झारखंड के रांची जिले के एक छोटे से गांव दिउड़ी से आने वाले पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा के पुत्र गुंजल इकिर मुंडा ने झारखंड के केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में अपनी यात्रा शुरू की. भाषा विज्ञान और सांस्कृतिक मानव विज्ञान की जटिलताओं को गहराई से समझने के बाद उन्होंने दृढ़ संकल्प लेकर मुंडारी भाषा के संवर्धन को लेकर काम करना शुरू किया.
गुंजल इकिर मुंडा कहते हैं कि आदिवासी केवल भाषाई प्रतीक नहीं हैं बल्कि समुदाय के इतिहास, परंपराओं और मूल्यों के जीवित भंडार हैं. वे आदिवासी युवाओं से जुड़े रहे. उन्हें अपनी विरासत पर गर्व करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया. कार्यशालाओं, सेमिनारों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से उन्होंने अपने लोगों के बीच अपनापन और एकता की भावना को बढ़ावा देते हुए पारंपरिक कला, शिल्प, लोक संगीत और नृत्य में रुचि फिर से जगाने की कोशिश की.
भाषा संरक्षण के अलावा गुंजल इकिर मुंडा संस्कृति के संरक्षण को लेकर भी सक्रिय हैं. उनका दृढ़ विश्वास है कि भाषा और संस्कृति अविभाज्य हैं. विभिन्न सांस्कृतिक जागरूकता अभियानों और त्योहारों के माध्यम से वे आदिवासी युवाओं में उनकी समृद्ध विरासत के बारे में गर्व की भावना पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं
भाषा संरक्षण, जनजातीय संस्कृति और आधुनिक दुनिया में आदिवासी समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों पर राय साझा करने के लिए गुंजल इकिर मुंडा को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आमंत्रित किया गया है. वे मुंडारी भाषा और सांस्कृतिक अध्ययन को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल करने के सक्रिय समर्थक रहे हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आने वाली पीढ़ियां आधुनिकता को अपनाते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़ी रहें.
23 अगस्त 1939 को गंधर्व सिंह एवं लोकमा के इकलौते पुत्र डॉ राम दयाल मुंडा का जन्म झारखंड के दिउड़ी गांव में हुआ था. वर्ष 2010 में इन्हें पद्मश्री से नवाजा गया. इनकी प्राथमिक शिक्षा लूथर मिशन स्कूल अमलेसा और माध्यमिक शिक्षा, ठक्कर बाप्पा छात्रावास में रहते हुए 1953 में खूंटी हायर सेकेंडरी स्कूल से हुई. शिकागो विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में स्नातकोत्तर की डिग्री ली. 1975 में पीएचडी की डिग्री ली. शिकागो और मिनिसोटा के विश्वविद्यालयों में पढ़ने के बाद करीब 20 साल वहां पढ़ाया भी. बाद में जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं के नवस्थापित विभाग का कार्यभार संभालने के लिए रांची यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति डॉ कुमार सुरेश सिंह ने इन्हें रांची बुलाया था.
स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा एवं उनके शहीद साथियों की रणभूमि डोंबारी बुरु में जनसहयोग एवं सरकारी विभागों के साथ आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा की विशाल प्रतिमा एवं 80 फीट ऊंचे शहीद स्तंभ के निर्माण में भी डॉ रामदयाल मुंडा की अहम भूमिका रही. 30 सितंबर 2011 को इनका निधन हो गया.