14.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आचार्य किशोर कुणाल ने कहा- प्रेम एवं सामाजिक सद्भाव का श्रेष्ठ महाकाव्य है रामचरितमानस…

रामचरितमानस के संदर्भ में शिक्षा मंत्री के कथित बयान पर अपने वक्तव्य में आचार्य किशोर कुणाल ने कहा कि रामचरितमानस विशाल महाकाव्य है। यह बात सही है कि इसकी कुछ पंक्तियों पर आज के प्रबुद्ध वर्ग को आपत्ति हो सकती है।

पटना महावीर मन्दिर न्यास के सचिव आचार्य किशोर कुणाल ने रामचरितमानस को पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक सद्भाव का श्रेष्ठ महाकाव्य बताया है। रामचरितमानस के संदर्भ में शिक्षा मंत्री के कथित बयान पर अपने वक्तव्य में आचार्य किशोर कुणाल ने कहा कि रामचरितमानस विशाल महाकाव्य है। यह बात सही है कि इसकी कुछ पंक्तियों पर आज के प्रबुद्ध वर्ग को आपत्ति हो सकती है। किन्तु इसको सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। जिस पंक्ति पर सबसे अधिक आपत्ति उठायी जाती है, वह है- ‘ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।’ इस पंक्ति को तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत किया जाता रहा है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि रामचरितमानस का सबसे पुराना पहला मुद्रित संस्करण 1810 ईस्वी में विलियम फोर्ट काॅलेज, कोलकाता से छपा था जिसका संपादन बिहार के ही विद्वान सदल मिश्र ने किया था। सबसे पुरानी प्रति में यह पाठ इस प्रकार है- ‘ढोल गंवार क्षुद्र पशु मारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।‘ क्षुद्र शब्द को कालान्तर में शूद्र कर दिया गया और पशु मारी को पशु नारी करके अर्थ का अनर्थ कर दिया गया। पशु मारी का शुद्ध अर्थ पशु को मारना है।

उन्होंने कहा माननीय शिक्षा मंत्री ने एक और चौपाई उद्धृत की है-

मैं अधम जाति विद्या पाये। भयउं जथा अहि दूध पियाए। ‘ उक्त पंक्ति काकभुशुण्डि जी की है। सन्दर्भ यह है कि वे अपने शैव गुरु के पास शिक्षा लेने गये थे। तब गुरु ने कहा था कि शिव(हर) राम(हरि) के भक्त हैं, यह सुनकर मुझ शिवभक्त को बहुत गुस्सा आया। तब उन्होंने अपने क्रोध का कारण बताते हुए कहा कि मैं अधम जाति का होने के कारण विद्या पाकर उसी तरह हो गया था जिस तरह सांप दूध पीने के बाद।

किशोर कुणाल कहते हैं- गोस्वामी की रचना का आकलन करते समय तीन तथ्यों पर ध्यान देना होगा – (क) प्रक्षिप्त या परिवर्तित अंश। गोस्वामी जी के हाथ का लिखा हुआ केवल एक दस्तावेज मिलता है। भदेनी के जमींदार टोडर के निधन के बाद जो पंचायत उनकी अध्यक्षता में हुई थी, उसका मंगलाचरण उनके हाथ का लिखा हुआ है। उनके मूल पाठ में परिवर्तन कैसे होता है, उसे इस अन्तर से समझा जा सकता है। विनय पत्रिका के प्रचलित पाठ में यह उक्ति है- ‘ नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।’

जबकि तुलसी के तुरंत बाद संत रज्जव के द्वारा रचित पाठ में मूल रूप है- ‘ नाते नेह राम के मानिए सुद्र अरु विप्र जहा लौ। ‘

(ख) बोलने वाला कौन है -यदि कोई उक्ति रावण जैसे निकृष्ट पात्र की है, तो उस उक्ति को तुलसी का विचार मानना उचित नहीं होगा।

(ग) किस सन्दर्भ की उक्ति है? सन्दर्भ को बताये बगैर एक-दो पंक्ति उद्धृत करने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

लोकतंत्र में अपना विचार रखने का अधिकार सबको है; किन्तु वह समय और स्थान के अनुसार होना चाहिए। किसी गोष्ठी या शास्त्रार्थ में हर व्यक्ति को हर बात रखने का अधिकार है। किन्तु दीक्षान्त समारोह में ऐसी बात उचित नहीं है। इस देश की परम्परा रही है कि किसी विषय पर निष्कर्ष के लिए शास्त्रार्थ होता था। हम भी इस विषय पर शीघ्र गोष्ठी का आयोजन कर रामचरितमानस के सामाजिक सद्भाव के संदेश को सशक्त करने की दिशा में पहल करेंगे।तुलसी की यह उक्ति सामाजिक समरसता का सबसे सशक्त मन्त्र है – राम के गुलामन की रीति-प्रीति सुधि सब, सबसे स्नेह सबको सन्मानिए। सबसे स्नेह और सबका सम्मान करनेवाले ऐसे उदार सन्त महाकवि पर अनर्गल आक्षेप का कोई औचित्य नहीं है।

संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में समाज के विभिन्न वर्गों को जिस प्रकार से सम्मान दिया और पारिवारिक के सदस्यों के बीच आपसी प्रेम की जो प्रस्तुति की, वह अतुलनीय है। अयोध्या काण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने महर्षि बाल्मीकि के मुखारविंद से श्रीराम का निवास बताते हुए कहा है

‘जाति पांति धनु धरमु बड़ाई।

प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई।

तेहिं के हृदय रहहु रघुराई।।’

गोस्वामी जी महर्षि बाल्मीकि के माध्यम से कहते हैं कि प्रभु श्रीराम! जात-पात, धन-धर्म, बड़प्पन सब जिसने छोड़ दिया हो,उसी के हृदय में आप निवास करें।

शबरी प्रसंग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम के मुख से यह कहलवाया है –

‘ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।’

जिस संत शिरोमणि ने समस्त जगत को सियराममय देखकर सबके प्रति विनम्र निवेदन किया, उन पर नफरत फैलाने का आरोप लगाना एकदम निराधार है। रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने बार-बार इस आशय का पद लिखा है-

‘ जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।। ‘

तुलसीदास जी पुनः लिखते हैं

‘आकर चारि लाख चौरासी।

जाति जीव थल नभ बासी।।

सीय राममय सब जग जानी।

करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने माता शबरी, केवट एवं निषादराज का चरित जिस श्रेष्ठ भाव से चित्रित किया है वह समाज के दलित-वंचित वर्ग को जोड़नेवाला और सम्मान देनेवाला है। गोस्वामी जी एक विरक्त महात्मा थे। उन्हें जात-पात से कोई लेना-देना नहीं था। उन्होंने कवितावली में इस तथ्य को इस प्रकार वर्णित किया है-

मेरे जाति-पांति न चहौं

काहू की जाति-पांति

गोस्वामी तुलसीदास जी को समाज के अग्रणी वर्ग ने इतना तंग किया था कि उन्हें विनय-पत्रिका में लिखना पड़ा था-

ब्याह न बरेखी जाति पांति न चहत हौं।

मुझे किसी से न विवाह, न बरखी या ना ही जाति-पांति का रिश्ता रखना है।

जात-पात को दरकिनार करते हुए कवितावली में गोस्वामी लिखते हैं- धूत कहौ, अवधूत कहौ रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ। काहूकी बेटीसों न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।

ये सारे उद्धरण गोस्वामी तुलसीदास जी के जात-पात से बहुत ऊपर के विरक्त संत होने के प्रामाणिक उदाहरण हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=6lfhVV7CxKk

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें