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पुण्यतिथि पर विशेष : महादेवी ने अपनी रचनाओं में स्त्रीमन की पीड़ा को बखूबी सजाया, पढ़ें उनकी कुछ कविताएं

आज आधुनिक हिंदी साहित्य की ‘मीरा’ महादेवी वर्मा की पुण्य तिथि है. उन्हें हिंदी साहित्य का आधार स्तंभ माना जाता है. छायावादी युग की तो वे एक स्तंभ थीं ही. उनकी कविताओं में स्त्री मन की वेदना बखूबी झलकती है. उन्होंने पीड़ा को इतनी बखूबी सजाया कि वह आमजन की पीड़ा बन गयी. महादेवी का […]

आज आधुनिक हिंदी साहित्य की ‘मीरा’ महादेवी वर्मा की पुण्य तिथि है. उन्हें हिंदी साहित्य का आधार स्तंभ माना जाता है. छायावादी युग की तो वे एक स्तंभ थीं ही. उनकी कविताओं में स्त्री मन की वेदना बखूबी झलकती है. उन्होंने पीड़ा को इतनी बखूबी सजाया कि वह आमजन की पीड़ा बन गयी. महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 में हुआ था, जबकि मृत्यु 11 सितंबर 1987 को हुआ.
महादेवी वर्मा का विवाह तो हुआ था, लेकिन उन्होंने अपना पूरा जीवन अविवाहित की तरह बिताया. जब वे सातवीं कक्षा में थीं, उसी वक्त से उन्होंने लिखना प्रारंभ कर दिया था. नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, सप्तपर्णा, प्रथम आयाम, अग्निरेखा उनके प्रसिद्ध कविता संग्रह हैं. आज पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी कविताएं:-
मिलन
रजतकरों की मृदुल तूलिका
से ले तुहिन-बिन्दु सुकुमार,
कलियों पर जब आंक रहा था
करूण कथा अपनी संसार;
तरल हृदय की उच्छ्वास
जब भोले मेघ लुटा जाते,
अन्धकार दिन की चोटों पर
अंजन बरसाने आते!
मधु की बूदों में छ्लके जब
तारक लोकों के शुचि फूल,
विधुर हृदय की मृदु कंपन सा
सिहर उठा वह नीरव कूल;
मूक प्रणय से, मधुर व्यथा से
स्वप्न लोक के से आह्वान,
वे आये चुपचाप सुनाने
तब मधुमय मुरली की तान.
चल चितवन के दूत सुना
उनके, पल में रहस्य की बात,
मेरे निर्निमेष पलकों में
मचा गये क्या क्या उत्पात!
जीवन है उन्माद तभी से
निधियां प्राणों के छाले,
मांग रहा है विपुल वेदना
के मन प्याले पर प्याले!
पीड़ा का साम्राज्य बस गया
उस दिन दूर क्षितिज के पार,
मिटना था निर्वाण जहां
नीरव रोदन था पहरेदार!
कैसे कहती हो सपना है
अलि! उस मूक मिलन की बात?
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आंसू उनके हास!

सूनापन
मिल जाता काले अंजन में
संध्या की आंखों का राग,
जब तारे फैला फैलाकर
सूने में गिनता आकाश;
उसकी खोई सी चाहों में
घुट कर मूक हुई आहों में!
झूम झूम कर मतवाली सी
पिये वेदनाओं का प्याला,
प्राणों में रूंधी निश्वासें
आतीं ले मेघों की माला;
उसके रह रह कर रोने में
मिल कर विद्युत के खोने में!
धीरे से सूने आंगन में
फैला जब जातीं हैं रातें,
भर भरकर ठंढी सांसों में
मोती से आंसू की पातें;
उनकी सिहराई कंपन में
किरणों के प्यासे चुंबन में!
जाने किस बीते जीवन का
संदेशा दे मंद समीरण,
छू देता अपने पंखों से
मुर्झाये फूलों के लोचन;
उनके फीके मुस्काने में
फिर अलसाकर गिर जाने में!
आंखों की नीरव भिक्षा में
आंसू के मिटते दाग़ों में,
ओठों की हंसती पीड़ा में
आहों के बिखरे त्यागों में;
कन कन में बिखरा है निर्मम!
मेरे मानस का सूनापन!

जो तुम आ जाते एक बार
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आंसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आंखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार

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