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संवेदनाओं से परिपूर्ण युवा कवि प्रभात कुमार की कविताएं

प्रभात कुमार युवा कवि हैं, अभी 25 साल के भी नहीं हुए हैं. लेकिन इनकी कविताएं आकर्षित करती हैं. संप्रति हैदराबाद विश्वविद्यालय से मॉस कॉम की पढ़ाई कर रहे हैं. सैनिक स्कूल तिलैया से हाई स्कूल की पढ़ाई कर चुके प्रभात कुमार ने झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की है. मूल रूप […]

प्रभात कुमार युवा कवि हैं, अभी 25 साल के भी नहीं हुए हैं. लेकिन इनकी कविताएं आकर्षित करती हैं. संप्रति हैदराबाद विश्वविद्यालय से मॉस कॉम की पढ़ाई कर रहे हैं. सैनिक स्कूल तिलैया से हाई स्कूल की पढ़ाई कर चुके प्रभात कुमार ने झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की है. मूल रूप से बिहार के रहने वाले प्रभात हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान अधिकार रखते हैं. आज पढ़ें इनकी दो कविताएं जो मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण हैं-

सलेटी चादर
यह सलेटी चादर
जो ओढ़ रखी है
रोज सोते समय
पिता की याद दिलाती है
उन्हें यह थी बेहद पसंद
ख़रीदा था इसे
सोनपुर के प्रसिद्ध मेले से.
ठंढ के समय
देखता उन्हें
बदन में लपेटे हर वक़्त.
जब पहली बार हॉस्टल गया
तब पिता ने मुझे दे दी
बहुत छोटा था
उसे ओढ़ता तो लगता
पापा बगल में सोये हैं
मुझे कुछ नहीं होगा.
मिलता था
एक गहरी सुरक्षा का अहसास.
तब से आज तक
संजो कर रखा है उसे
बड़े ही जतन से.
बड़े होते होते
कुछ और चीज़ें समझ में आयीं
पिता एक ऐसा जीव होता है
जो कभी अपने प्यार को व्यक्त नहीं कर पाता.
कितने दिन बीत गये
एक ही थाली में खाना खाए हुए.
पराठा और भुजिया
पापा का खिलाना
एक एक कौर
धीरे धीरे
और कहना
इतना धीरे- धीरे खाओगे
तो ट्रेन छूट जाएगी
पिता के सफ़ेद होते बाल
और कमजोर पड़ता शरीर
एक भय सा पैदा करता है
सोने जा रहा था
और चादर ओढ़ ली थी
इसीलिए याद आ गए पिता…
एक गांव
वनों से घिरा
झारखंड का एक गांव
भोर का समय
मौसम में ठंडक अभी भी विद्यमान है
चांदनी रात में
रात भर सोईं
इन थकी अलसाई आंखों पर से
चादर हटाता हूं.
सुनाई पड़ता है
दालान पर खड़ी
गौरी गाय का रंभाना
मुर्गियां कुर्र- कुर्र करते दाना चुगने निकल पड़ी हैं.
दिवाकर की प्रथम किरणों का दीदार
कई दिनों बाद हुआ
उठकर टहलने निकलता हूं
इन सघन पर्णपाती वनों में
हरित तृण तरुओं के बीच दिख पड़ते हैं
पलाश और अमलताश
जंगली बेर, कांटेदार फूल
और सालों भर हरे रहने वाले
साल के विशाल वृक्ष
जिनमें सरहुल के वक़्त
नये मंजर आते हैं
रजरप्पा मंदिर में
इन्हीं साल के पत्तों का दोना बनाकर
आदिवासी औरतें
खिलाती हैं पूरी और आलू की सब्ज़ी
आजीविका चलाने को
जंगलों में चलते हुए
याद आती है महाश्वेता देवी की अमर कृति
पलाश के फूल.

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