Republic Day 2025 : आजादी को सही अर्थों में समझने के लिए गुलामी के अभिशाप के पहलुओं की नये सिरे से पड़ताल जरूरी है. सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को लूट कर अंग्रेज कैसे अमीर बने, इसका ऑक्सफैम की नयी रिपोर्ट में विस्तार से खुलासा है. बक्सर के युद्ध के बाद वर्ष 1900 तक ब्रिटेन ने लगभग 55 लाख अरब रुपये लूटे, जो भारत की जीडीपी से 16 गुना ज्यादा है. औपनिवेशिक शोषण से उपजी यूरोप और अमेरिका की अमीरी के सिक्के का दूसरा पहलू भारत में गरीबी और असमानता का कड़वा सच है. गुलामी के दौर में विदेशियों के शासन से रंगभेद, सांप्रदायिक विभाजन, जमींदारी प्रथा, पुलिस उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन जैसे अनेक मर्ज बढ़े. यही वजह है कि संविधान निर्माताओं ने प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सपने को साकार करने का संकल्प लिया.
कृषि प्रधान भारत में राज करने के लिए अंग्रेजों ने जमींदारों, मध्यस्थों और सामंतों के ताकतवर वर्ग का गठन किया था, इसलिए संविधान में संशोधन से कृषि सुधारों की शुरुआत हुई. इसके बाद जमींदारी उन्मूलन, न्यूनतम जोत, चकबंदी और भूमि रिकॉर्डों को व्यवस्थित करने के लिए कानून बनाये गये. भूमि के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया. जमीन के वितरण के लिए राज्यों ने भूदान बोर्ड का गठन किया.
गुलामी के लंबे दौर में बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा और अशिक्षा जैसी रुढ़ियों से भारतीय समाज जकड़ गया था. इसके लिए हिंदुओं में विवाह, परिवार, संपत्ति और उत्तराधिकार जैसे विषयों पर 1956 में कानून बनाये गये. ईसाई, पारसी और दूसरे धर्मों के लिए भी संसद से कानून बने. शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को भी आधुनिक कानूनों से संरक्षण मिलने की शुरुआत हुई, लेकिन तुष्टीकरण की राजनीति की वजह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से बदल दिया गया. संविधान के अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता के स्पष्ट प्रावधान हैं, जिसे उत्तराखंड से लागू करने की शुरुआत हो रही है. इससे महिलाओं और बच्चों को समानता के कानूनी अधिकार मिलने के साथ पूरे देश के सिविल लॉ में एकरूपता आयेगी. सनद रहे कि संसद ने तीन नये आपराधिक कानूनों को पारित किया है, जो देश के सभी धर्म, जाति और वर्ग के लोगों पर समानता से लागू होते हैं.
सभी बालिग नागरिक और महिलाओं को समानता के आधार पर वोट का अधिकार देने वाले शुरुआती देशों में भारत शामिल है. विधायिका में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का कानून भी अगले आमचुनाव में लागू होने की उम्मीद है. संसद और विधानसभा में आपराधिक तत्वों का प्रवेश रोकने के लिए दो वर्ष से ज्यादा सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर कानूनी प्रतिबंध है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चुनाव लड़ने वालों की संपत्ति और आपराधिक मुकदमों का खुलासा करने वाले एफिडेविट की अनिवार्यता से धनबल के जोर पर अंकुश लगा है, लेकिन विधि आयोग व चुनाव आयोग की अनुशंसा के अनुसार, चुनाव सुधारों से जुड़े अनेक विषयों पर संसद से कानून बनना बाकी है.
नेताओं को हर पांच वर्ष में चुनावों का सामना करना पड़ता है, इसलिए सरकार की असली बागडोर अफसरों के हाथ में रहती है. कानून के अनुसार, सभी अफसरों को अपनी संपत्ति का वार्षिक विवरण देना जरूरी है. साल, 2005 में सूचना के अधिकार कानून से प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी है, लेकिन सूचना आयोगों में शिकायतों का समय पर निस्तारण नहीं होने से आरटीआइ की धार कुंद हो रही है. संविधान के अनुसार, प्रशासन में कुशलता और जवाबदेही बनाये रखने के लिए लोक सेवा आयोग, सीएजी, सीवीसी और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन का प्रावधान है. संवैधानिक संस्थाओं में निष्पक्ष और ईमानदार सदस्यों का स्वतंत्र कॉलेजियम से चयन हो तो परीक्षाओं में गड़बड़ी को रोकने के साथ भ्रष्टाचार में भी कमी आयेगी.
उद्योग और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में मजदूरों की सुरक्षा व न्यूनतम वेतन के लिए वर्ष 1948 में कानून बनाये गये. बैंकों, बीमा कंपनी, कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के कानून से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक नौकरियों का विस्तार हुआ. रोजगार के अधिकार को आंशिक तौर पर सुनिश्चित करने के लिए मनरेगा का कानून बना. बच्चों की शिक्षा के मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए वर्ष 2002 में संविधान संशोधन हुआ. अब इलाज, स्वास्थ्य और मुआवजा का अधिकार देने पर विमर्श बढ़ रहा है. ग्राहकों की सुरक्षा के लिए उपभोक्ता संरक्षण और एकाधिकार आयोग के कानून से निजी क्षेत्र की कंपनियों पर अंकुश लगा है. डिजिटल अर्थव्यवस्था के नियमन के लिए ट्राइ, आइटी, टेलीकॉम और डाटा सुरक्षा के कानून बनाये गये हैं, लेकिन साइबर अपराधों पर नियंत्रण और डिजिटल कंपनियों से टैक्स की वसूली के लिए कानूनी व्यवस्था और प्रभावी नियामक बनाने की जरूरत है.
अंग्रेजों ने केंद्रीकरण, अंग्रेजी भाषा, साम्राज्यवादी पुलिस और सामंती न्यायिक व्यवस्था के चार बड़े मर्ज भारत को दिये. पंचायती राज कानून प्रभावी तरीके से लागू हो तो संविधान के अनुसार, वास्तविक विकेंद्रीकरण होगा. महात्मा गांधी ने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा माना था, जिसे संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया. उसके बावजूद प्रशासन और अदालतों में अंग्रेजी का वर्चस्व जारी रहना पूरी संवैधानिक व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है. सुप्रीम कोर्ट के 19 साल पुराने फैसले के अनुसार, पूरे देश में पुलिस सुधार के कानून लागू करने का काम अभी बाकी है. बेवजह गिरफ्तारी और हिरासत में यत्रंणा रोकने के लिए बनें कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अमल से ही ब्रिटिश हुकूमत की पुलिस के उत्तराधिकार से देश और समाज को मुक्ति मिलेगी.
संविधान के मजबूत स्तंभ होने के नाते न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है. अदालती कार्रवाई के सीधे प्रसारण और पीआइएल के बढ़ते चलन से मौलिक अधिकारों पर जागरूकता बढ़ी है, लेकिन पांच करोड़ लंबित मुकदमों की वजह से करोड़ों परिवार सामाजिक व आर्थिक तबाही का शिकार हो रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम का सिस्टम भी अपारदर्शी है. इसे दुरुस्त करने के लिए मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में एनजेएसी कानून बना था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया. इस बारे में न्यायपालिका में आंतरिक सुधार के साथ संसद से प्रभावी कानून बने, तो आम जनता का जजों के प्रति भरोसा और बढ़ेगा.
( लेखक सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट हैं)