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बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में बीते गुरुवार की रात को जो कुछ हुआ उसने देश भर में बहस छेड़ दी है. सोशल मीडिया में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है. शिक्षण संस्थानों के माहौल पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं, ऐसे माहौल में प्रसिद्ध साहित्यकार काशीनाथ सिंह का एक बयान आया है . वे आंदोलनरत […]

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में बीते गुरुवार की रात को जो कुछ हुआ उसने देश भर में बहस छेड़ दी है. सोशल मीडिया में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है. शिक्षण संस्थानों के माहौल पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं, ऐसे माहौल में प्रसिद्ध साहित्यकार काशीनाथ सिंह का एक बयान आया है . वे आंदोलनरत लड़कियों के पक्ष में खड़े हुए हैं. काशीनाथ सिंह ने 1965 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में ज्वाइन किया था और यहीं से वे रिटायर भी हुए. उन्होंने शिक्षा भी इसी विश्वविद्यालय से प्राप्त की है. उनके पोस्ट को हम यहां हूबहू प्रस्तुत कर रहे हैं.

काशीनाथ सिंह
मैं 32 सालों तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नौकरी कर चुका हूं और 64 सालों से इस यूनिवर्सिटी को देख रहा हूं. इसके पहले जो भी आंदोलन हुए हैं या तो छात्र संघ ने किये हैं या छात्रों ने किये हैं.
यह पहला आंदोलन रहा है जिसमें अगुवाई लड़कियों ने की और सैकड़ों की तादाद में लड़कियां आगे बढ़कर आयीं. वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिंह द्वार पर धरना दे रही थीं.
वे धरने पर इसलिए बैठी थीं कि उस रास्ते से प्रधानमंत्री जाने वाले थे जो इस क्षेत्र के सांसद भी हैं. लड़कियों का ये हक़ बनता था कि वे अपनी बातें उनसे कहें. इसके बाद प्रधानमंत्री ने तो अपना रास्ता ही बदल लिया और चुपके से वे दूसरे रास्ते से चले गए.
लड़कियों की समस्या ये थी कि उनकी शिकायतें न तो वाइस चांसलर सुन रहे थे और न ही प्रशासन. वे ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाले देश के प्रधानमंत्री से अपनी बात कहना चाहती थीं.
बहरहाल ये हो नहीं सका. लड़कियों ने वाइस चांसलर के आवास पर धरना दिया. पुलिस ने सिंह द्वार पर भी लाठी चार्ज किया और वीसी आवास पर भी किया. इसमें सबसे शर्मनाक बात ये है कि लाठी चार्ज करने में महिलाएं पुलिसकर्मी नहीं थीं.
लाठी बरसाने वाली पुरुष पुलिस थी. उन्होंने लड़कियों की बेमुरव्वत पिटाई की और यहां तक कि छात्रावास में घुसकर पुलिस ने लाठी चार्ज किया. ये बनारस के इतिहास में पहली ऐसी घटना हुई थी जबकि काशी हिंदू विश्वविद्यालय को देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी माना जाता है.
सबसे बड़ी समस्या यही थी. छेड़खानी तो एक बहाना था. बहुत दिनों से गुबार उनके दिल के भीतर भरा हुआ था. लड़कियों ने ख़ुद अपने बयान में कहा था कि महिला छात्रावासों को जेल की तरह बनाया जा रहा है और वॉर्डनों का बर्ताव जेलर की तरह है.
यानी वे क्या पहनें-ओढ़ें, क्या खाएं-पीएं, कब बाहर निकलें, कब अंदर आएं, ये निर्णय वे करती हैं. लड़के और लड़कियों के बीच भेद-भाव किया जाता है, खान-पान से लेकर हर चीज़ में. बीएचयू में ज़माने से एक मध्ययुगीन वातावरण बना हुआ है और ये चल रहा है.
कभी इसे कस दिया जाता है तो कभी इसमें ढील दे दी जाती है. इसलिए लड़कियों की सारी बौखलाहट इस आंदोलन के रूप में सामने आई. छेड़खानी तो हुई थी, लेकिन इतनी लड़कियां केवल छेड़खानी के कारण इकट्ठा नहीं हुई थीं.
‘लड़कियों को दायरे में रहना चाहिए’ जैसी सोच वाले लोग हमेशा रहे हैं. ये ब्राह्मणवादी और सामंतवादी सोच है. इस बदले हुए ज़माने में बहुत से लोग ये चाहते हैं कि लड़कियां जींस न पहनें. जबकि लड़कियां जींस पहनना चाहती हैं.
वे उन्मुक्त वातावरण चाहती हैं. अपनी अस्मिता चाहती हैं. वो लड़कों जैसी बराबरी चाहती हैं. उन्हें ये आज़ादी नहीं देने वालों में उनके अभिभावक भी हैं और लड़कियां उनसे भी कहीं न कहीं असंतुष्ट हैं.
एक तरफ़ तो ऐसी सोच रखने वाले लोग हैं और दूसरी तरफ़ इस समय सत्ता में जो राजनीतिक पार्टी है उसकी सोच भी पुरानी मान्यताओं वाली है.
दुख की बात यही है. अभिभावकों की सोच तो बदली जा सकती है. जिनकी बेटियां पढ़ रही हैं, वे समय के साथ बदल जाएंगे, लेकिन ऊपर की सोच का जो दबाव बना हुआ है, उसे कैसे बदला जाए. आवाज़ें बराबर उठती रही हैं, लेकिन वे बेअसर होती रही हैं.
हमारा मानना है कि बनारस की लड़कियों में इतना विवेक है कि वे ये तय कर सकती हैं कि उन्हें कहां और कब बाहर जाना है, किसके साथ जाना है और कब लौट आना है.

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