-गीत चतुर्वेदी-
2017 का नोबेल पुरस्कार किसे मिलेगा, इसकी घोषणा आज हो जायेगी. पुरस्कार साहित्य का एक सालाना उत्सव है, तो अनुमान भी एक सालाना अवसर. विश्व-साहित्य का एक विद्यार्थी होने के नाते, पिछले दस बरसों में एक भी बरस ऐसा नहीं बीता, जब सितंबर के आख़िरी दिनों में मुझसे यह न पूछा गया हो कि- “आपको क्या लगता है, इस साल का नोबेल किसे मिलेगा?” यहां यह भी जोड़ना चाहिए कि दस साल में एक बार भी मेरा अनुमान सही साबित नहीं हुआ. और बहुत संभावना है कि इस बार भी न हो.मेरे जैसे करोड़ों लोग होंगे, जिनके अनुमानों को नोबेल पुरस्कार समिति गलत बता देती है. और ऐसा करते हुए वह बहुत आनंदित होती होगी.
दुनिया का साहित्य-जगत अभी पिछले साल के पुरस्कार के सदमे से ही उबर नहीं पाया है. 2016 में यह पुरस्कार अमेरिकी गीतकार व गायक बॉब डिलन को दिया गया था. उस पर मार विवाद हुए थे. गीतों को साहित्य का अंग न मानने वाली एक विशाल आबादी ने इस निर्णय की निंदा की थी. नोबेल समिति की जान सांसत में तब आ गयी, जब ख़ुद डिलन ने ही पुरस्कार के प्रति अपनी उदासीनता जगज़ाहिर कर दी थी. उन्होंने पुरस्कार को एकनॉलेज भी नहीं किया. यही नहीं, दो महीने बाद वह पुरस्कार लेने समारोह में भी नहीं गए. ऐसी ख़बर है कि नोबेल और उसकी अंतर्राष्ट्रीय लॉबी ने तरह-तरह से डिलन पर दबाव बनाया. उसके बाद अभी कुछ माह पहले एक निजी समारोह में डिलन ने उस पुरस्कार को ग्रहण किया और नोबेल भाषण- वह तो उन्होंने देकर भी एक तरह से नहीं दिया. महान सार्त्र के बाद नोबेल-विजय की ऐसी महाकाय उपेक्षा डिलन ने ही की होगी.
सार्त्र का मामला डिलन से अलग था. सार्त्र को भनक लग गई थी कि 1964 में उनके नाम पर विचार किया जा रहा है. उन्होंने तुरंत नोबेल समिति को एक ख़त लिखा कि अगर दिया गया, तो वह नोबेल पुरस्कार लेने से इनकार कर देंगे. लेकिन उस ज़माने में वह ख़त नोबेल समिति के पास देर से पहुंचा. तब तक उनके नाम का निर्णय ले लिया गया था. पुरस्कार की घोषणा के तुरंत बाद सार्त्र ने आधिकारिक बयान दिए कि उन्हें यह पुरस्कार नहीं चाहिए. वह गजब के विद्रोही थे. उन्होंने किसी भी तरह का सरकारी सम्मान कभी नहीं लिया. सार्त्र को कभी नोबेल चाहिए ही नहीं था, इसलिए उन्होंने मिलने से पहले ही इनकार कर दिया था. डिलन को नोबेल हमेशा से चाहिए था. महान गीतों की रचना के बाद भी डिलन को वह साहित्यिक स्वीकृति कभी नहीं मिल पाई थी, जिसके वह आकांक्षी जान पड़ते थे. पचीस साल पहले ही उन्हें नोबेल मिल जाने की संभावना थी, अगर उस समय मिल जाता, तो शायद डिलन ख़ुशी-ख़ुशी उसे लेने पहुंच जाते. उनमें जो उदासीनता भाव आया होगा, वह संभवत: दो कारणों से रहा होगा- एक तो यह कि यह निर्णय लेने में समिति ने ऐतिहासिक विलंब किया है, और दूसरे यह- कि पिछले पचीस बरसों में जब भी उनका नाम उठा, उसका बहुत विरोध व उपहास हुआ. उनकी उदासीनता भी उसी तरह का विरोध है, जिसके लिए उनके गीत जाने जाते हैं.
कहते हैं कि सार्त्र ने नोबेल लेने से तो इनकार कर दिया था, लेकिन दस साल बाद नोबेल समिति से पुरस्कार की राशि मांग ली थी और समिति ने उन्हें देने से इनकार कर दिया था. हालांकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है. सार्त्र उसूलों के इतने पक्के थे कि उन्होंने ऐसी मांग की होगी, यह सोचना थोड़ा असंगत लगता है. दूसरे, नोबेल के दस साल बाद उनकी रॉयल्टी पुरस्कार राशि से कई गुना ज़्यादा हो चुकी थी, सो उन पर कोई आर्थिक संकट भी न रहा होगा. डिलन ने सिर्फ़ देर की, स्वीकार सबकुछ किया. जबकि सार्त्र ने बार-बार इनकार किया था. इतिहास में मात्र सार्त्र ही ऐसे हैं, जिन्होंने नोबेल पुरस्कार को इस तरह ठुकराया. उनसे पहले बोरिस पास्तरनाक ने भी पुरस्कार ठुकरा दिया था, लेकिन अपनी मर्जी से नहीं. 1958 में जब पास्तरनाक को पुरस्कार मिला, तो पहले तो उन्होंने ख़ुशी जताई और उसे स्वीकार कर लिया, लेकिन तत्कालीन सोवियत सरकार ने उन पर दबाव डाला कि वे पुरस्कार को ठुकरा दें और उस देश में बने रहने के लिए पास्तरनाक ने उसे ठुकरा दिया.
ध्यानाकर्षण एक विचित्र किस्म की गंथि है. हद से अधिक कोशिश हो जाए, तो तुरत हास्यास्पद भी हो जाती है. तुर्की के लेखक यासर कमाल का क़िस्सा मुझे हमेशा याद आता है. उन्होंने बरसों नोबेल समिति का ध्यान खींचने की कोशिश की और एक बार तो इतने उत्साहित हो गये कि उन्होंने स्टॉकहोम में समिति के दफ्तर के पास ही एक मकान किराये पर ले लिया और वहां रहने लगे, ताकि वह ज़्यादातर समय समिति के सदस्यों की निगाह में बने रहें.
समिति की निगाह में लेखक बरसों से बने रहते हैं और अभी तक ऐसा कोई गुण स्पष्ट नहीं हो पाया है, जिसके आधार पर पुरस्कार दिया जाता हो. हर पुरस्कार की तरह यह भी निर्णायकों के निजी विवेक पर ही निर्भर करता है, जिसे नैतिक स्तर पर तो प्रश्नांकित किया जा सकता है, लेकिन तकनीकी तौर पर प्रश्नांकित किए जाने का कोई आधार नहीं है.
जैसे केन्या के महान लेखक न्गुगी वा थियोंगो का नाम इस साल भी प्रबल दावेदारों की सूची में है. मान लिया जाये और जैसा कि सबसे अधिक संभावना भी है, उन्हें नोबेल मिल जाता है, तो मन में यह सवाल आएगा कि इतने बरसों तक उन्हें क्यों नहीं दिया गया और इसी साल क्यों दे दिया गया? जैसा सवाल पिछले बरस डिलन को मिलने के बाद आया था. इन सवालों का कोई जवाब ही नहीं होगा, सिवाय इसके कि निर्णायक की मर्ज़ी. वहां न्याय-मंडल काम नहीं करता, निर्णायक-मंडल काम करता है, और ज़रूरी नहीं कि किसी भी मंडल का हर निर्णय, न्याय ही करे.
थियोंगो को पहली बार मैंने 1996 में पढ़ा था. मराठी के अप्रतिम कवि और हमारे मित्र भुजंग मेश्राम ने थियोंगो से हमारा परिचय कराया था. हम यानी कुछ दोस्तों का एक समूह. खुद भुजंग भी थियोंगो को समझ नहीं पाया था, उससे जूझ रहा था. उसकी इस जूझ में हम भी शामिल हो गए थे. किताब थी- ‘डीकोलोनाइजिंग द माइंड’. मुंबई के मेरे दोस्त आज भी याद करते हैं कि कैसे हर दूसरे रोज़ भुजंग और हम इस पर हिंसक बहसें किया करते थे. इस किताब का मूल विचार है- औपनिवेशिक विरासत से ख़ुद को दूर करते हुए अपनी स्थानीय कला-परंपराओं को शिरोधार्य करना. साहित्य के हम जैसे भारतीय विद्यार्थियों ने तुरंत इसमें दिलचस्पी ली. होना यह चाहिए था कि हमारे देश की हर भाषा में इस किताब का अनुवाद होता, इससे प्रेरणा ली जाती, एक संदर्भ-ग्रंथ की तरह इसे सामने रखा जाता, क्योंकि एक देश के रूप में हम सेलेब्रेटेड उपनिवेश रह चुके हैं, हम अपनी गौरवशाली स्थानीय कला और जीवन-परंपराओं पर आदतन शर्मिंदा होते हैं और आज भी अपने पूरे इतिहास को औपनिवेशिक दृष्टि से देखते हैं. हिंदी के लेखकों से इतिहास पर बात कर ली जाए, तो वे आज भी उन्हीं पुराने इतिहासकारों को रेफ़र करते हैं और ख़म ठोंककर कहते हैं कि आर्य नाम की ‘नस्ल’ बाहर से आई थी. यह औपनिवेशिक दृष्टि है. दुनिया का आधुनिक इतिहास इस थ्योरी को ख़ारिज कर चुका है, वह बता चुका है कि आर्य कोई नस्ल ही नहीं थी, लेकिन हम इस दृष्टि को ख़ारिज नहीं कर पा रहे. यह सिर्फ़ एक उदाहरण है, जबकि हमारी आधुनिक कला और साहित्य औपनिवेशिक अवशेषों से गले-गले भरी हुई है.
थियोंगो केन्या से हैं. वह भी उपनिवेश रह चुका है, वही क्या, आधे से ज़्यादा अफ्रीका रह चुका है. यहां हमारी भाषाएं तो बची हुई हैं, वहां के देशों ने तो अपनी भाषाओं को ही लगभग खो दिया था. वहां के अधिकांश लेखकों की तरह थियोंगो ने भी अपनी शुरुआत अंग्रेज़ी लेखन से की थी, लेकिन तीसरे उपन्यास के बाद ही तय कर लिया कि अब वह अंग्रेज़ी में नहीं लिखेंगे, क्योंकि इस भाषा से ही औपनिवेशिक अत्याचारों की दुर्गंध आती है. अपनी संस्कृति के बारे में अंग्रेज़ी में बात करने का अर्थ है- अब भी आक्रांताओं के सामने घुटने टेके रहना. इसके बरक्स उन्होंने स्थानीय भाषा गिकियू चुनी और आगे का अधिकांश लेखन उसमें किया. गिकियू और स्वाहिली में लिखकर भी उन्होंने साहित्यिक श्रेष्ठताओं को प्राप्त किया.
स्थानीयता का संघर्ष दुनिया की विविधता को बचाए रखने का संघर्ष है. वैविध्य में ही सौंदर्य है. जबकि औपनिवेशकता और तानाशाही सबसे पहले स्थानीयता और वैयक्तिकता की ही हत्या करते हैं. ग्लोबल विलेज के इस दौर में स्थानीय सौंदर्य किन चीज़ों से बचाया जा सकता है— यक़ीनन, अपनी भाषा के अधिकतम व्यवहार से, अपने सांस्कृतिक नवोन्मेष से, जो कि स्थानीय भाषा के बल पर ही हो सकता है. पराई भाषाओं में आपके नामों के उच्चारण की ही क्षमता नहीं होती, वह आपकी संस्कृति क्या बचाएगी. आधुनिकता स्थानीय भाषाओं से भी प्राप्त की जा सकती है, उसके लिए यूरोपीय भाषाओं पर निर्भर रहना अनिवार्य नहीं है.
थियोंगो का पूरा साहित्य स्थानीय भाषाओं के आधुनिक प्रयोगों पर बहस करता है. वह एक व्यापक बहस के लेखक हैं. इसलिए भी नोबेल के राडार में हैं. नोबेल ऐसे लेखकों को या तो तुरंत गले लगाता है या फिर उपेक्षित कर देता है. थियोंगो भी बीसेक साल से इस राडार में हैं, नोबेल ने उन्हें तुरंत गले नहीं लगाया, इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि उन्हें हमेशा उपेक्षित ही रखा जाए. लेकिन एक दूसरा मुद्दा भी है. पिछले दो साल से नोबेल ने अपनी निर्णायक समिति में कुछ गुणात्मक बदलाव किए हैं. 2015 का पुरस्कार स्वेतलाना अलेक्सेयेविच को दिया गया, जो साहित्यकार नहीं, बल्कि पत्रकार हैं और उन्होंने फिक्शन में तो बेहद औसत, लेकिन पत्रकारीय नॉन-फिक्शन में अद्वितीय काम किया है. उनका चुनाव नोबेल समिति का पहला, दशकों में पहला, अटपटा निर्णय था. उसके तुरंत बाद 2016 में बॉब डिलन को दिया गया, जो कि बरसों उपेक्षित किए गए थे. संभव है कि वैसा ही निर्णायक मंडल इस साल भी वजूद में हो, और बरसों से उपेक्षित थियोंगो को यह पुरस्कार दे दिया जाए.
मुझे न्गुगी वा थियोंगो का नॉन-फिक्शन बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि वह बेहद बहसाकुल गद्य है. भाषिक व्यवहार, कला-मूल्यों और स्थानीयता के प्रश्नों के संबंध में वह गद्य हमेशा मेरा मार्गदर्शन करता है, मेरी निजी खोजों का मानचित्र बनाने में मदद करता है, लेकिन मैं उनके फिक्शन का बहुत मुरीद नहीं हूं, मातीगारी को पसंद करने के बावजूद. मेरी नज़र में उनका गल्प उन कलात्मक ऊंचाइयों को नहीं छू पाता, जो उपन्यास के लिए बहुत ज़रूरी हैं. लेकिन यह मेरी निजी पसंद है, किसी समिति या किसी दूसरे व्यक्ति को इससे क्या लेना-देना होगा.
उपन्यास में जिस कलात्मक ऊंचाई का मैं बहुत आनंद लेता हूं, वह मुराकामी में है. बेहद है. पिछले दस-पंद्रह बरसों में यह कलात्मक ऊंचाई को उन दो लेखकों में बहुत सुंदरता से दिखाई देती है, एक मुराकामी और दूसरे रोबेर्तो बोलान्यो. दोनों एक-दूसरे से एकदम उलट मिज़ाज के उपन्यासकार हैं. दोनों में पेज-टर्नर्स हैं और दोनों ही अपने पाठक को एक-जैसी दार्शनिक परिणति में पहुंचाते हैं, उसके बाद भी दोनों का तरीक़ा अलग ध्रुवों पर खड़ा होता है. इसीलिए दोनों का अपना कल्ट भी है. ऐसी ही ऊंचाई हाल के बरसों में कार्ल ऊवे केनॉसगोर्द में भी दिखाई देती है, लेकिन केनॉसगोर्द बेहद प्रूस्तियन भी हैं, उनमें एक पुरातन व्यवहार बहुत स्पष्ट दिखाई देता है.
मुराकामी भी बहुत समय से प्रबल दावेदार हैं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताक़त ही नोबेल के संबंध में उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी हो सकती है. वह है उनकी लोकप्रियता. नोबेल समितियों को एक हद से अधिक, लोकप्रिय लेखक नहीं पसंद आते. 1982 में मारकेस की लोकप्रियता 1987 जितनी होती, तो शायद नोबेल पुरस्कार उनसे भी छिटक जाता. यह सिर्फ़ मेरा एक ‘वाइल्ड’ क़यास है, और कुछ नहीं. लेकिन लोकप्रियता नोबेल के रास्ते में अक्सर बाधा की तरह आती रही है, जेम्स जॉयस से लेकर नबोकफ़ तक इसका एक पूरा इतिहास रहा है. मुराकामी आज के समय में नोबेल के निस्संदेह हक़दारों में से एक हैं. ‘वन क्यू एट फोर’ जैसा क्लासिक देने के बाद तो यह संदेह नहीं ही होना चाहिए. मुराकामी को संभवत: नोबेल का अंदाज़ा भी है और इंतज़ार भी, इसीलिए— किसी साहित्यिक कार्यक्रम तक में शिरकत न करने वाले, अपने उपन्यासों व लेखन के अलावा दूसरे मुद्दों पर बोलने से कतराने वाले मुराकामी पिछले पांच-सात बरसों में राजनीतिक-सामाजिक बयान देते नज़र आते हैं. किसी को रुचि हो, तो यरूशलम में दिया गया उनका बेहद सुंदर व्याख्यान खोजकर पढ़ा जा सकता है.
मुराकामी से कहीं ज़्यादा कलात्मकता इज़राइल के लेखक अमोस ओज़ में है, लेकिन वह भी लंबे समय से उपेक्षित हैं और मिलान कुंडेरा की ही तरह उनकी ताज़ा किताबें उनके क़द को बड़ा नहीं कर पातीं.
ताज़ा किताबें बड़ी भूमिका निभाती हैं. कुछेक बार ऐसा हुआ है कि कुछ बड़े लेखकों को उनकी ख़राब ताज़ा किताबों के कारण नोबेल से वंचित रहना पड़ा. उदाहरण से इस तरह समझें कि अगस्त में हुई बैठक में एक लेखक का नाम पुरस्कार के लिए लगभग तय कर लिया गया. सितंबर में उसकी नई किताब आ गई, जिसे पढ़कर उस लेखक के नाम पर एकमत होने वाले निर्णायक निराश हो गए और अगली बैठक में उन्होंने अपना निर्णय बदल लिया. नोबेल समिति अपनी मीटिंग की चर्चाओं को पचास साल तक रहस्य रखती है, संभव है कि पचास साल बाद इन लेखकों के नाम उजागर हों, लेकिन इशारों-इशारों में, बिना नाम लिए, तो ये बातें कही ही जा चुकी हैं.
सीरियाई कवि अदूनिस भी लंबे समय से नोबेल के दावेदारों में हैं. इस साल भी उन्हें पुरस्कार के बेहद नज़दीक माना जा रहा है. यूरोप में एक अरब-लॉबी बहुत सक्रिय है, जो यूरोपीय भाषाओं पर अरबी का गहरा दबाव बनाती है. पहले महमूद दरवेश थे, अब अदूनिस इस लॉबी के फेवरेट हैं. यदि वह प्रभाव काम कर गया, तो अदूनिस को भी मिल सकता है. उनकी श्रेष्ठता पर किसी को संदेह नहीं. यक़ीनन, वह समकालीन विश्व के महानतम कवियों में से हैं.
अमेरिकी लेखक फिलिप रॉथ तो अब लेखन से संन्यास ही ले चुके हैं और शायद नोबेल के दावेदारों की सूची में वह सबसे पुराने दावेदार हैं. रॉथ से प्रेरित कुछ लेखकों को नोबेल मिल चुका है, लेकिन रॉथ को नहीं मिला, क्योंकि यूरोप में रॉथ की श्रेष्ठता उस तरह मान्य नहीं है जैसी अमेरिका में. शायद इसके कुछ सांस्कृतिक कारण भी हैं, क्योंकि लंदन जैसे कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें, तो बाक़ी यूरोप की सांस्कृतिक सोच अब भी अमेरिका से काफ़ी अलग है, और वे रॉथ की स्वच्छंदताओं को उच्छृंखलताएं ही मानते हैं. उनके मुक़ाबले मार्गरेट एटवुड की संभावना कहीं ज़्यादा बलवती नज़र आती है. 2013 में एटवुड की क़रीबी दोस्त एलिस मुनरो को यह पुरस्कार मिला था, तब से ही एटवुड के नाम की चर्चा बढ़ गई थी. पिछले बरसों में उनकी किताबें बेहद चर्चित रही हैं और उनका मास्टरपीस ‘द हैंडमेड्स टेल’ तो जैसे हर साल एक नया पुनर्जीवन प्राप्त कर लेती है. किसी न किसी माध्यम में यह किताब चर्चा में रहती ही है, जैसे उस पर बना टीवी सीरियल. कोरियाई कवि को उन और स्पैनिश लेखक खावियर मारियास भी लगातार इस दौड़ में हैं और ये दोनों मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. और चीनी लेखक यान लियांके, जो अपने राजनीतिक लेखन के कारण पिछले पांच बरसों से ख़ास चर्चा में हैं. उनकी किताब ‘लेनिन्स किसेस’ खोजकर पढ़ी जानी चाहिए.
ये सारे लेखक ऐसे हैं , जो लगातार कई बरसों से चर्चा में हैं, नोबेल दावेदारों में इनका नाम लंबे समय से चल रहा है. लेकिन इस पुरस्कार का स्पष्ट प्रेडिक्शन कोई नहीं कर पाता. इसमें भी इसकी सुंदरता निहित है. इसीलिए संभव है कि नोबेल इन चर्चित नामों को एक बार फिर शर्माकर छोड़ दे, और किसी ऐसे लेखक को पुरस्कार मिल जाए, जिसे उसकी भाषा के बाहर उतना अधिक नहीं जाना जाता या जिसकी लोकप्रियता अनुमान से भी कम हो. जैसे इतालवी उपन्यासकार क्लादियो मागरीस, जिनके पास ‘ब्लेमलेस’ या ‘डैन्यूब’ जैसी कृतियां हैं.
नोबेल किसी को भी मिले, एक पाठक और साहित्य के विद्यार्थी के तौर पर उसे पढ़ा जाना चाहिए. और अगर ऊपर लिखे गए नामों में से किसी को भी न मिले, तो भी इन सभी को पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि नोबेल मिले न मिले, ये सभी हमारे समय की निर्विवाद श्रेष्ठताए हैं.