-रचना प्रियदर्शिनी-
‘जानती है पुत्तर, मुझे तेरे बाऊजी के जाने का दुख कभी हुआ ही नहीं. कभी उनकी कमी भी महसूस नहीं हुई. न ही कभी रोना आया. याद तो आज तक कभी आयी ही नहीं. सच पूछ, तो उनके जाने के बाद मैं पहले से ज्यादा सुखी और खुश हूं. कहने को हमारी शादी हो गयी. बच्चे भी हो गये. हमने सारे काम साथ कर लिये. पूरी जिंदगी एक साथ, एक छत के नीचे गुजार दी. फिर भी प्यार कभी नहीं हुआ मुझे तेरे बाऊजी के साथ.’
मैं ये सारी बातें सुन कर अवाक थी. फेमिनिज्म और स्त्री-विमर्श का पुरजोर समर्थन करने वाली मैं स्त्री का एक नया ही रूप देख रही थी, जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं था. अम्मा की बातों को सुन कर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इन सारे मुद्दों पर एक बार पुन: नये सिरे से सोचने की जरूरत हैं. एक अस्सी वर्षीय घरेलू बुजुर्ग महिला के इस इकबालिया बयान ने मुझे इस विषय पर दुबारा सोचने को मजबूर कर दिया था, ‘क्या हम जिस समाज में रहते हैं वहां एक स्त्री को ऐसी कोई बात कहने का हक है? वह भी उस जमाने में जब स्त्रियों को मात्र घरेलू दायित्वों की पूर्ति और अपने पति के लिए भोग-विलास का साधन के रूप में देखा जाता था.’
अगले कई दिनों तक अम्मा के ये सारे शब्द मेरे दिलो-दिमाग पर छाये रहे. मुझे पल-पल बैचेन करते रहे. मैंने तय कर लिया था कि अम्मा के इन विचारों को शब्दों में पिरोना है. वह कई बार मुझसे कह भी चुकी थीं कि अगर वह पढ़ी-लिखी होती, तो अपनी डायरी या आत्मकथा जरूर लिखतीं. अपने दिल का सारा गुबार निकाल देतीं. दुनिया को बतातीं कि बेमेल विवाह के क्या दुष्परिणाम होते हैं. पर अफसोस कि उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था.
अम्मा…जो कहने को तो मेरे दिल्ली वाले फ्लैट की मकान-मालकिन थीं, पर उनके और मेरे बीच दिल का कुछ ऐसा रिश्ता है कि हम दोनों बिना कहे ही एक-दूसरे की जरूरत और भावनाओं को झट से समझ जाते हैं. रोज ऑफिस से आने के बाद घंटे-दो घंटे उनके साथ ढेरों बातें होती थी. लगे हाथों हम दोनों अपने-अपने घरेलू कामों को भी निपटाते जाते. अम्मा बाकी बुजुर्गों से बिल्कुल अलग हैं. अक्षर ज्ञान में ‘नील बटे सन्नाटा’, लेकिन वैचारिक स्तर पर अपने जमाने की बाकी महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक प्रोग्रेसिव. उनका फेवरेट एक्टर है अमिताभ बच्चन जबकि ड्रीम ब्वॉय है- सीरियल एक्टर राम कपूर. टीवी स्क्रीन पर इनमें से कोई भी नजर आ जाये, तो वह अपनी भूख, प्यास और यहां तक कि बच्चों को भी भूल जातीं. शायद ही ऐसा कोई एक दिन बीतता, जब हमारी बैठकी न जमती हो. जिस दिन उनसे बातें नहीं होतीं, उस दिन कुछ खालीपन सा महसूस होता. यही कारण है कि आज दिल्ली शहर छूट जाने के बाद भी मैं उन्हें नहीं छोड़ पायी हूं. आज भी फोन पर अकसर उनके साथ मेरी लंबी बातें होती हैं.
उनका असली नाम शांति देवी है पर मैं उन्हें प्यार से ‘अम्मा’ कहती हूं. धीरे-धीरे उनके घर के लोगों ने, यहां तक कि मुहल्लेवालों ने भी उन्हें ‘अम्मा’ कह कर बुलाना शुरू कर दिया था. वह मुझसे हमेशा कहतीं- ‘तूने तो मुझे जगत अम्मा बना दिया है री.’ ‘क्यूं अम्मा आपको बुरा लगता है?’, मैं जानबूझ कर मासूसिमयत से पूछती. ‘नहीं बेटे, ऐसी कोई बात नहीं है. तेरा जो दिल करे, तू बुला, मुझे बुरा क्यों लगेगा भला? तू तो मेरी लाडो पोती है.’ उनकी यह बात सुनकर मैं उनके गले में बांहें डाल कर झूल जाती थी.
कई बार वह मुझसे कहती- ‘बेटे, तू इतनी पढ़ी-लिखी है. सुंदर भी है. अच्छा-खासा कमाती भी है, फिर तुझे अब तक कोई पसंद नहीं आया क्या?’ ‘क्या कहूं अम्मा…मुझे तो हर तीसरे दिन कोई-न-कोई पसंद आ जाता है, पर प्रॉब्लम यह है कि यह पसंद किसी एक पर ज्यादा दिन टिकती ही नहीं. कभी किसी की स्मार्टनेस से मुझे प्यार हो जाता है, तो कभी किसी की सादगी से. कभी कोई निठल्ला लेखक पसंद आने लगता है, तो कभी कोई बिजनेसमैन. अब आप ही बताइए कि मैं क्या करूं?’
‘मैंने कब कहा कि तू शादी कर ले. शादी कभी मत करियो पुत्तर. जी का जंजाल है. सिर्फ दोस्ती कर. ऐसे दोस्त बना, जिनसे तू अपने दिल की हर बात कह सके. जो तेरी हंसी के पीछे छिपे दर्द को भी पढ़ सके. जब मेरी शादी हुई थी, तब मुझे शादी का मतलब भी नहीं पता था. अब सोचती हूं तो लगता है कि बचपन कितना आजाद था मेरा. अगर मेरा वश चलता या मैं तेरे जमाने में पैदा हुई होती, तो कभी शादी नहीं करती. गरीबों की सेवा करती. मदर टेरेसा जैसी बनती. शादी करके तो मेरी जिंदगी जैसे नरक बन गयी. मैं अकेली बैठ कर घंटों रोया करती थी कि हाय, ये क्या हो गया. कहां फंस गयी मैं. क्यों हो गयी मेरी शादी?
जब बच्चे हुए, तो यह तक पता नहीं था कि बच्चे हुए कैसे? जब वो मुझे मम्मी कहकर बुलाते, तो बड़ा अजीब लगता था. मैं उन्हें मना करती थी कि मुझे मम्मी न बुलाया करें. मेरे बच्चों को तो आज तक नहीं पता कि उनकी मां पर क्या-क्या बीती है. न उन्होंने कभी पूछा, न ही मैंने कुछ बताया. दिमाग तो मालिक ने बहुत दिया. हुनर भी दिया. सिलाई, कढ़ाई, बुनाई…सब आता था, पर कदर किसी ने नहीं की. इसलिए समझाती हूं बेटा कि शादी कभी मत करियो. मन में बहुत कुछ है, जिसे मैं दुनिया को बताना चाहती हूं, पर पढ़ी-लिखी नहीं हूं न, वरना अपनी आत्म-कथा जरूर लिखती. लोग पढ़ते या नहीं मुझे नहीं पता, पर मेरे दिल का गुबार तो निकल जाता न.’ ये कहते-कहते वह दुखी और गंभीर हो जातीं. तब मैं उन्हें ढ़ाढस बंधाने के लिए बोलती- ‘अच्छा, छोड़िए न अम्मा. मैं कौन-सा शादी करने जा रही हूं. मुझे भी अपनी आजादी बहुत प्यारी है. आप सुनाइए कोई दूसरी बात.’
‘मेरे पास नया कुछ कहां से आयेगा लाडो, सुनाने को? नया तो तेरे पास होगा. तू बाहर निकलती है. मैं तो सारा दिन यही चारपाई पर गुजार देती हूं.’ ‘फिर भी अम्मा आपके पास मुझसे ज्यादा मजेदार कहानियां हैं. आपके बचपन की कहानियां. पाकिस्तान की कहानियां और आपकी जिंदगी की से जुड़ी बाकी तमाम कहानियां. आप बस कहती जाइए. एक दिन मैं आपकी इन सारी कहानियों को लाऊंगी दुनिया के सामने.’ यह सुनते ही उनकी आंखों की पुतलियों की चमक बढ़ जाती थीं. उन्हें छिपाने की नाकाम कोशिश करते हुए वह कहती- ‘चल हट पगली. मेरी कहानी लिखेगी. ऐसा है क्या मेरी जिंदगी में, जो तू लिखेगी? कोई मुझे पहचानता भी नहीं. तू अगर लिख भी देगी, तो कौन पढ़ेगा उस कहानी को?’
‘क्या बात करतीं हैं अम्मा! कोई पढ़ेगा क्यों नहीं? आप देखिएगा, आपकी कहानी बेस्ट सेलर होगी, बेस्ट सेलर.’ इस पर वह बड़े ही भोलेपन से पूछ बैठतीं- ‘वो क्या होता है पुत्तर?’ उनका मतलब ‘बेस्ट सेलर’ से होता था. ‘मतलब जो सबसे ज्यादा बिके’, मैं उन्हें समझाते हुए कहती. यह सुनकर वह खूब खुश हो जातीं और अपनी जिंदगी को फिर से शब्दों में ढालने लगतीं.
‘तू मेरे बचपन की कहानियां सुनना चाहती है पुत्तर, पर क्या सुनाऊं? बचपन को किसी ने बचपन रहने ही कहां दिया. सन् 1952 में पंद्रह साल की उम्र में ही शादी हो गयी. तब कोई समझ तो थी नहीं. केवल बचपना था. हमलोग किसान परिवार से थे. मालिक की मरजी थी, तो शादी हो गयी. तेरे बाऊजी उम्र में मुझसे 17 साल बड़े थे. उस वक्त उनकी तनख्वाह 100-200 रूपये महीना थी. मेरा तो पूरा परिवार भी अनपढ़ था, फिर भी मेरे आदमी से कभी मेरी लड़ाई नहीं हुई. वे दिन-रात कमाने में लगे रहे और मैं घर के कामों में. 50 साल की उमर तक हम दोनों साथ रहे, लेकिन न तो कभी कहीं घूमने गये, न ही साथ में कभी शहर-सिनेमा ही देखा.
हां, साथ मिल कर बच्चे जरूर पैदा कर दिये. वो भी पैदा क्या किये. समझ ले, बस हो गये किसी तरह और फिर समय के साथ धीरे-धीरे बड़े भी हो गये. हमारे बीच तो कभी ज्यादा बात-चीत भी नहीं होती थी, फिर भी हमने निभा दिया. मैंने कभी अपनी कोई तमन्ना, कोई ख्वाहिश अपने आदमी के सामने नहीं रखी. न बाहर जाती थी. न किसी से बात करती थी, पर मुझे इस बात का किसी से कोई गिला-शिकवा भी नहीं. शायद मेरे रब को यही मंजूर था. अब इन्हें गुजरे 20 साल हो गये, फिर भी मुझे कभी इनकी कमी नहीं खली. कभी दुख भी नहीं हुआ जाने का. मैंने सत्संग का रास्ता अपना लिया और पूरी जिंदगी अपने बाबाजी के सहारे गुजार दिया. आज बच्चे इज्जत करते हैं. कमरे के किराये पर चढा रखा है. उस पैसे से मेरा आराम से गुजारा हो जाता है. मुझे कभी किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ी. दो बार हार्ट-अटैक भी आ चुका है अब तक, पर शायद मालिक ने अभी चंद सांसें और लिख रखी हैं, इसलिए जिंदा हूं. खुश हूं.
जब वह अपनी ही रौ में बही चली जा रही होती, तो मैं बस चुपचाप उनको देखती रहती. कितनी गहरी व्यथा छुपी थी उनके भीतर, जिसे सुनने की फुरसत उनके किसी अपने के पास नहीं थी. और एक मैं हूं कि उनकी बातें सुने बिना मुझे नींद ही नहीं आती थीं. वह अकसर कहा करतीं- ‘न जाने तुझसे कौन से जनम का नाता है बेटे, जो तुझे मैं अपनी हर बात कह देती हूं. वैसे तू भी तो आज के जमाने की है फिर भी तुझे कैसे टाइम मिल जाता है मेरी बातें सुनने के लिए?’ मैं कहती- ‘मेरे पास आपकी बातें सुनने का हमेशा टाइम होता है अम्मा. आप इसकी फिकर मत कीजिए और अब अपना समय भी बरबाद मत कीजिए. चलिए जल्दी से आगे बताइए अपनी कहानी.’ मेरी यह बात सुनकर वह खुश हो जातीं और किसी छोटे बच्चे की तरह उत्साह से पुन: कहना शुरू कर देतीं.
‘पाकिस्तान के बंटवारे के समय की उम्र कुछ याद नहीं पुत्तर, बस हल्की-सी कुछ धुंधली यादें बसीं हैं जेहन में. लाहौर से पीछे डेरा समेल खां में मेरा जन्म हुआ था. वहां मुसलमानों ने आग लगा दी थी. मेरे कई रिश्तेदार उसमें जल कर मर गए थे. मेरे पिता वहीं छूट गये. हमें सिर छुपा कर रातों-रात वहां से भाग कर भारत आना पड़ा. मेरा भाई गुरदीप तब आठवीं क्लास में था. मेरी पिता की बड़ी जायदाद थी. सब वहीं छोड़-छाड़ कर आना पड़ा. यहां आकर पहले-पहल हम हस्तिनापुर में रहे. वहां सरकार ने खेती के लिए जमीन दे दी. उसमें मेरा भाई काम करता था. हालांकि, दिल्ली आने से भी कोई खास फरक नहीं पड़ा. वहां सरकार ने खेत दिया था और यहां घर बनाने के लिए जमीन दे दी. रोजगार खुद ही तलाशना था. भाई ने तो अपना बिजनेस जमा लिया पर मेरी जिंदगी नरक बन गयी. यहां आने पर कुछ ही दिनों बाद मेरी शादी हो गयी.’ फिर अचानक से पुरानी यादों के किसी धुंधलके सफर पर निकल पड़ती. कुछ देर के बाद जब मैं उन्हें आवाज देती ‘अम्मा…अम्मा, कहां खो गयीं?’ तब वह वापस से उसी मुद्दे पर आ जातीं.
यूं तो यह रोज-रोज का सिलसिला था. उनका कहना और मेरा सुनना. बीच-बीच मैं उनका मन रखने के लिए अपने ऑफिस की कोई बोरिंग-सी बात सुना दिया करती थीं. एक दिन मैं सुबह-सवेरे इस इसरार के साथ उनके पास पहुंच गयी कि ‘अम्मा, मैं आपकी कहानी, आपकी आत्मकथा लिखना चाहती हूं.’ मेरी अचानक कही गयी इस बात पर उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि सच में उनका सपना हकीकत बन सकता है. भावावेश में वह साफ-साफ कुछ बोल तो नहीं पायीं. पर, गले लगाते हुए मुझे अनगिनत दुआएं जरूर दें डालीं. फिर अचानक से जैसे उन्हें कुछ याद आया तो बोलीं- ‘हाय, पर मैं तुझसे लिखवाऊंगी क्या?’
एक ओर जहां उनकी खुशी का मानो कोई ठिकाना नहीं था, वहीं मेरे जेहन में एक नया स्त्री-विमर्श करवटें ले रहा था. उन्हें इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि उनकी बातें, उनके खयालात स्त्री-विमर्श को एक नयी दिशा प्रदान करनेवाले हैं.
लेखिका पेशे से पत्रकार हैं. इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर किया है. हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिप्लोमा प्राप्त. गत 14 वर्षों से विभिन्न प्रकाशन संस्थानों में नियमित एवं फ्रीलांस कार्य का अनुभव. अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं सोशल मीडिया के लिए लेखन, संपादन एवं अनुवाद कार्य .
संपर्क- r.p.verma8@gmail.com