस खाई को पाट दी है. बरसात के दिनों में गांव में प्रवेश करनेवाली मुख्य सड़क (कच्ची) पर पैदल चलना दूभर होता था. साइकिल से गुजरना मुश्किल था. हाथ में चप्पल-जूता उठाकर काफी मशक्कत के बाद केवाल मिट्टी वाली सड़क पर लोग चल पाते थे. अब भी मोरम-पत्थर वाली सड़क है, लेकिन लोगों को पहले से राहत है. दो दशक बाद भी सड़कें बदहाल हैं.
बिजली आना किसी चमत्कार से कम नहीं
संजय नाथ मिश्रा कहते हैं कि 1985 में भुइयां टोली में पांकी के पूर्व मुखिया हरिद्वार साव का मिट्टी का भंडार घर था. उसी में स्कूल चलता था. पास के कुएं से बच्चे पानी पीया करते थे. 90 के दशक में स्व. रामनंदन मिश्र ने स्कूल के लिए जमीन थी. ये राजकीय उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय, उलगाड़ा में है. चोरया, उलगाड़ा और बालुडीह तीन गांवों के बच्चे यहां पढ़ते हैं. पहले गांव के अधिकतर बच्चे दो किलोमीटर दूर मंगलपुर के सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ने जाते थे. कुछ बच्चे चार किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में पढ़ने पांकी जाया करते थे. गांव में पहला चापाकल 1997 में लगा. आज इनकी संख्या बढ़ी है. 2010 में गांव में आई बिजली किसी चमत्कार से कम नहीं थी. शहरों में चमक-दमक और इस गांव के पिछड़ेपन को देख लगता था कि शायद ही इस गांव में कभी बिजली पहुंचेगी. गांव में एक मिनी आंगनबाड़ी केंद्र है. होली-दिवाली और दशहरे का आनंद ही कुछ अलग था. जब ग्रामीणों की टोली एक दूसरे के गांवों में जा-जाकर होली खेला करती थी. अब वो होली भी नहीं रही. झारखंड बनने के बाद से गांव की सूरत धीरे-धीरे बदलने लगी.
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प्रभा देवी कहती हैं कि पहले इस गांव के लड़के-लड़कियां मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई के लिए दो किलोमीटर दूर मंगलपुर पैदल जाते थे. फिर पांकी के मुखिया रहे हरिद्वार साव के भंडार घर (बालुडीह) में स्कूल चलने लगा, तो वहां बच्चे पढ़ने लगे. कुछ वर्षों बाद जमीन मिलने पर राजकीय उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय, उलगाड़ा में स्कूल चलने लगा. पहले न तो हर घर में साइकिल थी और न तो बाइक ही थी. काफी गरीबी थी. चार किलोमीटर दूर पांकी में हाईस्कूल था. हाईस्कूल पढ़ने के लिए बच्चे पैदल जाते थे. लड़कियां भी पैदल जाती थीं. फिर स्थिति बदली. लड़के-लड़कियां साइकिल से स्कूल जाने लगीं. लड़कियों को सरकार से भी साइकिल मिली. इससे वे आराम से पढ़ाई करने पांकी जाती हैं. इलाज के लिए आज भी पांकी जाने की विवशता है.
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शंभूनाथ मिश्रा बताते हैं कि जंगल से सटे होने के कारण बालुडीह कभी घोर नक्सल प्रभावित इलाका था. नब्बे के दशक में पांकी इलाके में नक्सलियों की तूती बोलती थी. उनके इशारे के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था. पुलिस-नक्सली मुठभेड़ के बीच कई बार आम आदमी पीस जाता था. गांव वाले दो पाटों के बीच पीसने को मजबूर थे. गांव में नक्सलियों का आना, भोजन के लिए रुकना, सुदूर जंगलों में जन-अदालत लगाना और आसपास में कई घटनाओं को अंजाम देना. ये देख ग्रामीण सिहर उठते थे, लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं था. चार किलोमीटर दूर पांकी थाना था. इसके बावजूद नक्सली (भाकपा माओवादी) आते, वारदात को अंजाम देते और निकल लेते. गांव में उनके धमकने पर गजब सी खामोशी छा जाती थी. भय के बीच सब लोग राम भरोसे रहने को मजबूर थे. पुलिस की सक्रियता बढ़ते ही नक्सलियों की गतिविधियां धीरे-धीरे कम होती चली गयीं. अब तस्वीर काफी बदल गयी है.
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