26.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

ईश्वरीय शक्ति के प्रतिनिधि थे धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा

Birsa Munda Jayanti : 15 नवंबर, 1875 को धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था. जल-जंगल-जमीन, प्राकृतिक संसाधनों तथा आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति कर रक्षा के लिए उन्होंने अपने समाज के लोगों को संगठित कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 'उलगुलान' का शंखनाद किया था. बिरसा मुंडा के आंदोलन की एक अहम कड़ी उनकी अलौकिक और ईश्वरीय शक्ति भी थी, जिसने उन्हें समाज का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित किया. उनके जन्मदिन की तिथि को ही झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ और आज पूरा राष्ट्र उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाता है. इस विशेष अवसर पर पढ़ें यह शोध-आलेख.

-डॉ आर के नीरद-
Birsa Munda Jayanti : बिरसा मुंडा और उनके उनके आंदोलन का एक प्रबल पक्ष यह है कि उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय शक्ति का प्रतिनिधि कहा और अपने कार्य को ईश्वर का आदेश. उनके जीवन से जुड़ी कई चमत्कारिक घटनाएं जुड़ी हैं, जिनके आधार पर उन्हें धरती-पुत्र और भगवान के रूप में समाज ने स्वीकार किया. वस्तुत: उनके उलगुलान को ईश्वरीय शक्ति की इसी अवधारणा ने वास्तविक शक्ति दी. ईश्वरीय शक्ति की यह अवधारणा झारखंड के अन्य प्रमुख जनजातीय आंदोलनों के नायकों से साथ भी घटित हुई. वास्तव में यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनजातीय समाज में प्रतिरोध की मानसिकता तैयार करने और उनमें आत्मशक्ति उत्पन्न करने का रणनीतिक साधन था, जो अपने उद्देश्य में सफल रहा.

मात्र 25 साल थी बिरसा मुंडा की जीवन यात्रा


बिरसा मुंडा धरती आबा हैं, जिसका अर्थ है ‘भूमि पुत्र’. मात्र 25 साल की उनकी जीवन-यात्रा के इतने आयाम हैं और इन सभी आयामों की अलग-अलग गाथा है. बिरसा मुंडा के जीवन का आरंभ ही आकस्मिकताओं, वैविध्यपूर्ण घटनाओं और चमत्कारों से होता है, जिसमें धर्म को लेकर उचित मार्ग की खोज, कष्ट से मुक्ति की बेचैनी, अंतरात्मा के दर्शन का प्रयत्न, बाह्य जगत और समाज की विसंगतियों के विश्लेषण की दृष्टिसंपन्नता और विनाशकारी शासन-शक्ति के प्रति संघर्ष की चेतना है और यह इन सब का संदर्भ और संबंध समष्टि है. एक ऐसी समष्टि, जिसमें जिसमें कष्ट से मुक्ति पाने की बेचैनी तो है, किंतु दृष्टि नहीं है, चिंता तो है, पर चिंतन नहीं है, चेतना तो है, पर नेतृत्व नहीं है.


यही वह आधारभूमि है, जिस पर बिरसा का बहुआयामी जीवन तीव्रता से बढ़ता है और मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने देश-समाज के लक्ष्य की स्पष्टता को पूरी शक्ति के साथ स्थापित कर जाता है. बिरसा मुंडा ने उलगुलान से पूर्व धर्म-सुधार और आत्मशुद्धि का आंदोलन चलाया. बिरसा के अनुसार, मुक्ति का मार्ग यहीं से खुलता है. साफा होड़ आंदोलन के प्रणेता भगीरथ मांझी ने भी यही कहा था और इसी अवधारणा के साथ उन्होंने सामाजिक एकता का सूत्र गढ़ा था. बिरसा ने इसके लिए स्वयं के संबंध में यह विश्वास समाज को दिलाया कि उनमें ईश्वरीय शक्ति है और वे अलौकिक चमत्कार कर सकते हैं. इस चमत्कार में बीमारी से छुटकारा दिलाने की भी शक्ति है और विदेशी ताकत के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की भी. यह आंदोलन उलगुलान की पृष्ठभूमि था, सामाजिक एकजुटता और अपने नेतृत्व को सामाजिक स्वीकृति दिलाने की प्रक्रिया भी.


आदिवासियों को विदेशियों के प्रभुत्व से छुड़ाने वाले मसीहा

मैथ्यू अपरिपम्पिल के अनुसार 1895 में पहली बरसात के समय बिरसा मुंडा अपने लोगों को विदेशी प्रभुत्व से छुड़ाने वाले मसीहा के रूप में प्रकट हुए. जॉन के मुताबिक यही वह साल था, जब बिरसा मुंडा ने स्वयं को भगवान का दूत बताया. तब उनकी उम्र मात्र 20 साल थी. उलगुलान का शंखनाद तो 1899 में हुआ. जनजातीय समाज आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों में संघर्ष से मुक्ति के लिए दैवी चमत्कार की कामना स्वाभाविक रूप से करता है. ऐसे में जादुई या दैवी शक्ति से युक्त किसी उद्धारक के प्रादुर्भाव को स्वीकार करना उनके लिए सहज होता है.

Copy Of Add A Heading 2024 11 15T141436.131
ईश्वरीय शक्ति के प्रतिनिधि थे धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा 3


डॉ दिनेश नारायण वर्मा लिखते हैं, ‘भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जनजातीय विद्रोहों का एक विशिष्ट प्रकार का धार्मिक चरित्र विकसित हो जाया करता था, जिससे उनमें अलौकिक शक्तियों से संपन्न अनेक मसीही नायकों का आविर्भाव हुआ. ऐसी धार्मिक और चमत्कारवादी नायक जनजातियों और उनके सहयोगी दलितों और पिछड़ों को उनके कष्टों से निजात दिलाने का वादा करते थे. इससे विद्रोह का चरित्र मसीही हो जाता था. इसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर शोषित और पीड़ित निचले वर्ग के लोग उनका समर्थन करने लगते थे. इस प्रकार विदेशी सत्ता के खिलाफ हुए जनजातीय विद्रोह में धर्म, देवी-देवताओं, धार्मिक भावनाओं, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, जादुई ताकत आदि की बड़ी सकारात्मक भूमिका थी.

सरल और स्वच्छ चरित्र और प्रकृति पूजक होने की वजह से जनजातियों और उनसे सामाजिक और आर्थिक रूप से जुड़े होने के कारण दलितों एवं पिछड़ों पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ता था. इसका परिणाम यह होता था कि विद्रोह शीघ्र ही काफी उग्र हो जाया करता था, जिसकी ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासक और सैनिक-असैनिक अधिकारी कल्पना भी नहीं कर सकते थे.’ (डॉ दिनेश नारायण वर्मा, संताल विद्रोह 1855-56 : जनजातियों, दलितों और पिछड़ों का मुक्ति संघर्ष, एकेडमिक फोरम पब्लिकेशन सेंटर, रामपुरहाट, वीरभूम, 2014, पृष्ठ 39).

बिरसा मुंडा में थी चमत्कारिक शक्तियां

बिरसा मुंडा के साथ चमत्कार से जुड़ी कई ऐसी बातें और मान्यताएं हैं, जिसके आधार पर उनमें ईश्वरीय शक्ति होने का विश्वास समाज को दिलाया गया. जैसे कि माना जाता है कि उनका जन्म भादो माह में गुरुवार को हुआ. गुरुवार मुंडा समाज में शुभ दिन माना जाता है. लोकगीतों में उनकी ईश्वरीय शक्ति और उनके ईश्वरीय चमत्कार का व्यापक वर्णन है. कुमार सुरेश सिंह लिखते हैं, ‘बिरसा मुंडा का जन्म जिस मकान में हुआ था, वह बांस की फट्टियों से बना था, उस पर मिट्टी का प्लास्टर तक न था और न ही मकान पर कोई सुरक्षित छत थी. इस बारे में बाद में बनाये गये लोकगीतों में बिरसा के जन्म की घटना के साथ बाइबिल में वर्णित ऐसी घटनाओं से सम्बद्ध चमत्कारों को जोड़ा गया, जैसे आसमान में एक पुच्छलतारा चलकद से उलिहातु की ओर बढ़ा’ या ‘पहाड़ की चोटी पर एक झंडा लहराया.’ इसी तरह एक लोकगीत में कहा गया है कि जब स्कूल में एक मास्टर ने बिरसा की हथेली पर नजर डाली, वहां क्रॉस का चिह्न देखा और भविष्यवाणी की कि बिरसा एक दिन अपना राज्य वापस करा कर रहेगा.’ (कुमार सुरेश सिंह, बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन, वाणी प्रकाशन, नयी दिन्ल्ली, 2003, पृष्ठ 57).

बिरसा मुंडा में धार्मिक चिंतन


डॉ एके धान लिखते हैं, 1883-95 के दौरान बिरसा मुंडा में धार्मिक चिंतन का विकास हुआ (डॉ एके धान, बिरसा मुंडा, प्रकाशन संस्थान, वर्ष 20006, पृष्ठ 41). एस सरकार मानते हैं कि उस धार्मिक चिंतन को उनके धार्मिक आंदोलन में देखा जा सकता है. इस दौरान उन्होंने परमेश्वर के दर्शन और अपने व्यक्तित्व में अलौकिक शक्तियों के निहित होने की बातें कीं और बीमारियों से चंगा करने की शक्ति का प्रदर्शन भी किया (एस सरकार, आधुनिक भारत 1885-1947, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, वर्ष-1993, पृष्ठ 65). इतिहासकार के रानी मानती हैं कि इसी के परिणाम स्वरूप उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में अलौकिक शक्तियों के होने की धारणा आम जनों में बलवती होती गयी. प्रारंभ में वे चलकद स्थित अपने पैतृक निवास के आंगन में खाट पर बैठ कर बातचीत करते थे. धीरे-धीरे आसपास के लोगों का जमावड़ा लगने लगा, उनकी सभाएं खेतों में नीम के पेड़ की छांव में होने लगी, जहां वे छोटे-छोटे दृष्टांत और उद्धरणों से अपने विचारों को बहुत ही सरल शब्दों में समझाने का प्रयास करते थे. (के रानी, भारत के गौरव, खंड-3, प्रकाशन विभाग, वर्ष- 1971, पृष्ठ-287).

मसीहा के रूप में प्रकट हुए बिरसा मुंडा


मैथ्यू अपरिपम्पिल लिखते हैं, ‘1895 की पहली बरसात के समय बिरसा अपने लोगों को विदेशी प्रभुत्व से छुड़ाने वाले मसीहा के रूप में प्रकट हुए. उन्होंने अपने में चमत्कारी शक्ति होने का दावा किया. जल्द ही बिरसा ने बहुत से शिष्य जमा कर लिये और धरती आबा, जैसा कि बिरसा मुंडा अपने को पुकारा करते थे, के दर्शन के लिए तीर्थयात्री आने लगे. उन्होंने एक बड़े संकट, एक जल प्रलय की भविष्यवाणी की, जिसमें उनके सभी विरोधी नष्ट हो जायेंगे, पर उनके शिष्य बच कर निकल जायेंगे. बिरसा आंदोलन धीरे-धीरे राजनीतिक रूप लेने लगा. उन्होंने लोगों से सरकार को चुनौती देने के लिए कहा और उनको बताया गया है कि महारानी का राज अब समाप्त हो गया है और मुंडा राज्य की शुरुआत हो गयी है. उन्होंने एक निषेधाज्ञा जारी की और कहा कि रैयती भविष्य में मालगुजारी नहीं देंगे और जमीन के लिए मालगुजारी ना देकर उसे अपने कब्जे में रखेंगे. उन्होंने कई बार सशस्त्र विद्रोह की योजना बनायी, किंतु 1897 में विद्रोह के पहले ही उनको गिरफ्तार कर लिया गया और जेल भेज दिया गया. महारानी विक्टोरिया की जुबली के अवसर पर उन्हें जब माफ मिली, तो वे फिर विद्रोह की बात सोचने लगे.’ मैथ्यू अपरिपम्पिल, झारखंड दिसुम मुक्तिगाथा और सृजन के सपने, संपादक- हरिवंश, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली 2002, पेज- 45).

अनेक आलेखों में बिरसा मुंडा को एक धार्मिक नेता ईश्वर का अवतार और समाज सुधारक बताया गया है. बिरसा मंडा में ईश्वरीय शक्ति के प्रवेश और ईश्वरी अवधारणा को लेकर प्रचलित कहानियों और स्रोतों के आधार पर कुमार सुरेश सिंह ने जो विवरण दिये हैं, उनके मुताबिक ईश्वरीय शक्ति के प्रवेश की अवधारणा के सामान्य करण और सामाजिक करण होने के पूर्व कुछ घटनाएं हुईं. जैसे, ‘एक रात बिरसा ने सपना देखा कि एक सफेद बालोंवाला बूढ़ा आदमी हाथी में भाला लिये एक कुर्सी पर बैठा था. बूढ़े ने एक परती जमीन में महुआ का पेड़ गाड़ दिया और उसे मुलायम और फिसलनदार बनाने के लिए उस पर तेल और मक्खन मल दिया. फिर उसने उस पेड़ के ऊपर कोई कीमती चीज रख दी. वहां चार ही लोग मौजूद थे, बोंगा अर्थात प्रेतात्मा, एक राजा, एक जज और खुद बिरसा मुंडा. बूढ़े आदमी ने उन सबसे कहा कि कोई पेड़ पर चढ़े और उस पर रखी कीमती चीज को नीचे ले आये. सबसे पहले बोंगा ने कोशिश की, पर वह पेड़ से फिसल कर नीचे गिर गया. राजा और जज की भी यही गति हुई. अंत में बिरसा उठा और पेड़ पर रखी कीमती चीज को ले आया. तभी सपने से बिरसा जग गया. यह सपना बिरसा के मानसिक संघर्ष का प्रतीक है. अपनी जाति के तीन दुश्मनों से सपने में उसकी मुठभेड़ हुई थी, जज के रूप में अधिकारी से, राजा के रूप में जमींदार से और बोंगा के रूप में पुराने धर्म से. सफेद बालोंवाला बूढ़ा खुद हरम होड़ो था.’ (कुमार सुरेश सिंह, बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003, पृष्ठ 65).

चमत्कार करने लगे थे बिरसा मुंडा

Copy Of Add A Heading 2024 11 15T141715.261
ईश्वरीय शक्ति के प्रतिनिधि थे धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा 4


इसी तरह की एक और घटना का जिक्र किया जाता है कि ‘बरसात के आरंभ में, मई या जून के महीने में वे अपने मित्र के साथ जंगल गए हुए थे. रास्ते में बिजली कड़की और उन पर गिर गई. बिजली गिरने से उनका रूप-रंग ही बदल गया. उनका चेहरा काला नहीं रह गया, बल्कि लाल और सफेद हो गया. उनका मित्र सकते में आ गया. उसने इस आश्चर्यजनक घटना की तीव्र प्रतिक्रिया जताई, पर बिरसा शांत रहे. उसने इतना भर बताया कि उसे भगवान का संदेश मिल गया है. इस संदेश का ठीक-ठीक रूप क्या था, वह तो मालूम न हुआ, पर उसका संबंध उसकी अपनी जनता की मुक्ति से था. उनका मित्र उससे पहले गांव लौट आया और उसने लोगों को बिरसा के रूप-रंग बदल जाने के बारे बताया. बिरसा जब जंगल से गांव लौटे, तो उन्होंने देखा कि अनेक लोग उनकी प्रतीक्षा में खड़े हैं. सभी अचरज भरी निगाहों से उन्हें देख रहे हैं. एक भोली-भाली मुंडा मां अपने बीमार बच्चे को लेकर उनके पास आयी. उन्होंने उसे छुआ, मंत्र पढ़ कर फूंक मारी और उसके सर पर हाथ रखा. बच्चा स्वस्थ हो गया. बच्चे की मां ने सबसे कहा कि उसका बच्चा बिरसा की प्रार्थना से अच्छा हुआ है.

जनजातीय क्रांतिकारियों में ईश्वरीय शक्ति की अवधारणा

इस घटना के बाद बिरसा अजीब-ओ-गरीब किस्म की बातें करने लगे. वे अधिकतर अपने घर में ही बंद रहते. बताया गया वे आठ दिनों में केवल एक बार खाना खाते थे, लेकिन वे स्वस्थ थे. यह भी कहा गया वे स्वर्ग जा रहे हैं और बहुत दिनों तक दिखाई नहीं देंगे. गांव के एक सरदार वीर सिंह मुंडा से बिरसा ने कहा कि भगवान ने स्वयं दुनिया का हर काम उस पर सौंप दिया है. वे बीमार का इलाज कर सकते हैं. रोग दूर करने वाले के रूप में उनकी यश की शुरुआत इसी प्रकार हुई. जनजातीय क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों में ईश्वरीय शक्ति की अवधारणा पर अगर नजर डालें, तो झारखंड में प्रमुख आंदोलनकारियों के नामों के साथ ऐसी अवधारणा मिलती है. चाहे 1832 के कोल विद्रोह के नायक बुधु भगत हों या 1855-56 के संताल विद्रोह के नायक सिदो-कान्हू, भगीरथ मांझी हों या पोटो हो, सब के साथ ऐसी ही अवधारणा चलती है.

बुधु भगत के बारे में कहा जाता है, ‘एक दिन वे स्नान करने के बाद पत्थर पर बैठे थे, तभी उन्हें एक दिव्य शक्ति की अनुभूति हुई. नहाने के बाद वे घर नहीं गये और तीर-धनुष लेकर बड़का टोंगरी चले गये. टोंगरी के बीच में एक बिंदु पर रुक गये और तीरंदाजी शुरू कर दी. धनुष टोंगरी में डूब गया और वहां से पानी की धारा बहने लगी. पानी की यह धारा आज भी वहां है, जिसे ‘वीरपानी’ के नाम से जाना जाता है. लोगों को विश्वास था कि उनमें कुछ अलौकिक एवं आध्यात्मिक शक्ति है. उन्होंने पवित्र धागा पहनना शुरू कर दिया. उनकी सफलता, कार्यकुशलता, संगठनात्मक क्षमता और लोकप्रियता के कारण ग्रामीणों को विश्वास हो गया कि बुधु भगत में दैवी शक्ति है और उन्हें एक साथ कई स्थानों पर देखा जा सकता है. वे रूप बदल सकते हैं और हवा में उड़ सकते हैं. उन्होंने अंग्रेजों की तबाही के लिए धरती पर अवतार लिया है. इसके बाद वे अधिक उत्साही और ऊर्जावान हो गये और बहुत ही कम समय में उन्होंने अपने नेतृत्व में हजारों अनुयायी बना लिये.’ (डॉ आरके नीरद, स्वतंत्रता संग्राम के वीर सपूतों की गौरव गाथा, वर्ष- 2022, पृष्ठ 21).(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें