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History of Munda Tribes : झारखंड के छोटानागपुर में बसने वाले मुंडा आदिवासी अपनी परंपराओं के लिहाज से काफी उन्नत संस्कृति का प्रमाण पेश करते हैं. उनकी प्राचीन शासन व्यवस्था में आम सहमति के लोकतंत्र के प्रमाण मिलते हैं. पिछले सीरीज में हमने गांव के प्रधान मुंडा, कई गांवों और एक किलि के प्रधान पड़हा राजा और महाराजा के बारे में बात की थी. इस स्टोरी में बात करेंगे उनके मंत्रिमंडल या सहयोगियों की और उनकी न्याय व्यवस्था की.
मुंडा और उनका मंत्रिमंडल
मुंडा आदिवासियों की त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था में मुंडा सबसे निचले या कहें कि पहले पायदान पर होता था. एक गांव के प्रधान को मुंडा कहा जाता था, जो उस गांव को बसाने वाला होता था.उसकी यह जिम्मेदारी थी कि वह गांव की जमीन, जंगल और जल की व्यवस्था को सुनिश्चित करे. आदिवासी समाज के लिए जल-जंगल और जमीन इतना महत्वपूर्ण क्यों है, उसे इस बात से समझा जा सकता है. उनके लिए यह तमाम चीजें सामूहिक थीं इसपर किसी का व्यक्तिगत अधिकार नहीं था. मुंडा अपने कार्यों को आसानी से संपन्न कर सके, इसके लिए उसके कुछ सहयोगी होते थे, जिसे आज की भाषा में उसका मंत्रिमंडल कह सकते हैं. मुंडा के सहयोगी :-
- पाहन
- पानीभरा
- भंडारी या हकुवा
मुंडा अपने गांव का प्रधान होता था और उसकी सहायता के लिए सबसे प्रमुख व्यक्ति होता था गांव का पाहन, जिसे पुरोहित कहा जा सकता है. उसका काम गांव में पूजा-पाठ कराना और मुंडा को उसके कार्यों में सुझाव देना भी था. उसके बाद होता था ‘पानीभरा’ का पद, जिसका काम पानी भरना होता था. लेकिन वह आम लोगों के लिए पानी नहीं भरता था, बल्कि वह पाहन को मदद करता था. जब कोई पूजा-पाठ होता, तो उसके लिए पानी लाना, पूजा स्थल को साफ-सुथरा करना यह तमाम चीजें पानीभरा के हिस्से आतीं थीं. उसके बाद होता था भंडारी का पद जिसे हकवा, डकुआ आदि भी कहा जाता है. इसका काम था मुंडा के आदेश से गांवों के लोगों को बैठक की सूचना देना और बैठक की व्यवस्था करना.
पड़हा राजा और उनका मंत्रिमंडल
मुंडा आदिवासियों की शासन व्यवस्था में दूसरे पायदान पर होता था पड़हा राजा. पड़हा राजा एक ही किलि या कबीले के कई गांवों के प्रधान को कहा जाता था. जब किसी समस्या का समाधान गांव के मुंडा के स्तर पर नहीं हो पाता था, तब मुंडा उस समस्या को लेकर पड़हा राजा के पास जाता था और तब वहां मामले की सुनवाई होती थी. पड़हा राजा अपने सहयोगियों के जरिए मसले को समझता था और फिर उनके अनुसार न्याय किया जाता था. पड़हा राजा के सहयोगी इस प्रकार थे-
- बड़ा लाल
- मांझी लाल
- छोटा लाल
- दारोगा
- सिपाही
- करठा
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महाराजा और उसका मंत्रिमंडल
आदिवासियों की अधिकतर समस्याएं पड़हा राजा तक निपट जाती थीं, लेकिन जब पड़हा राज भी मसले को नहीं सुलझा पाते थे, तो वह महाराजा के पास पहुंचता था. महाराजा आदिवासियों का शीर्षस्थ पदाधिकारी था. आदिवासी रीसा मुंडा के उत्तराधिकारी सुतिया मुंडा को अपना पहला और मदरा मुंडा को अंतिम महाराजा मानते हैं. मदरा मुंडा के बाद उनका राज्य नागवंशियों के हाथों में चला गया. महाराजा का मंत्रिमंडल बिलकुल उसी तरह का था जिस तरह का पड़हा राजा का होता था. लेकिन उसके पदधारी पड़हा राजाओं में से होते थे, यानी कि बड़ा लाल, मांझी लाल और छोटा लाल जैसे पद पर कोई पड़हा राजा आसीन होता था. शुरुआत में मुंडाओं के 22 पड़हा थे और उनके 22 राजा होते थे.
साप्ताहिक होती थी गांव की बैठक, आपातकालीन बैठक की भी थी व्यवस्था : पड़हा राजा सोमा मुंडा
सांगा पड़हा के पड़हा राजा सोमा मुंडा बताते हैं कि हरेक गांव में मुंडा साप्ताहिक बैठक करता था, लेकिन अगर कोई ऐसी बात हो जाए कि साप्ताहिक बैठक तक का इंतजार नहीं किया जा सकता है, तो मुंडा इमरजेंसी बैठक भी बुलाता था. इसके लिए हकुवा को मुंडा आदेश देता था कि वह गांव के लोगों की सूचित करे कि विशेष बैठक होने वाली है. पड़हा राजा सोमा मुंडा यह भी बताते हैं कि मुंडा समाज में गांव का प्रधान मुंडा ही होता था, लेकिन बदलते समय में कई गांवों में पाहनों को भी प्रशासनिक अधिकार दिए गए हैं. लेकिन यह व्यवस्था ब्रिटिश काल में जो सर्वे हुआ उसके बाद कायम हुई, क्योंकि उन्होंने कई जगह पर प्रशासनिक प्रमुख के रूप में पाहन का नाम डाल खाते में डाल दिया. मुंडा के बाद मसला पड़हा राजा और फिर महाराजा तक पहुंचता था. महाराजा को आप आज का सुप्रीम कोर्ट कह सकते हैं.
हुक्का-पानी बंद से जिंदा जमीन में गाड़ने तक की सुनाई जाती थी सजा : पड़हा राजा मंगल सिंह मुंडा
तिडू संकुरा पड़हा के राजा मंगल सिंह मुंडा बताते हैं कि हमारी शासन व्यवस्था बहुत ही उच्चकोटि की थी. हम आज भी उस व्यवस्था का अनुसरण कर रहे हैं. मुंडाओं की प्राचीन व्यवस्था में सजा सुनाए जाने के बाद अगर कोई व्यक्ति उस सजा को मानने से इनकार करता था, तो उनके लिए सख्त सजा का प्रावधान था. अगर जुर्माने से बात नहीं बनती थी तो सबसे सख्त सजा के रूप में उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था, यानी कि उससे किसी भी तरह का संबंध गांव के लोग नहीं रखते थे. उसका खाना-पीना रहना सबकुछ अलग कर दिया जाता था. उससे शादी विवाह और मृत्यु तक के संबंध तोड़ दिए जाते थे. मरने के बाद उसके शव को किलि के ससनदिरी में जगह नहीं मिलती थी. हमारे समाज में किलि का काफी महत्व है. प्राचीन समय में भी किलि के अंदर शादी-विवाह पूरी तरह वर्जित था और अगर कोई यह अपराध करता, तो उसके लिए कठोर सजा का प्रावधान था. एक ही किलि के अंदर स्त्री-पुरुष के संबंध होने को ‘जाति बोरा’ कहा जाता था, जिसकी सजा बहुत ही कठोर थी. मुंडा समाज ऐसे लड़की और लड़के को जमीन में जिंदा गाड़ देता था और ऊपर से पत्थर रख दिया जाता था. इस प्रथा को ‘मागो’ कहा जाता है, इसके कई प्रमाण हमारे यहां मौजूद हैं, हां यह अलग बात है कि हमारी परंपरा में लिखित का साक्ष्य नहीं है, लेकिन कोंकापाट है. कोंकापाट यानी सार्थक और सच्चा.
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FAQ : मुंडा जनजाति में शासन की व्यवस्था कैसी थी?
मुंडा जनजाति में शासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था थी. मुंडा पहले, पड़हा राजा दूसरे और महाराजा तीसरे और सर्वोच्च पद पर होते थे.
मुंडा जनजाति किसे अपना अंतिम महाराजा मानती है?
मुंडा जनजाति मदरा मुंडा को अपना अंतिम महाराजा मानती है.