घर में बच्चे के जन्म लेने पर वंश बढ़ने की खुशियां तो सभी मनाते हैं, पर शहर, जिला, प्रदेश, देश और विश्व की आबादी बढ़ने से डर जाते हैं. यह डर इतना भयानक है कि पूरी दुनिया ने इसे जनसंख्या विस्फोट की संज्ञा दे दी है. जनसंख्या विस्फोट प्रकृति, संस्कृति, संसाधन सबको निगल रहा है. लोगों के जीवन-स्तर को उठाने की योजनाएं सफल नहीं हो पा रही है. इससे भविष्य़ में होने वाले खतरों से आगाह करने के लिए दुनिया भर में शोध हो रहे हैं. भावी आबादी के आहट पर कदम उठाने और उससे निपटने के लिए भारत सरकार और राज्य़ सरकारों की ओर से भी कोशिश की जा रही है.
झारखंड में भी जनगणना के सूक्ष्म आंकड़ों के आधार पर बढ़ती आबादी की प्रवृत्ति पर शोध के लिए एक वर्क स्टेशन की स्थापना की गई. भारत सरकार के जनगणना आयुक्त कार्यालय की ओर से इसके लिए 20 लाख रुपये दिए गए. रांची विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय के ऊपरी तल्ले पर इसे स्थापित किया गया.
केंद्र के सहयोग से रांची यूनिवर्सिटी में खुला सेंसस रिसर्च का सेंटर
पुस्तकालय कर्मचारिय़ों को ही प्रशिक्षित कर आबादी पर शोध करने के लिए जनगणना कार्यालय के सहयोग से सूक्ष्म आंकड़ों को उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी सौंपी गई. इसका मकसद खास इलाकों में आबादी की प्रवृत्तियों और इसके परिणाम पर प्रभावी शोध को बढ़ावा देना है. इसके जरिए राज्य सरकार या जिला प्रशासन की ओर से नए विकास लक्ष्यों की पहचान और उनके बाधाओं को पहचानने में मदद करना है.
रिसर्च वर्कस्टेशन पर हफ्तों से बंद है ताला
रांची विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में स्थापित रिसर्च वर्कस्टेशन हफ्तों से नहीं खुला है. विश्व जनसंख्या दिवस से एक दिन पहले जब यह संवाददाता पौने तीन बजे के आस-पास इस वर्कस्टेशन पर पहुंचा तो वहां के दरवाजे में लगे ग्रिल पर ताला ज़ड़ा था. पुस्तकालय में नियमित पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने बताया कि हफ्तों से इसे खुलते हुए नहीं देखा. इससे पहले भी कभी-कभी ही खुलता था. इसके बारे में ज्यादा कंप्यूटर सेंटर के कर्मचारी ही बता पाएंगे. केंद्रीय पुस्तकालय के कंप्यूटर सेंटर में मौजूद कर्मचारी सुमित सिन्हा ने बताया कि सेंसस माइक्रो डाटा रिसर्च वर्कस्टेशन में तैनात कर्मचारी का नाम अमित कुमार है. वह कई दिनों से छुट्टी पर है. उसके बदले किसी दूसरे को चार्ज नहीं दिया गया है. वहां मौजूद सुमित सिन्हा समेत दूसरे कर्मचारियों ने बताया कि उस रिसर्च वर्कस्टेशन की सीलिंग भी थोड़ी झुक गई है. इस कारण भी इसे अरसे से नहीं खोला जा रहा है.
भविष्य में क्या हो सकता है नुकसान
2011 की जनगणना के बाद से कोई जनगणना नहीं हुई है. इसलिए 2011 की जनगणना से मिले डेमोग्राफिक पैटर्न के संकेतों के आधार पर अगर भविष्य का आकलन नहीं किया गया तो हमारी विकास की दिशा भटक सकती है. आबादी के स्वरूप के ढांचागत रुझान को समझने के लिए रांची विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय स्थित इस रिसर्च वर्कस्टेशन के अलावा आंकड़ों का और कोई सांस्थानिक स्रोत भी नहीं है. 2021 में अगर जनगणना हो गई होती तो उससे प्राप्त आंकड़े अभी तक राज्य़ सरकार के पास आ गए होते हैंं. अभी विकास के सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर जीवन के हर क्षेत्र में वर्तमान स्थिति का अनुमान लगाना आवश्यक है. इसे ऐसे समझिए, मान लीजिए किसी गांव में 2011 की जनगणना के मुताबिक 100 बच्चे पहली कक्षा में थे तो वे सभी अभी कॉलेज में पढ़ने लायक हो गए होंगे. ऐसी स्थिति में किसी ग्रामीण इलाके में नए कॉलेज की स्थापना की योजना बनाते समय 2011 की जनगणना के आधार पर मुफीद स्थान का अनुमान लगाना ही ठीक रहेगा.
2011 की जनगणना के 109 गांव बन चुके हैं शहर
2011 की जनगणना के समय गांव के रूप में दर्ज किए गए 109 गांव अब शहर बन चुके हैं. पर शहर का रूप धारण कर चुके ऐसे 109 केंद्रों के लिए भी झारखंड सरकार अभी तक गांव की तरह ही योजना बना रही है. इस डेमोग्राफिक पैटर्न को समझते हुए अगर और भी स्थानों के भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए शहरी ढांचे नहीं विकसित किए गए तो झारखंड में संकरी गलियों वाले गंदे शहरों की श्रृंखला बन सकती है. सेंसस रिसर्च वर्कस्टेशन की प्रभावी स्थिति इस तरह की पहल के लिए शोध पृष्ठभूमि तैयार करने में मददगार हो सकती है.