डॉ. संतोष कुमार तिवारी का जन्म 31 जुलाई 1951, लखनऊ में हुआ. इन्होंने एम.एससी., एलएल.एम. (लखनऊ विश्वविद्यालय), पीएच.डी. (पत्रकारिता, कार्डिफ विश्वविद्यालय, ब्रिटेन) से किया.
डॉ. तिवारी 31 जुलाई 2016 को पैंसठ वर्ष की आयु पूरी होने पर झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय से प्रोफेसर (जनसंचार) के पद से सेवानिवृत्त हुए. सेवानिवृत्ति के बाद वह अपने गृह नगर लखनऊ में रह रहे हैं. डॉक्टर तिवारी की पुस्तक ‘सपने सच होते हैं ‘ शीघ्र ही निर्मल पब्लिकेशन (इंडिया) दिल्ली से प्रकाशित होने वाली है.
वर्ष 1994 से पहले उन्होंने बतौर पत्रकार एक लंबी पारी खेली. 19 साल की उम्र में उन्होंने युवा पाठकों के लिए ‘तरुण प्रहरी’ नामक अखबार का प्रकाशन लखनऊ से शुरू किया. उन्हें पत्रकारिता की तीन विदेशीस्कॉलरशिप मिलीं. वर्ष 2015 में अंग्रेजी में उनकी पुस्तक ‘फ्री स्पीच वर्सेज हेट स्पीच’ प्रकाशित हुई. गुजराती भाषा में भी उनकी एक पुस्तक प्रेस काउंसिल आफ इंडिया पर प्रकाशित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त इनके कई शोध लेख देश-विदेश में छप चुके हैं. संपर्क : 09415948382 ईमेल – santoshtewari2@gmail.com
‘सपने सच होते हैं’ इस किताब के लेखक हैं डॉ संतोष तिवारी. उन्होंने किताब के बारे में बताया है कि मैंने यह किताब अपनी सच्ची जिंदगी के कुछ लम्हों को उन युवा साथियों के साथ साझा करने के लिए लिखी है, जिन्होंने कुछ ऊंचाइयां छूने के सपने देखे हैं. अगर वे ठान लें तो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कामयाबी उनकी मुट्ठी से दूर नहीं रह सकती.
लेखक लंबे समय तक देश के प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों में पत्रकार रहे. किताब में यह बतायेगा गया है कि ब्रिटेन की दो और कनाडा की एक स्कॉलरशिप उन्हें कैसे मिलीं.
आमतौर से हिंदीभाषी ऐसा समझते हैं कि उन्हें कोई विदेशी स्कॉलरशिप नहीं मिल सकती. हिंदीभाषी ही नहीं, गैर-हिंदीभाषी भी इसी हीन भावना से ग्रसित रहते हैं. इनमें अंग्रेजी-दां भी शामिल हैं. लेखक की यह किताब इस मिथ को तोड़ती है.
इस पुस्तक की शुरुआत लेखक ने ‘मैं क्यों लिखता हूं, क्या लिखता हूं’ से की इस लेख को पढ़ने के बाद पाठकों को इस पुस्तक और इसके लेखक को समझने में आसानी होगी. यह लेख पाठकों को लेखन की राह में आगे बढ़ने और कामयाब होने के कुछ गुर भी बताता है. इस पुस्तक में लेखक ने ब्रिटेन यात्रा का वृत्तांत भी लिखा है. किताब रोचक बन पड़ी है. पढ़ें पुस्तक के प्रमुख हैं:-
मैं क्यों लिखता हूं, क्या लिखता हूं
वर्ष 1946 में इंग्लैंड की एक मैगजीन ‘गैंगरेल’ में प्रख्यात उपन्यासकार जार्ज आरवेल का एक लेख छपा था- ‘मैं क्यों लिखता हूं’. मुझे इस लेख का शीर्षक पसंद आया. इसलिए इस लेख का आधा शीर्षक जार्ज आरवेल से लिया है और आधा मेरा है. इस आलेख के दो भाग हैं. पहला थोड़ा आत्मकथ्यात्मक है कि मैं एक लेखक के तौर पर कैसे पला और बड़ा हुआ. और दूसरा भाग है- मैं अपने लेखों और कहानियों का विषय कैसे चुनता हूं . एक लेखक को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, आदि. यह नये लेखकों और पत्रकारों के लिए है.
बचपन से ही मेरी इच्छा थी कि कहानीकार बनूं. जब मैं अखबारों में काम करता था, तो लेखन मेरे जीवन-यापन का साधन था. और जब मैं यूनिवर्सिटी में काम करने लगा, तो यह मेरी आदत बन गयी. मैं चाहता हूं कि लेखन लत हो जाये और इसके बगैर मैं जी न सकूं.
1960 के दशक में मैंने कुछ छोटी कहानियां लखनऊ से निकलने वाले नवजीवन अखबार के लिए लिखीं. यह पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेशनल हेरल्ड समाचार पत्र समूह का हिस्सा था. तभी मैंने एक बार हिंदुस्तान टाइम्स समूह की हिंदी मासिक पत्रिका कादम्बनी के लिए भी लिखा था. तब तक मुझे यह समझ नहीं थी कि कहानी लेखन और पत्रकारिता दो अलग-अलग चीजें हैं. जीवन यापन के लिए मेरी इच्छा हुई कि मैं अखबारों में काम करूं. शुरू-शुरू में कई अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाए. पर कुछ हाथ नहीं लगा. मैं पॉयनीयर के प्रसिद्ध संपादक एस.एन. घोष के पास भी गया. घोष साहब ने मुझे नौकरी तो नहीं दी लेकिन बहुत ही सद्भावना पूर्ण व्यवहार किया और मुझे अपने आफिस के कमरे के बाहर तक छोड़ने आए.
घोष साहब लखनऊ के पॉयनीयर अखबार में बहुत लंबे समय तक संपादक रहे. मैंने घोष साहब से मुलाकात की पूरी बात पिताजी को बताई. तब पिताजी ने बताया कि वह भी कभी घोष साहब के पास नौकरी मांगने गए थे. और उनको भी घोष साहब नौकरी तो नहीं दे सके थे, परंतु दरवाजे तक उन्हें छोड़ने आये थे.
बाद में मेरे पिताजी की सरकारी नौकरी लग गयी. वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने कविताएं लिखना शुरू किया. कविता लेखन उनका सबसे प्रिय कार्य था. धीरे-धीरे वह हिंदी में ब्रज भाषा के एक जाने-माने कवि हो गये थे. पिताजी पैसे के लिए नहीं लिखते थे. हालांकि मैं भी पैसे के लिए नहीं लिखता हूं, लेकिन टाइम्स आफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, अमृत प्रभात, विदुर, मीडिया मीमांसा, आदि ने मुझे मेरे लेखन के लिए सदैव पारिश्रमिक दिया है.
अखबारों में नौकरी नहीं मिली, तो मैंने वर्ष 1970 में अपनी ही मैगजीन ‘तरुण प्रहरी’ निकालना शुरू किया. तब मैं 19 वर्ष का था. मेरे एक सिंधी मित्र इसके प्रकाशक थे और मैं संपादक. मेरे मित्र के पास अच्छी व्यापारिक बुद्धि थी. मैगजीन ने अच्छा लाभ कमाया और दो वर्ष से अधिक समय तक चली. इसके बाद मैंने एक और हिंदी पत्रिका ‘बाल बंधु’ निकाली, जिसमें एक प्रिटिंग प्रेस वाले मेरे पार्टनर थे. पत्रिका लगभग दो वर्ष चली और पार्टनर का निधन हो जाने के कारण वह बंद करनी पड़ी. फिर मैंने कई हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में काम किया. इनमें प्रमुख थे- दैनिक जागरण, अमृत प्रभात और नवभारत टाइम्स. मैं उन खुशनसीब लोगों में से हूं, जिन्हें नरेन्द्र मोहन (1934-2002) और राजेन्द्र माथुर (1935-1991) का भरपूर स्नेह मिला. इन दोनों को मैंने बहुत नजदीक से जाना. दोनों जाने-माने लेखक थे. नरेंद्र मोहन दैनिक जागरण के मालिक और संपादक थे. और राजेन्द्र माथुर नवभारत टाइम्स के संपादक थे. माथुरजी की सरलता और सहजता की जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही होगी. उनके साथ काम करना बहुत ही प्रसन्नता और आंनद की बात थी.
जब मैं अमृत प्रभात में था तब देश के मशहूर पत्रकार तुषार कांति घोष से मिलने का कई बार अवसर मिला. वह अमृत बाजार पत्रिका समूह के मालिक थे, जिसमें अमृत प्रभात भी शामिल था. तुषार कांति घोष में भी सरलता और सहजता का विशेष गुण था. मैंने यह गुण टाइम्स आफ इंडिया और नवभारत टाइम्स के मालिक अशोक जैन में भी देखा. इन सभी महानुभावों पर अलग-अलग लेख लिखे जा सकते हैं. मुझे हिंदी कहानीकार और उपन्यासकार अमृतलाल नागरजी का सान्निध्य और आशीर्वाद मिला. इन सभी लोगों का मेरे व्यक्तित्व और लेखन पर व्यापक प्रभाव है. लेकिन लेखन की मूलभूत बातें मैंने अपने पिताजी श्री गया प्रसाद तिवारी ‘मानस’ और अपने पत्रकार-मित्र श्री सीतराम निगम के चरणों में बैठकर सीखीं. निगम साहब उम्र में मुझसे कोई 15 या 17 साल बड़े रहे होंगे. वह हिंदुस्तान टाइम्स, ट्रिब्यून, नेशनल हेरल्ड, आदि देश के कई जाने-माने अखबारों में कार्य कर चुके थे. पिताजी की मृत्यु 27 सिंतबर 2009 को हुई और निगम साहब की 15 सितंबर 2010 को.
पिताजी और निगम साहब कि मृत्यु के बाद मैंने अनुभव किया कि वे लेखन में मेरे गुरु थे. मैं समझता हूं कि बगैर गुरु के कोई कला सीखी ही नहीं जा सकती.मेरा लेखकीय जीवन संवारने में इन दोनों गुरुओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है. साथ ही मेरी माता जी श्रीमती मनोरमा तिवारी का मुझे सदैव सहयोग मिला. मेरी माताजी अप्रैल 2008 को इस दुनिया को छोड़ गईं थीं.
मेरी पढ़ाई लखनऊ में हिंदी माध्यम स्कूलों और कॉलेजों में हुई. वर्ष 1989 तक मैंने अंग्रेजी में सिर्फ तीन-चार लेख लिखे होंगे. मेरा बाकी सारा लेखन हिंदी में ही था. अंग्रेजी में लिखे मेरे लेख लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित नार्दन इंडिया पत्रिका में छपे थे. वर्ष 1985-86 में मैंने भारत सरकार की दो अंग्रेजी पत्रिकाओं ‘लघु उद्योग समाचार’ और ‘डी.आई.सी. न्यूजलेटर’ का संपादन भी किया था, परंतु उनमें अलग से कुछ लिखा नहीं था.
वर्ष 1989 में मैं नवभारत टाइम्स से अवैतनिक अवकाश लेकर ब्रिटेन में पीएच.डी. करने गया. तब से अंग्रेजी में ही लिखता रहा हूं . फरवरी 1993 में भारत वापस आकर मैंने नवभारत टाइम्स, लखनऊ में फिर कार्य करना शुरू कर दिया था. परंतु जून 1993 में मालिकों ने अखबार बंद कर दिया. तब निगम साहब ने सलाह दी कि अब मैं किसी अखबार में काम न करूं, क्योंकि मैं अब यूनिवर्सिटी के ज्यादा उपयुक्त हूं.
नवभारत टाइम्स बंद होने पर मुझे किसी अखबार में नौकरी मिल सकती थी. परंतु निगम साहब का कहना था कि अगर मैं अखबार में नौकरी करूंगा, तो वहां संतुष्ट हो जाऊंगा. और किसी यूनिवर्सिटी में नौकरी के लिए एप्लाई नहीं करूंगा. मैंने निगम साहब की बात मान ली. लेकिन यूनिवर्सिटी की नौकरी तुरंत उपलब्ध नहीं थी. इस कारण एक वर्ष से ज्यादा समय बेरोजगारी में गुजारा. फिर हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी, शिमला, में वर्ष 1994 में पत्रकारिता विभाग में रीडर (एसोसिएट प्रोफेसर) का पद मिला.
बाद में 1996 में असम यूनिवर्सिटी, सिलचर, के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर का पद मिला. इस प्रकार निगम साहब की सलाह मानकर मैं पौने दो वर्ष की यूनिवर्सिटी नौकरी में ही प्रोफेसर बन गया. चूंकि अपने गृहनगर लखनऊ से सिलचर आना-जाना बहुत मुश्किल काम था. इसलिए 1997 में सिलचर की नौकरी छोड़कर महाराजा सयाजी राव यूनिवर्सिटी आफ बड़ौदा में पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर हो गया. वहां मैंने 2011 तक काम किया और इस समय सेंट्रल यूनिवर्सिटी आफ झारखंड, रांची में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हूं .
अपने यूनिवर्सिटी जीवन की शुरुआत में मैं कुछ शोध लेख इसलिए लिखता था, क्योंकि उनका जिक्र विश्वविद्यालय की वार्षिक रिपोर्टों में करना होता था. मैं जिस भी यूनिवर्सिटी में रहा, वहां विभागाध्यक्ष के पद पर ही रहा. मेरे विभाग के अन्य साथियों के शोध लेख ज्यादा प्रकाशित नहीं होते थे. और मैं ये चाहता था कि प्रकाशित लेखों के मामले में यूनिवर्सिटी की वार्षिक रिपोर्टों में मेरा विभाग किसी से पीछे न रहे. इस कारण मैं शोध लेख लिखता रहा. पत्रकारिता का लंबा अनुभव होने के कारण मेरे लेख हमेशा प्रकाशन योग्य होते थे. लेखन में मेरी रुचि थी जो धीरे-धीरे आदत बन गई.
लेखक के चार बड़े उद्देश्य
‘मैं क्यों लिखता हूं’ में जार्ज आरवेल कहता है कि लेखन के पीछे हर लेखक के चार बड़े उद्देश्य होते हैं. ये चारों बातें हर लेखक में किसी न किसी अनुपात में अवश्य पाई जाती हैं-
1. शुद्ध अहंकार- इसमें लेखक की यह इच्छा होती है कि उसके बारे में दूसरे लोग बात करें और वह ज्यादा चतुर समझा जाए. मृत्यु के बाद भी उसको याद किया जाए, आदि.
2. सौंदर्यवर्धक उत्साह- इसमें लेखक चाहता है कि उसने दुनिया की जो सुंदरता देखी है, वह दूसरों को बताए, ताकि दूसरे भी उसका अनुभव कर सकें.
3. ऐतिहासिक कारण- इसमें लेखक चाहता है कि सच्चे तथ्य लोगों के सामने रखे जाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनका इस्तेमाल कर सकें.
4. राजनैतिक उद्देश्य- इसमें लेखक की इच्छा होती है कि वह दुनिया के लोगों के विचार को बदल दे और उन्हें अपने बताए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करे. आरवेल ने कहा कि उसके लेखन के कारणों में प्रथम तीन उद्देश्य ज्यादा रहे हैं और चौथा उद्देश्य कम.
मेरे लेखन में आरवेल के पहले और तीसरे उद्देश्य अर्थात् शुद्ध अंहकार और ऐतिहासिक कारण लगभग 20% हैं. शेष 80%, मेरी यह इच्छा है कि पत्रकारिता के बारे में अपनी थोड़ी-बहुत जानकारी और जीवन का अनुभव पाठकों से शेयर करूं.
लेखक के दो और उद्देश्य
आरवेल द्वारा बताए चार उद्देश्यों के अलावा मैं समझता हूं कि लेखन के दो और कारण भी होते हैं. एक तो यह कि कुछ लोग सिर्फ पैसा कमाने के लिए लिखते हैं और दूसरा यह कि शिक्षण जगत से जुड़े लोग अक्सर अपने कैरियर में आगे बढ़ने के लिए भी लिखते हैं.
अमृत लाल नागरजी के लिए कहानी, उपन्यास लिखना उनकी रोजी-रोटी थी. उसकी कमाई से उनका घर चलता था. उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो ने एक जगह कहा है कि मैं जीने के लिए लिखता हूं और पीने के लिए लिखता हूं. परंतु इन लोगों ने लेखन के लिए किसी तरह का समझौता नहीं किया.
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यदि लेखन आपकी सबसे बड़ी लत हो जाए और सबसे बड़ा सुख हो जाए, तो सिर्फ मृत्यु ही आपको लिखने से रोक सकती है.
वास्तव में अपनी मृत्यु से कुछ घंटे पहले तक 89 वर्ष की आयु में भी मेरे पिताजी लेखन कार्य में व्यस्त थे. और अपनी कविताओं में सुधार कर रहे थे. मेरे पिताजी की मृत्यु 27 सितंबर 2009 को हुई. वह सुबह घूमने के लिए निकले थे. और कभी नहीं लौटे. वह देर रात तक काम करते थे. उनकी आदत थी कि कविताएं लिखने के बाद कई बार उसे सुधारते थे और पुनर्लेखन में थकते नहीं थे.
उनकी मृत्यु पर कुछ पत्रिकाओं ने उनके बारे में मुझसे लेख मांगे. लखनऊ के राजेन्द्र नगर पुस्तकालय की ओर से, जिसे मेरे पिता जी ने लगभग पचास वर्ष पहले स्थापित किया था, मुझसे कहा गया कि मैं उन पर एक लेख लिख दूं. यह लेख उस पुस्तकालय की स्मारिका में छपना था. इन लेखों को लिखना एक तरह का श्रद्धांजलि लेखन था. इनको लिखने के बाद मुझे बड़ी शांति मिली. इन सभी लेखों में मैंने उनकी एक कविता ‘मुझे अब किसी से शिकायत नहीं है’, का जिक्र जरूर किया, क्योंकि यह मुझे बहुत प्रिय थी. यह कविता मैंने इस पुस्तक के अध्याय ‘मेरे पिताजी’ में प्रस्तुत की है.
कम्युनिकेशन टुडे
वर्ष 2009 में मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी गया था पीएच.डी की मौखिक परीक्षा लेने के लिए. वहां मेरी मुलाकात पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर संजीव भनावत से हुई. वह ‘कम्युनिकेशन टुडे’ नामक एक शोध पत्रिका निकालते हैं और उसके संपादक हैं. वर्ष 2016 में यह पत्रिका 18 साल पुरानी हो गई. इस पत्रिका की सफलता का पूरा श्रेय उन्हीं को जाता है.
बातचीत के दौरान मैंने डा. भनावत को बताया कि हिंदुस्तान में पत्रकारिता की पढ़ाई किस प्रकार शुरू हुई. आजादी के पहले पी.पी. सिंह नामक व्यक्ति ने किस प्रकार उत्तर प्रदेश से लाहौर जाकर पंजाब यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग शुरू किया. और आजादी के बाद उस डिपार्टमेंट को किस प्रकार वह भारत ले आए. यही विभाग आज भारतीय उपमहाद्वीप का लगातार चलने वाला सबसे पुराना विभाग है. मैंने उनको पी.पी. सिंह के जीवन के बारे में कई घटनाएं बताईं. तो डा. भनावत से मुझसे आग्रह किया कि मैं पी.पी. सिंह पर ‘कम्युनिकेशन टुडे’ में एक लेख लिख दूं.
तबसे 2016 में अपने रिटायरमेंट तक ‘कम्युनिकेशन टुडे’ के लगभग हर अंक में कोई न कोई शोध लेख अवश्य लिखता रहा. ये सभी लेख अंग्रेजी में हैं. इस प्रकार ‘कम्युनिकेशन टुडे’ में मेरे लेखों को स्थान मिलने के कारण मेरी कलम भी धीरे-धीरे पैनी होती गई.
हिंदी लेखन में राजेन्द्र माथुर ने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया. माथुर जी के पास नवभारत टाइम्स जैसा देश का एक बड़ा अखबार था. और उसमें उन्होंने मेरे लेखों को हमेशा स्थान दिया. ऐसा ही प्रोत्साहन मुझे अमृत प्रभात के संपादक सत्यनारायण जायसवाल ने भी दिया. मैंने अमृत प्रभात के लिए जब भी कुछ लिखा, तो उन्होंने हमेशा उसे प्रकाशित किया.
मैजिक आफ सिक्स
लेखन में जिन छह बातों का मैं ध्यान रखता हूं, वे इस प्रकार हैं-
1. विषय कुछ ऐसा होना चाहिए कि जो पाठक के लिए उपयोगी हो.
2. जब कोई लेख लिखा जाए, तब उस विषय से संबंधित सारे आयाम उस लेख में शामिल नहीं किए जाने चाहिए. उसके विभिन्न आयामों के लिए अलग-अलग लेख लिखे जाएं.
3. लेख, कहानी, कविता, जो भी लिखें, उसका कई बार पुनर्लेखन
करने में आलस्य न करें. पुनर्लेखन आपके लेखन को उसी तरह चमकाता है, जिस प्रकार बार-बार ब्रश फेरने से जूते में चमक आ जाती है. मेरा यह मानना है कि जो पुनर्लेखन नहीं कर सकता, वह अच्छा लेखक नहीं बन सकता.
4. जहां तक हो सके छोटे-छोटे वाक्य लिखे जाएं. क्योंकि छोटे वाक्यों को समझना पाठक के लिए आसान होता है.
5. अनावश्यक कठिन शब्दों का इस्तेमाल से बचना चाहिए.
6. प्रकाशन के लिए भेजने से पहले रचना अपने कुछ मित्रों को दिखाकर उनसे सुझाव अवश्य लें. ये सुझाव हमेशा मुझे उपयोगी लगे हैं. राजेन्द्र माथुर जैसा सिद्धहस्त लेखक भी अक्सर अपने लेखों के प्रकाशन के पहले दूसरों की राय ले लेते थे.
लेखन दो प्रकार का हो सकता है. पहला तथ्यों पर आधारित, जैसे यात्रा वृत्तांत, लेख, आदि. दूसरा कल्पना पर आधारित, जैसे कहानी, उपन्यास, कविता, आदि.
तथ्यों पर आधारित लेखन की सफलता इस बात से आंकी जा सकती है कि वह पाठक के लिए कितना उपयोगी है. दूसरी ओर कहानी, उपन्यास, कविता, आदि की सफलता इस बात से होती है कि वह पाठक के दिल को कितना छू पाते हैं. वे पाठक की आंखों में खुशी या गम के आंसू ला पाते हैं या नहीं?
एक बार मेरे पिताजी एक कवि सम्मेलन में अपनी कविता सुना रहे थे. तभी एक बहुत गरीब और वृद्ध महिला अपनी धोती के पल्लू से अपने आंसू पोछती उनके पास आई. उसने मेरे पिताजी के पैर छुए और उन्हें उनकी कविता के प्रशंसा स्वरूप में एक रुपया दिया.
मेरे विचार में यह एक रुपया पिताजी की कविता की सफलता को दर्शाता है. वह औरत गरीब थी. लेकिन वह अपने को रोक नहीं पाई और उसने एक रुपये की छोटी सी भेंट पिताजी की कविता की प्रशंसा में उन्हें दी. मेरे पिताजी उस महिला की इस भावना से बहुत भावुक हो गए थे.
लेखन कई प्रकार का होता है: वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक, तहकीकात्मक, साहित्यिक, व्यंग्यात्मक, आलोचनात्मक, कथात्मक, आदि. लेकिन पत्रकारिता में लेखन का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, वह है- जनहित.
डांस, अभिनय, गायन, आदि की तरह लेखन भी एक कला है. कठोर परिश्रम और पुनर्लेखन की आदत डालकर लेखन की कला में महारत हासिल की जा सकती है.
जार्ज आरवेल (1903-1950) के विचार, तर्क-वितर्क और विश्लेषण करने की कला मुझे पंसंद है. मेरे आदर्श लेखक हैं महात्मा गांधी (1869-1948), मुंशी प्रेमचंद (1880-1936), हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) और टॉमस पेन (1737-1809). ये सभी लोग मुझे इसलिए पंसंद हैं क्योंकि वे सीधी सरल भाषा में अपनी बात कहते हैं जिसमें कोई बनावटीपन नहीं होता.
लेखन कार्य में सभी लेखकों का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है. कोई भी लेखक अपने अंत:करण में ईमानदारी से झांक कर अगर देखे, तो उसे अपना उद्देश्य तुरंत समझ में आ जाएगा. पुराने और स्थापित लेखक सार्वजनिक तौर पर अपने उद्देश्य कभी नहीं बताते हैं. वास्तविकता तो यह है कि अगर चींटी भी पहाड़ पर चढ़ती है, तो उसका कुछ न कुछ उद्देश्य होता है.
एक सफल लेखक में तीन गुण जरूरी हैं- किस्सागोई का अंदाज, शिक्षक के गुण और अपनी कलम से पाठक को उसी तरह से सम्मोहित कर लेना, जिस तरह से संपेरा अपनी बीन से नाग को वश में कर लेता है. इनमें सबसे जरूरी है- सम्मोहित करना.