मुक्ति शाहदेव का जन्म रांची में हुआ. इनकी स्कूली शिक्षा रांची से ही हुई. रांची महिला कॉलेज से स्नातक किया और रांची विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए हैं. संप्रति ब्रिजफोर्ड स्कूल में सीनियर सेकेंडरी इंजार्ज हैं. इन्होंने कई कविताएं और कहानियां लिखीं हैं, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. साथ ही इनकी कविताएं आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी प्रसारित हो चुकी हैं.
क्यों खो जाती है वह….!
पहाड़ी झरने सी
बहना चाहती है
ताउम्र उन्मुक्त उच्श्रृंखल
अठखेलियां करती
तटों से टकराती
लता गुल्मों से लिपटती
पत्थरों को भिगोती डुबोती
बेफिक्री में उछलती कूदती
चाहती है वह चंचल नदी सी
निरंतर यूं ही बहती रहना ।
तमाम बंधन व वर्जनाएं
अंततः जकड़ ही लेते हैं
उसे अपने लौह पाश में
छटपटाती है सहमती है
बार बार
निकल भागना चाहती है
रूकती तो नहीं पर
ठहर कर सोचती सी
मध्यम और फिर मंद मंद
बढ़ती चली जाती है .
नियति है ना यही उसकी
उस विशाल सागर में
अपने को समर्पित कर देने की
एकदम से
उस खारे जल में
अपना स्व मिटाकर
वह मीठी उच्श्रृंखल नदी
अंततः सागर ही तो
बन जाती है
ढूंढो ना उसे
क्यों खो जाती है वह
अपना रूप बदलकर …!
संबल
जब गुजरती है आधी रात हौले से
जब चला जाता है चांद खिड़की से
जब मिट जाते हैं साये दरख्तों के
जब हो जाते हैं पत्ते भी खामोश
दूर चली जाती है नींद पलकों से
चीखने लगता है सन्नाटा बेदर्दी से
अविरल बहते हैं धार अश्रु के
शब्द-शब्द मुखरित होता है मौन
संजो इन्हें मैं सोचती हूं
दो पल सुकून के क्यों मेरी
मुट्ठी में नहीं समाते हैं
हाय! ये झरते अक्षर ही तो
मेरे संबल बन जाते हैं !
अब जी लें जरा…!
आओ अब थोड़ा जी लें
सपनों को भी
यह भागती दौड़ती दुनिया
कब रूकी है भला
हम भर लें सांस
सुकून की जरा
किरणों के छूते ही
कैसी छुई मुई सी
लजाती भाग जाती हैं
ओस की बूंदें
वर्षों से देखा नहीं इन्हें
आओ एक सुबह
इनके संग बतिया लें जरा .
भींग कर बारिश में
नन्ही गौरैया
बूंदों से तरबतर
अपने पंखों को
झटकती है कैसे
या कि
रूकते ही बारिश के
छत वाली गिलहरी
कुतरती है चौकन्नी हो कर
रोटी के टुकड़ों को कैसे
एक पूरा दिन
बैठकर निहारें ये सब
और
कुछ बतिया लें तुमसे .
लगता है अब कि
सपनों को जीने की
फुर्सत देगी नहीं ये
भागमभाग सी जिंदगी
छोड़ आये जिन
आधे-अधूरे से
सपनों को राह में
ठहरे/ ठिठके खड़े हैं वे
आज भी
हमारे इंतजार में
आओ तुम्हारा हाथ थाम
मिल आयें उन सपनों से
और कह दें उनसे
कि आयेंगे फिर हम
एक दिन जरूर
तुम्हें पूरा करने .
आओ करें फिर से रौशन चिराग..!
दबे पांव आये थे या
तान कर सीना भी आये तो क्या
हरकत तो कायराना कर गये तुम
मर गयी कब की इंसानियत
अंतरात्मा की आवाज
कैसे सुन पाओगे तुम
मार दिए एक चार सात या पच्चीस
नपुंसक थे हो और रहोगे तुम
फैलाने को घृणा और
बढ़ाने को दूरियां
ये कुत्सित प्रयास अब
कितने दिन चलेंगे और
देखो डटी है इंसानियत
बनकर फौलाद
बुझाते रहो तुम चिराग
करेंगे हर हाल में फिर से
उसे रौशन
जबतक हमारी रगों में
बहता रहेगा
इंसानियत का खून !
नवश्रृंगार करें सृष्टि का
अजब सी कशिश है
आज हवाओं में
भीगा सा एहसास है
बूंदों सी यादें हैं
धूप सी तड़पन है
तेरी खुशबू से सराबोर
मचल रही है मेरी तन्हाई
कुछ कह लेने को ।
पलों दिवसों की नहीं
सदियों की इस प्यास को
विराम दें आज
चलती हुई सांसें
धड़कता हुआ दिल
एकबारगी
थम जाने के एहसास से
गुजर ही जाये आज
इससे पहले कि
यह चमकता हुआ सूरज
फिर छिप जाये
बादलों के आगोश में
या कि
उतावले हो हो कर
ये काले बावरे मतवाले
निर्दयी प्रेमी से मेघ
बरस-बरस कर
बेसुध कर दें इस धरा को.
आओ इन भीगे पलों में
कुछ रच जाएं अनूठा
कि अप्रतीम हो कल का संसार
कि हो इस सृष्टि का
नवश्रृंगार !