-विश्वत सेन-
कहानी सम्राट और आधुनिक हिंदी के प्रवर्तक मुंशी प्रेमचंद का नाम आते ही उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उत्सुकता हर किसी के मन में उत्पन्न होती है. आज 31 जुलाई है मुंशी प्रेमचंद की जयंती. आम तौर तो लोग यह बखूबी जानते हैं कि मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के पास लमही गांव में हुआ था. उनके पिता अजायब राय लमही गांव के डाकघर में बतौर मुंशी काम किया करते थे.
अजायब राय ने अपने बेटे का नाम धनपत राय रखा था, जो बाद में नवाब राय और फिर मुंशी प्रेमचंद बन गये. मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था. ज्यादातर लोग यही समझते हैं कि चूंकि उनके पिता अजायब राय डाकघर में मुंशी का काम किया करते थे, इसलिए प्रेमचंद के नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द जुड़ गया होगा, लेकिन इसके पीछे भी एक रहस्यमय रोचक कहानी है.
हिंदी साहित्य के उपन्यास सम्राट और आधुनिक कहानियों के पितामह मुंशी प्रेमचंद का पूरा जीवन ही रहस्यमय रहा है. चाहे उनका बाल्यकाल रहा हो या फिर साहित्यिक काल. धनपत राय से नवाब राय, फिर नवाब राय से प्रेमचंद और प्रेमचंद से ‘मुंशी’ प्रेमचंद तक के सफर में भी गहरा रहस्य है.
यदि आप उपन्यास या कहानी सम्राट का नाम ले रहे हों और उसके आगे मुंशी नहीं लगाया, तो उनके नाम का उच्चारण ही बेमानी सा लगता है. आज प्रेमचंद के नाम का पर्याय ‘मुंशी’ है. ‘मुंशी’ उपनाम के बिना प्रेमचंद का नाम अधूरा लगता है, मगर हर किसी को इस बात का पता नहीं है कि प्रेमचंद, मुंशी प्रेमचंद कैसे बनें? क्या आप जानते हैं? यदि नहीं, तो हम आपको बताते हैं. उनके नाम के साथ मुंशी का उपनाम जुड़ने की कहानी भी अजीब है.
14 साल की उम्र में सिर से हट गया पिता का साया
प्रेमचंद का बचपन काफी कष्ट में बीता था. महज सात साल की उम्र में ही इनकी माता आनंदी देवी का देहांत हो गया. इसके बाद इनके पिता का तबादला गोरखपुर हो गया, जहां उन्होंने दूसरी शादी कर ली. बालक धनपतराय श्रीवास्तव को अपनी सौतेली मां से उतना प्यार नहीं मिला. अभी वे किशोर ही थे कि 14 साल की उम्र में उनके पिता अजायब राय का भी देहांत हो गया. किशोरावस्था में ही पिता के निधन के बाद मानों उनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा.
शिवरानी देवी से करनी पड़ी थी दूसरी शादी
अभी वे अपने पिता के देहांत के दुख को भुला भी नहीं पाये थे कि 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गयी. हालांकि, उनकी यह शादी सफल नहीं हो पायी और उन्होंने शिवरानी देवी से दूसरी शादी की. हालांकि, कहा यह जाता है कि वे आर्य समाज के प्रभाव में आकर उन्होंने विधवा विवाह का न केवल समर्थन किया, बल्कि शादी भी की. दूसरी शादी शिवरानी देवी से करने के बाद उनकी तीन संतानें हुईं. कहा जाता है कि चूंकि, प्रेमचंद आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती के विचारों से काफी प्रभावित थे, इसलिए वे आर्य समाज से काफी हद तक जुड़े थे. उस समय दयानंद सरस्वती ने विधवा विवाह को लेकर आंदोलन चलाया हुआ था. प्रेमचंद उनके इस मुहिम को सफल बनाने के लिए 1906 में बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया था. उनके सबसे बड़े बेटे का नाम श्रीपत राय, था, जबकि दूसरे बेटे का अमृत राय और बेटी का नाम कमला देवी था.
अध्यापक और डिप्टी सब-इंस्पेक्टर तक का सफर
हिन्दी साहित्य के पितामह प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन जिन ऊंचाइयों तक पहुंचा हुआ था, उनका निजी जीवन उससे कहीं अधिक दुखदायी और संघर्षमय था. उनकी शिक्षा की शुरुआत उर्दू-फारसी से हुई, जबकि जीवन की शुरुआत अध्यापन कार्य से. 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे गोरखपुर के एक विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गये. नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और 1910 में इंटर पास किया. 1919 में स्नातक पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त किये गये.
गांधी जी के आह्वान पर छोड़ दी सरकारी नौकरी
बचपन से ही वकील बनने की चाहत रखने वाले प्रेमचंद कभी भी अपनी गरीबी के कारण अपनी साहित्यिक रूचि को नहीं छोड़ा बल्कि उनका साहित्य के प्रति समर्पण बढ़ता गया. अंग्रेजों के अत्याचार से उस समय पूरा देश दुखी था और गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी भी छोड़ दी और 1930 में बनारस शहर से अपनी मासिक पत्रिका ‘हंसद की शुरुआत की.
मुंबई में सिनेटोन कंपनी के लिए लिखते थे कहानी
इसके बाद 1934 में वे मुंबई चले गये, जहां पर उन्होंने फिल्म ‘मजदूर’ के लिए कहानी लिखी. यह कहानी 1934 में भारतीय सिनेमा में प्रदर्शित हुआ, लेकिन प्रेमचंद को मुंबई की शहरी जीवन पसंद नहीं आ रहा था, जिसके चलते वे सिनेटोन कंपनी से लेखक के रूप में नाता तोड़कर वापस अपने शहर बनारस को लौट आये. जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े. उनका उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को उनका निधन हो गया.
नवाब राय के नाम से लिखते थे उर्दू में कहानियां और उपन्यास
31 जुलाई, 1880 को जन्मे प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था. इन्हें नवाबराय के नाम से भी जाना जाता है. इसका कारण यह है कि उन्हें बचपन से ही लिखने-पढ़ने का शौक था. उनका यह शौक तब और परवान चढ़ गया, जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने नवाबराय के नाम से उर्दू में कहानियां और उपन्यास लिखना आरंभ कर दिया.
सोजे-वतन के प्रकाशन के बाद नवाब राय के लिखने पर लग गया प्रतिबंध
पिता के धनपतराय और उर्दू के नवाब राय के लिखने-पढ़ने के शौक ने धीरे-धीरे तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत की नजर में लाने का काम कर दिया. 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया. सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गयी. कलक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे. यदि लिखा, तो जेल भेज दिया जायेगा. अंग्रेजी हुकूमत द्वारा उनके लिखने पर रोक लगा दी गयी. इसके बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा.
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने पहली बार उपन्यास सम्राट से किया था संबोधित
सोजे-वतन के प्रकाशन के बाद तत्कालीन उपन्यासकारों में उनकी ख्याति हो गयी. इस उर्दू उपन्यास के प्रकाशन के बाद ही बंग्ला साहित्य के उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने पहली बार ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से संबोधित किया.
दयाराम निगम की सलाह पर बन गये प्रेमचंद
सोजे-वतन के प्रकाशन के बाद नवाबराय के नाम प्रतिबंध लगने के बाद वे धनपत राय के नाम से लिखते थे. उस समय ‘जमाना’ पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम थे. उन्होंने उन्हें धनपत राय के बदले प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दी. उनकी यह सलाह धनपतराय को पसंद आ गयी और उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू कर दिया.
रोचक और रहस्यमयी है ‘प्रेमचंद’ के साथ ‘मुंशी’ उपनाम जुड़ने की कहानी
दरअसल, प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी उपनाम कब और कैसे जुड़ गया, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है. साहित्य से जुड़े कुछ और खासकर उन लोगों को पता है, जिन्हें ‘हंस’ और ‘सरस्वती’ से वास्ता है. अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि शुरुआत में प्रेमचंद अध्यापक थे. उनके जमाने में अध्यापकों को ‘मुंशीजी’ कहा जाता था.
…तो क्या कायस्थों में ‘मुंशी’ उपनाम लगाने की परंपरा ने बदला नाम
इसके अलावा, कायस्थों के नाम के पहले सम्मानस्वरूप ‘मुंशी’ शब्द लगाने की परंपरा रही थी. तीसरी बात यह भी है कि पूंजीपतियों के यहां बही-खाते का हिसाब-किताब रखने वालों को भी ‘मुंशीजी’ कहा जाता है. इसीलिए अधिकांश व्यक्ति मुंशी के इन्हीं रूपों को प्रेमचंद के साथ जोड़कर देखते हैं. वे समझते हैं कि शायद इन्हीं कारणों से प्रेमचंद के साथ जुड़कर ‘मुंशी’ रूढ़ हो गया, मगर उनके इस नाम के पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है.
प्रेमचंद अपने नाम के आगे नहीं करते थे ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग
प्रोफेसर शुकदेव सिंह के मुताबिक, प्रेमचंद कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग खुद नहीं करते थे. वह कयास लगाते हैं कि यह उपनाम सम्मान सूचक है. इसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने भी लगा दिया होगा. उनका यह कथन अनुमान पर आधृत है. प्रेमचंद को जानने वाले भी यह बताते हैं कि उन्होंने कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. अपनी कहानियों में उन्होंने हमेशा प्रेमचंद ही लिखा.
छापाखाने की एक त्रुटि ने प्रेमचंद को बनाया ‘मुंशी प्रेमचंद’
साहित्यकारों और प्रेमचंद के जानकारों का मानना है कि वास्तविक और प्रामाणिक तथ्य यह है कि प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी ‘हंस’ नामक समाचार पत्र में एक साथ काम करते थे. इसके संपादक और सह-संपादक के रूप में प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी साथ-साथ काम करते थे. कभी-कभी इस पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी का लेख एक साथ छपता था और एक ही लेख में दोनों का नाम भी छापा जाता था.
प्रेमचंद के नाम के आगे कन्हैया लाल मुंशी का नाम लिखा जाता था. कभी-कभी कन्हैया लाल मुंशी का पूरा नाम न छापकर सिर्फ ‘मुंशी’ लिखा जाता था और फिर उसके पीछे कॉमा लगाकर प्रेमचंद का नाम (मुंशी, प्रेमचंद) छपता था. यह नाम कुछ इस तरह ‘मुंशी, प्रेमचंद’ के रूप में छपता था. इस प्रकार के नाम हंस की पुरानी प्रतियों पर अब भी देखा जा सकता है. कई बार छपाई के दौरान कन्हैया लाल मुंशी के नाम ‘मुंशी’ के बाद कॉमा नहीं लग पाता था और वह ‘मुंशी प्रेमचंद’ के रूप में छप जाता था. बाद में पाठकों ने कन्हैया लाल मुंशी के ‘मुंशी’ और प्रेमचंद को एक समझ लिया और इस प्रकार प्रेमचंद ‘मुंशी प्रेमचंद’ बन गये. छापाखाने की इसी तकनीकी गलती के कारण प्रेमचंद का नाम मुंशी के बिना अधूरा लगता है.