सारिका भूषण कवयित्री एवं लेखिका हैं, जन्म 15.04.1976 में हुआ. विज्ञान में स्नातक हैं. इनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्रिकाओं " कथादेश" , "कादम्बिनी " , " गृहशोभा" , " सेवा सुरभि " , " ब्रह्मर्षि समाज दर्शन " सहित कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. इनकी किताब भी प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें कविता संग्रह और लघुकथा भी शामिल हैं. इनकी प्रसिद्ध किताब है " माँ और अन्य कविताएं " 2015, " नवरस नवरंग " साझा काव्य संग्रह 2013,"कविता अनवरत " इत्यादि." नव सृजन साहित्य सम्मान 2017 " से सम्मानित "अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता " में नवां स्थान प्राप्त.
भक्ति
न मेरे पास
कोई स्वर्ण कमल
न ही इतनी शक्ति
कि करूं नियम अमल
न इतना सामर्थ्य
कि यज्ञ करूं प्रबल
एक अदनी सी
काया है
हाड़ मांस में
रुग्ण छाया है
न कोई साधन
यहां जुट पाया है
स्वार्थ से घिरा जीवन
ही बच पाया है
सजल आंखों से
कर रही यह वन्दन
रोम- रोम पुलकित
मन पीड़ा का चंदन
मन की गहराइयों में
बसा एक नंदन
शिव चरणों में इस भक्त का
निश्छल भक्ति से अभिनंदन .
धर्म
क्यों पूछते हो
इंसानों से उनके धर्म ?
एक ही मिट्टी के बने
एक जैसी सांचों में ढले
क्या कुम्हार से पूछते हो
उनके घड़ों के धर्म ?
एक ही कूड़ेदान से
कचरों के ढेर से
दो निवाले ढूंढते पशु व इंसान
क्या जानते हैं धर्म ?
मज़हबी इबादत व नारों में
मंदिर , मस्ज़िद के गलियारों में
ध्वजा लिए ठेकेदारों से
आखिर क्यों पूछते हो धर्म ?
पूछना है तो पूछो
अबोध, निश्छल , मासूम से
रंगों , फूलों,पटाखों की धूम से
क्या जाना है उन्होंने कोई धर्म ?
हम इंसान है , इंसान रहने दो
मानवता की जान रहने दो
न जानना , न जताना मेरा धर्म
बस कर्म से पहचान रहने दो .
नदी हूं मैं
शिव के जटा की
धार हूँ
ब्रह्मा के कमंडल
विष्णु के मुखमंडल के
तेज से साकार हूं मैं
ऋषियों की तपस्या
युग – युगों की आस्थाओं का
निर्मल सार हूं मैं
गिरि के शिखर से
कालों के धवल सफ़र से
अब लगती लाचार मैं
धर्म के नाम , कर्म के कांड
और विकास के बांध से
सह रही कचरों का भार मैं
बहाकर लायी जो
संग हरियाली के बीज
पर उग आई जो
स्वार्थ पूर्ण सभ्यता अजीब
कट गईं हैं मेरी बाहें
खो गए मेरे वेग, मेरी उच्छाहें
जाने किस ओर
किस दूरी तक
किस हश्र में ला सकोगे
डरो तुम , डरो अपने अस्तित्व से
खो न जाऊं मैं गर्भ में
कि कथा कह तुम
मेरे एक स्पर्श को तरसोगे .
मां
सूरज उगता है
पर धूप नहीं दिखती
चांद निकलता है
पर चांदनी नहीं छिटकती
रात दिन एक सा लगता है
हर उस पल में
जिसमें मां तू नहीं दिखती
तुम्हारी प्यारी लोरियों में
आज निशा है गुनगुनाती
गालों पर मीठी थपकियां देने
ख़्वाबों में परियां तक आ जाती
पर कुछ नहीं भाता
कोई रूप नहीं सुहाता
बस एक बार मां तू आ जाती
नन्हीं सी काया हूं
मां, मैं तेरी छाया हूँ
सिर्फ तेरे स्पर्श को जाना है
उस एक बिन , बाकी बेगाना है
हर रूप को जीना सीखा है
हर धूप जो सहना सीखा है
मां! बस तू है , इसके बाहर जहां न दिखा है .