सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन, जिन्हें हम ‘अज्ञेय’ के रूप में ज्यादा जानते हैं हिंदी साहित्य के एक ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने प्रयोग को बढ़ावा दिया. इनका जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया में हुआ था और निधन 4 अप्रैल, 1987 को हुआ. अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नयी कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. इन्होंने अनेक जापानी हाइकु कविताओं का अनुवाद किया. इन्होंने कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रावृत्तांत और संस्मरण लिखे. उन्हें एक उत्कृष्ट फोटोग्राफर के रूप में भी जाना जाता है. इन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया था. आज अज्ञेय की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी कुछ कविताएं:-
उधार
सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
मैंने धूप से कहा : मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार?
चिड़िया से कहा : थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैंने घास की पत्ती से पूछा : तनिक हरियाली दोगी-
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा : उजास दोगी-
किरण की ओक-भर?
मैंने हवा से माँगा : थोड़ा खुलापन-बस एक प्रश्वास,
लहर से : एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैंने आकाश से माँगी
आँख की झपकी-भर असीमता-उधार।
सब से उधार माँगा, सब ने दिया।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन-
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
गंधवाही मुक्त खुलापन,
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का :
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।
रात के अकेले अंधकार में
सपने से जागा जिसमें
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
मुझ से पूछा था : ‘क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा-
और वह भी सौ-सौ बार गिन के-
जब-जब मैं आऊँगा?’
मैंने कहा : प्यार? उधार?
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
उस अनदेखे अरूप ने कहा : ‘हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं-
यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त अननुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह-व्यथा,
यह अंधकार में जाग कर सहसा पहचानना कि
जो मेरा है वही ममेतर है।
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार- इस एक बार-
मुझे जो चरम आवश्यकता है।’
उसने यह कहा,
पर रात के घुप अंधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ :
अनदेखे अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ :
क्या जाने
यह याचक कौन है!
देखती है दीठ
हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है।
प्रिय-वदन अनुरक्त-यह उस की विजय है।
गेह है, गति, गीत है, लय है, प्रणय है :
सभी कुछ है।
देखती है दीठ-
लता टूटी, कुरमुराता मूल में है सूक्ष्म भय का कीट!
क्षमा की वेला
आह-
भूल मुझ से हुई-मेरा जागता है ज्ञान,
किन्तु यह जो गाँठ है साझी हमारी,
खोल सकता हूँ अकेला कौन से अभिमान के बल पर?
-हाँ, तुम्हारे चेतना-तल पर
तैर आये अगर मेरा ध्यान,
और हो अम्लान (चेतना के सलिल से धुल कर)
तो वही हो क्षमा की वेला-
अनाहत संवेदना ही में तुम्हारी लीन हो परिताप, छूटे शाप,
मुक्ति की बेला-मिटे अन्तर्दाह!
राह बदलती नहीं
राह बदलती नहीं-प्यार ही सहसा मर जाता है,
संगी बुरे नहीं तुम-यदि नि:संग हमारा नाता है
स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली-
जब तक हम मत बुझें सोच कर-‘वह पड़ाव आता है!’
पराजय है याद
भोर बेला–नदी तट की घंटियों का नाद।
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान—
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।
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