…बाबूजी ! …बाबूजी ! नन्हे हरिश्चंद्र का रुनझुन तुतला स्वर ! बजता-सा. आभूषणों के महीन घुंघरुओं की तरह मद्धिम, पर चरम मधुरतम. भिन्न झंकार से झंकृत. कानों में यह, अमृत-बूंदों की तरह औचक सावेग पड़ा. संपूर्ण अंतर्ब्रह्मांड जैसे रंग गया हो, नव्यतम ध्वन्यालोक से. आद्योपांत. सृजन-एकाग्रता पल-भर में हवा हो गई. भित्ति पर विराजती बांकेबिहारी महाप्रभु की छवि के सामने बैठे बाबू गोपाल चंद्र भौंचक हैं. चमकता अ-केश शीश. व्रज-तिलक से सजा विशाल भाल. धोती से मेल खाता, दाईं कांख को नीचे से छूता हुआ बाएं कंधे के ऊपर पहुंच तन को समेटे लिपटा श्वेत कोमल दुशाला. गोपालचंद्र अर्थात् कवि गिरिधर दास को यह विश्वास ही नहीं हो पा रहा कि उनकी काव्य-सन्नद्धता बीच में औचक भंग हो गई है. मन में प्रश्न बार-बार, ऐसा कैसे!
मुनीमी मेज पर झुका अपना मुखमंडल उन्होंने ऊपर उठाया. बालक को सामने से किलकता आता देख मन मृदंग हो उठा है. स्वयं पर अब और चकित हैं वह. पुत्र की किलकारियों का सुख जितना मुग्ध कर रहा, उससे अधिक ध्यान खींच रहा है. बालक की मुद्राओं ने पहले कितनी ही बार कितना-कितना आनंदित न किया होगा ! निस्संदेह इतनी बार और इतना कि अब हिसाब लगाना संभव नहीं, लेकिन आत्मानंद की ऐसी उत्फुल्ल अवस्था मस्तिष्क में कब बनी ! इससे कभी कोई गहन क्रिया ऐसे प्रभावित भी तो नहीं हुई! क्या यही वह किलक-सुख है, जो काव्यानंद से भी प्रगाढ़ है!
अपने ही मन-विचरण पर मौन पर्यवेक्षण-दृष्टि स्वमेव केंद्रित हो गई है. यह, सर्जनाधीन ‘बलराम कथामृत’ के इन सृजन-क्षणों का कोई प्रत्युत्पन्न प्रभाव तो नहीं! दशा असाधारण है. पुरखों के इस पुर में, काशी में ही हर पल गोकुल-मथुरामय बीत रहा है! व्रज-वितानों से स्पंदित. वृंदावन-पवन सघनित. द्वारिका-मन मंडित.
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त्वरित आत्मप्रश्न उठा, उपस्थित यह विशिष्ट अनुभूति, कवि पर आच्छादित अतिशय एकांत जाग्रत पलों की भाव-प्रच्छाया तो नहीं !
…मनष्क्रिया को रोकती एक आवेगपूर्ण दृश्यानुभूति पुन: सामने आ गई. ‘…नाक की छोटी-सी नोंक, पतले होंठ और नन्ही ठुड्ढी पर लिपटा हिम-सा चमकता मक्खन. माथे पर हिलता, बंधे केशों में खुंसा मोरपंख. शीश, गले, कमर, कलाइयों और पांवों में सजे छोटे-छोटे विवर्णी पुष्पाभूषण. …निकट आ रहे हरिश्चंद्र के बाल-रूप में क्या-क्या समाहित दिखने लगा है ! अरे, यह सब है क्या !…’ गिरिधर दास व्यग्र हो उठे हैं. आश्चर्य या प्रसन्नता, कौन है इस असहजता का स्रोत ! कुछ सूझे, तब तो जिज्ञासा को मिले अवलंब!
चेतना ने मनन-विश्लेषण कर अविलंब निष्कर्ष दिया- ‘…संतति-सुख की विशिष्ट अनुभूति का प्रज्ज्वलित क्षण-विशेष है यह. दृश्यविशिष्ट-ध्वनिमाधुर्य से अकस्मात् उद्भूत….’
इधर, हृदय का अपना ही दावा- ‘…हो न हो यह, किसी संभावित अति विशिष्ट आगामी उपलब्धि का पूर्वसंकेत हो ! पूर्वपीठिका, पूर्वाभास !…’
स्व अब द्विधार है. दो लगभग विरोधाभासी स्वरों में विभाजित. गिरिधर दास भारी दुविधा में फंस गए हैं. अपने ही अंतर में स्वर-भिन्नता! सुनें तो किसकी ? अनुभूति की, या चिंतन की?
पुत्र अब अंक में है. ऐसे कितनी ही बार आया होगा, लेकिन यह अनुभव एकदम नया. सबसे अलग. आज तो जैसे साक्षात् हरि-मुख की निकटता सौभाग्य बन गई हो ! एक असंभव सत्य, इतना सन्निकट! …रोम-रोम भावभूषित-भावभाषित. यह भी समझ तो आए, यह सुख तत्वश: है क्या ! … दृष्टिगत अलौकिक हरि-दर्शन अथवा हस्तगत निज सृष्टि का साकार आनंद! स्वकुल के आकार लेते भविष्याधार को तकने-निरखने की इस उपलब्धि की उपमा कहां संभव है ! संसार का सबसे बड़ा सुख है यह !
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ऐसा भी कहीं होता है ! गिरिधर दास आगे और चक्कर में पड़े. घोर आश्चर्य ! ऐसा संभव कैसे हो रहा कि बिना आरसी मैं स्वयं को देख पा रहा हूं, आपादमस्तक! एकदम प्रत्यक्ष. आंखों के सामने अपना मुखमंडल झलकने लगा है! आत्मिक उत्फुल्लता की खेलतीं समग्र रंग-रेखाओं के साथ. जैसे, सृष्टि का प्रथम दैनिक सौभाग्य-परिदृश्य साकार प्रस्तुत हो रहा हो, प्राची का अरुणिम प्रकाश-पुष्पन! लगा, पुत्र की यह कोमल किलकारी तो बहुआयामी प्रभावोत्पादक है.
पिता को अपने ही कवि-व्यक्तित्व ने नई दृष्टियों से समृद्ध कर दिया है. नव्य काव्य-उपादान दे, अनुभूति-विवेक से भरकर. उनमें विस्तृति देते हुए . किस कवि को यह सुख मिला होगा, स्वयं को संपूर्ण देख पाने का! पुत्र के बाल-मुख में हो रहे हैं परमपिता-श्रीमुख के दर्शन.
गिरिधर दास अनुभूति-विह्वल हो रहे हैं. यह पल तो काव्य-सन्नद्धता से अधिक सघन और सुष्ठु है! आत्मा जैसे आलाप ले रही हो. मुंह बाधा बनने को तैयार नहीं, मौन-मर्यादा में डटा हुआ है!
बांधे जाने पर नदी तो कसमसाएगी ! पुष्प अपनी डाल पर ही उन्मुक्त बिहंस पाएगा ! मन में क्या-क्या विचार उठने लगे ! उन्होंने गोद में कसमसाते हरिश्चंद्र को बगल में सस्नेह बिठा दिया. बालक तो बालक ही, वह नन्हे हाथ से मेज और लेखनी-दावात छूने लगा. कहीं स्याही न छलक पड़े, दावात न उलट जाए! शंकित-चिंतित होते उन्होंने नन्हा हाथ पकड़ अपनी ओर समेट लिया. दुलारने लगे. बालक ने मेज की ओर दूसरा हाथ बढ़ा दिया. वह अब पन्ने खींचने लगा, ‘’…बाबूजी, क्या लिख रहे हैं आप ? ‘’
उन्होंने बैठे-बैठे हरिश्चंद्र को गोद में पुन: खींच लिया. आत्मज का मुखमंडल फिर-फिर निरखने और मुदित होने लगे. पितृ-मन ने कहा, ‘’…वही लड्डू गोपाल मुखड़ा …वही अलौकिक श्यामसुंदर सौंदर्य …वही चंचल-पुलकित मदनमोहन छवि …सचमुच स्वयं लीला-पुरुषोत्तम पधारे हैं, अपने इस अकिंचन भक्त के अंगने! …संसार को यह प्राप्ति मेरी झोली में दिख रही होगी, पर इसमें मेरा क्या! …यह तो गिरिधर महाप्रभु का प्रताप-प्रसाद है …अनमोल सौभाग्य-सुख !…’’.
भावविभोर हैं भक्तकवि गिरिधर दास. कृतज्ञ दृष्टि उठ गई है. ऊपर, सर्वोच्च को लक्षित. सश्रद्ध संबोधित. हरिश्चंद्र की बाल-लीला को देखने का सुख कैसे छोड़ें. मन ने कहा, अब तो गोष्ठी का भी समय होने को आया …इसलिए आज लेखन-कार्य की इति यहीं ! …लोगों के जुमने से पहले कुछ पुत्र-संवाद ही हो जाए. उन्होंने ठुड्ढी छू बालमुख निहारा, ’’…पुत्र हरिश्चंद्र …ठीक से खेल रहे हो न उधर ? ’’
‘’…मुझे भगाएंगे क्या, यहां से ! खेलकर तो मैं वहां से आ चुका हूं ! …’’
’’…नहीं, बेटा ! …भगाएंगे कैसे अपने लाल को ! …वैसे, तुम तो सब कुछ समझते हो …अभी मेरे लेखन-पठन का समय रहता है न ! …’’
’’…मेरे खेलने का समय तो हर पल है, स्थान भी प्रत्येक…’’ बालक ने जैसे बुझव्वल का उत्तर दिया हो.
‘’…बिल्कुल सत्य ! …’’ गिरिधर दास भाव-विभोर होकर बोल पड़े. पुत्र के कथन ने पलक झपकते ही जैसे काव्य-भूमि मे पहुंचा दिया हो. आगे बोले, ‘’…राजा से लेकर रंक तक, हर कोई समय का दास है … सभी बंधे हुए हैं… सारा संसार बंधन में पड़ा हुआ है, सिर्फ एक अवस्था, यही बचपन है जो निर्बंध है… ‘’
‘’…बाबूजी, आप लिखिए …मैं चुपचाप देखूंगा ! …’’
‘’…भाव-क्रम टूट गया तो टूट गया ! …’’, गिरिधर दास बोल गए तो लगा कि यह वाक्य पूरा सत्य व्यक्त नहीं कर पा रहा. भाव जो टूटा, उससे तो असंख्य गुणा बड़ा है वह प्रभाव जो उसके समानांतर अर्जित हुआ है. उन्होंने आगे संभाला, ‘’… इससे कोई क्षति नहीं, टूटा क्रम आगे जुट जाएगा, यथासमय यथाप्रयास… तुमसे संवाद-सुख ने आगत-अनागत ऐसी कितनी ही क्षतियों की पूर्ति कर दी है… अनगिनत की… त्वरित भी और अनेक अग्रिम भी… वैसे भी अब सभा का समय हो चला है …लोग आने ही वाले हैं ! …’’
‘’…बाबूजी, आपने बताया नहीं ! …’’
’’…आप लिख क्या रहे आजकल ? …’’
’’…आजकल ? क्या लिख रहा हूं ? …’’
’’…हां … यही तो दो बार पूछा मैंने आपसे …आपने बताया नहीं अब तक …मैं भूलने वाला नहीं…‘’
बालक हरिश्चंद्र की गंभीर प्रश्नमुद्रा देख गिरिधर दास चकित हैं. वे समझ नहीं पा रहे, कहें क्या और करें क्या. यह तो बालक है, इसका ध्यान लेखन-कार्य पर कैसे टिका रहता है. खेलता तो उधर है. क्या वहां से ध्यान यहीं लगाए रहता है!
’’…हम भी यहां ऐसे ही नहीं आए हैं !…’’ , हरिश्चंद्र ने पिता को असमंजस में देख विनोद-स्वर निकाला.
‘’…तो ? …’’, गिरिधर दास अचकचाए. जैसे, सोए से जगे हों. आंखों में स्नेह भरकर ताका.
‘’…खेलने-कूदने यहां थोड़ी न आए हैं हम ! …’’
’’…तो ! ….किसलिए आए हो… बताओ तो ! …’’
’’…कविता लिखने आए हैं… हम भी पद बनाएंगे !… ’’
’’…तुम ! … कविता लिखोगे ? …’’
’’…क्यों नहीं ! …कविचूड़ामणि का पुत्र जो हूं !…’’
’’…अवश्य ! … ‘’
’’…मुझे बताइए, बाबूजी …अभी आप क्या लिख रहे हैं ?…’’
‘’…’बलराम-कथामृत’ ! …’’
‘’…अच्छा ! …’’
‘’…बलराम जी दाऊ थे न ! …भगवान श्रीकृष्ण के भैया ! … दोनों में बहुत प्रगाढ़ प्रेम था. ऐसा कि एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे. यह भ्रातृत्व-छवि भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जैसी भी लगती है. है भी. ‘’, बोलते हुए गिरिधर दास का भक्त-पक्ष मुखर हो उठा है. मुंह शब्द ऐसे उच्चरित कर रहे हैं, जैसे अर्पित कर रहे हों सिद्ध सुवासित मंत्र-पुष्प. खुलती-मूंदती आंखें विशेष सक्रिय. कथावाचक-भंगिमाओं में उठते-गिरते हाथ और पंजे. स्वर और अंग-अंग जैसे छंदों में ढले हुए हों. रागों से रंजित, लयबद्ध. भावों की सजीव अभिव्यक्ति साकार हो उठी.
बालक भावों में डूब-सा गया है. लेकिन, निष्चेष्ट बहता हुआ नहीं, जैसे धारा-वेग के समानांतर तैर रहा हो वह. सर्वथा सजग और उद्यमरत. गिरधरदास बोलते चले जा रहे हैं, ‘’… विष्णु के अवतार त्रेता युग में मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम हुए हैं, जबकि द्वापर में लीला-पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण. शेषनाग के अवतार इधर लक्ष्मण, उधर बलदाऊ. अंतर एक यह कि रामावतार में शेषनाग अनुज-रूप में प्रभु के साथ हैं जबकि कृष्णावतार में अग्रज बने. दोनों भ्राता-जोड़ी विशिष्ट है! कोई किसी से उन्नीस नहीं. व्यवहार के स्तर पर बलदाऊ अत्यंत विनोदी हैं. विपरीत परिस्थितियों में भी मनोसुख के सूत्र खोज निकालने की क्षमता रखने वाले. प्रबल बौद्धिक समृद्ध. रोते को भी हंसा देने वाले दाऊ. इधर, लक्ष्मण जी का क्रोध-भाव प्रबल था. श्रीराम-कथा में शेषनाग के रंग उनमें कई बार झलक पड़े हैं. उन्हें प्रभु श्रीराम कभी-कभी अपने मर्यादित विनोद से हंसाते हैं. वैसे, क्रोध बलदाऊ का भी कम प्रबल नहीं है लेकिन विनोद-भाव उन्हें प्राय: शीतल किए चलता है. इसीलिए बलराम व्यवहार में अनुज से अधिक खुलते हैं…’’
’’…जी …बाबू जी…’’
’’… इसीलिए मैंने प्रभु जी के लिए इस ग्रंथ में एक नई संज्ञा निवेदित की है ‘बलबंधु’. …अर्थात् बलराम के बंधु …’’
’’…बहुत अच्छा, बाबूजी !… इसमें अभी क्या चल रहा है ! ..लिख क्या रहे !…’’
’’…ओह, अब समझा …तुम संभवत: यह जानना चाह रहे हो कि इस ग्रंथ के सृजन-क्रम में अभी किस प्रसंग का लेखन हो रहा है… है न!… ’’
‘’…और नहीं तो क्या ! वही तो कब से पूछ रहा हूं ! …’’
गिरिधर दास मेज की ओर उन्मुख हुए. लाल कपड़े की जिल्द वाली पंजी को उठाने लगे. उनका श्रद्धासिक्त मुखमंडल प्रदीप्त हो उठा है. सर्जक-सन्न्द्धता मस्तक पर भास्वर! ज्योतित त्रिपुंड की तरह. पन्ने अत्यंत कोमलता से खोल-पलट रहे हैं वे. ऐसे, जैसे पंखुड़ी दल खोल रहे हों. दृश्य ऐसा कि द्रष्टा झलक-भर से जुड़ा जाए. पलकें ठिठक-ठिठक जाएं. आंखें निरखती रहना चाहें. निर्निमेष ! उत्सुकता रंच-मात्र भी कम पड़ने का नाम न ले.
वे एक-एककर आधी पंजी के पन्ने पार कर गए. पूरी तल्लीनता के साथ. मुखमंडल खिल उठा तो व्यक्त हुआ कि प्राप्य नव सृजित पृष्ठ उनके समक्ष आ चुका है. वे अंकित अक्षरों पर दृष्टि निवेदित करने लगे तो कवि-भावनिष्ठा के दर्शन होने लगे. मधुर स्वर फूटा, ‘’…अभी मैं बाणासुर-बध प्रसंग का चित्रण कर रहा हूं… ‘’
‘’…बाबू, मैं इसमें एक दोहा जोड़ना चाहता हूं ! …’’
‘’…तुम ! …दोहा लिखोगे ? …’’
‘’…हां, बाबूजी …आपके ही समक्ष तुरंत …अभी यहीं…’’
गिरिधर दास ने कागज पर अपनी लेखनी सतर्क कर ली है. हरिश्चंद्र ने नन्हे हाथ ऊपर उठा लिए और वीर-मुद्रा रच डाली. आंखें मूंद ली. बाल-कंठ से युद्धक स्वर गूंज उठा- ‘‘…’ ले ब्योंड़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान …वानासुर की सैन को हनन लगे भगवान ‘…’’
आत्मज के भावपूर्ण उच्चरित, आशु-सृजित पद ने वातावरण को, जैसे अपने ही रंग में रंग डाला हो. लेखनी-मुख ही नहीं, गिरिधरदास का मुंह भी खुला का खुला रह गया ! ऐसाकि वे औचक आश्चर्य, असीमित हर्ष और संतति-उपलब्धि-बोध से जैसे भावोद्वेलित हो उठे. भावातिरेक की दशा ! जैसे, स्वयं पर से छूट गया हो उनका नियंत्रण. या, किसी बावली आंधी ने विपरीत क्रिया की हो. उधियाकर कहीं दूर नहीं फेंका, बल्कि खींच कर अपने केंद्र पर ला पटका हो. जैसी गतिपूर्ण जिज्ञासा, वैसी ही सावेग शब्दश: संतृप्ति. वे अब सुधबुध खोने-से लगे.
पुत्र में ऐसी उत्कट काव्य-सृजन-प्रतिभा ! वह भी इस बाल्य अवस्था में. गिरिधरदास आनंद-विकल हो उठे हैं. लगभग असहज. वे स्वयं नहीं समझ पा रहे कि उत्पन्न प्रसन्नता बड़ी है, या आश्चर्य ! सुख गुरुत्वपूर्ण, या गर्व-बोध !
गिरिधर दास ने पुत्र को गले से लगा लिया है. भावों से भरा स्वर भर्राया-सा, ‘’…बेटा, हरिश्चंद्र! …तू हमारे नाम को बढ़ावैगा! ‘’. भावपूर्ण दृश्य. उन्होंगे सिर ऊपर किया. जैसे, छत में ही आसमान और गगन में परमलोक के दर्शन होने लगे हों. उन्होंने भावार्द्र स्वर में पूर्वजों का आह्वान किया, ‘’…कहां हैं हमारे पूज्य पुरखे …आएं, देखें कि उनके वशंज इस लाल ने कैसे उनके देश का भी मुख उज्ज्वल किया है….’’
‘’…बाबूजी, आपने लेखनी खोल रखी थी, लेकिन मेरे पद को तो लिखा ही नहीं …’’, हरिश्चंद्र ने ध्यान खींचा, ‘’…बाद में भूल जाएंगे तो ! …’’
‘’…बेटा, जो आत्मा के पृष्ठ पर अंकित होने लगा था, उसे कागज पर कैसे खींच लाता ! और, क्यों! …’’, गिरिधरदास ने पुत्र का मस्तक सहलाया, ‘’…हृदयांकित उस नव काव्यांश को हम भला भूलेंगे कैसे, जिसकी मेरे नन्हे बच्चे ने कंठ-नाद से मेरे सामने आशु रचना की है ! ‘’
हरिश्चंद्र ने मुस्कुराकर पंजी पर दृष्टि दौड़ाई. गिरिधर दास ने लेखनी उठा ली है. वे पंजी पर लिखने लगे हैं. विरल दृश्य है. स्वशब्द पुनरावृत्त होने लगे हरिश्चंद्र के मन में. कागज पर इसे अंकित कर रही है गिरिधर दास की लेखनी, ‘’…’ ले ब्योंड़ा ठाढ़े भए… ‘…’’
सीढ़ियों पर पदचाप हुई. देखते ही देखते रचनाकार-समूह ऊपर आ गया. धूप-अगरु-चंदन की धूम्र-सुगंध से महमह करते दीवानखाने के दरवाजे पर. आगंतुक अभिवादन करते भीतर आने लगे. वे एक-एक कर बांकेबिहारी महाप्रभु की भित्ति-सुशोभित छवि के समक्ष पहुंचने और शीश प्रणत कर गद्दे पर यथास्थान बैठने लगे. गिरिधर दास और बालक हरिश्चंद्र उन्हें ताकने लगे. सरदार कवि, बाबा दीनदयाल गिरि, पंडित ईश्वरदत्त ‘ईश्वर’, पंडित लक्ष्मीशंकर व्यास, कन्हैयालाल लेखक, माधोराम गौड़, गुलाबराय नागर और बालकृष्ण दास टकसाली! गोष्ठी सज गई.
सरदार कवि विनत भाव से बाबू साहब के निकट आए. बालक का मुख देख विभोर हो उठे, ‘’…सच है …सृष्टि में ईश्वर की साकार उपस्थिति इसी अरुण हरि-स्वरूप में संभव हो रही है…’’
विश्वेश्वर शर्मा मिश्र ‘ईश्वर’ ने प्रवेश पाया तो ईश्वरदत्त ‘ईश्वर’ ने टिप्पणी की, ‘’…आवा गुरु …सुना ! कब्बो-कब्बो समय के मोल बुझल कइली …एहमन कौनो बदनामी नाय हौ……’’
मुस्कान की एक शीतल जल-तरंग चेहरों पर आई-गई. गिरिधरदास बालक के शीश पर हाथ फेरते हुए संवाद में उन्मुख हो गए. उन्होंने जोड़ा, ‘’… तूलोग काल के भी संकट में डाले के जोगाड़ करत हउवा! …ऊ भला कउनो जाल में फंसिअन ! …कवि के मोल उनके खूब बुझाला …ऊ बेचारु खुदे चार हाथ करछंट के चलअ्..लन… जानत हउवा काहे ? ’’
‘’…काहे ?…’’ प्रश्न स्वगत बालकृष्ण दास टकसाली के मुंह से निकला, लेकिन मुखमुद्रा प्रश्नवाचक सबकी.
‘’… कहल जाला न ‘कवि गण’!..‘’ गिरिधरदास ने विनोदपूर्ण स्वर में ही लेकिन गुरु-गंभीर मुद्रा बनाते हुए समझाया, ‘’…त काल के खूब पता हौ कि जे कवि होला खुदे ‘गण’ हौ महाकाल के !… अब कउन काल, महाकाल के गण से भिड़ी ! …वइसे कवि अंतत: आपन काल खुदे बन जाला…’’
बोलकर गिरिधर दास ने अपनी आंखें बंद कर ली. हास्य का रंग चपल हो उठा. हंसी गूंज उठी लेकिन नियंत्रित. बालक ने ताली पीट कोमल हंसी जोड़ी जो सबको अतीव सुखकर अनुभूति हुई.
गिरिधरदास ने आंखें खोल विस्मय जताया, ‘’…क्या यह विनोद मेरे पुत्र को भी समझ में आ गया ?…’’
‘’…और नहीं तो क्या ! …हि-हि …’’ हरिश्चंद्र में आंखें मीचते हुए फिर थपड़ी पीटी. अपना उल्लास आगे छलकाया, ‘’… बाबूजी, आपने कवियों को ही काल बना दिया ! … हि-हि ! …यही तो ! …’’
सबकी आंखें चमक उठीं. सभी ठठा पड़े. सरदार कवि स्वयं पर नियंत्रण पाते बोले, ‘’…कवि पिता का प्रभाव पुत्र पर पूरा है … बालक में सभी क्षमताएं हैं …प्रत्युत्पन्नमतित्व भी है, समझ भी है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी…’’
‘’…’कच्छप कथामृत’ के मंगलाचरण के इस अंश को आप काव्य-प्रेमी सुनिए और अपना दृष्टिकोण बताइए तो मुझे प्रसन्नता होगी…’’, गिरिधर दास ने निवेदन किया. गोष्ठी में जुटे लोग सजग हो उठे.
बालक हरिश्चंद्र आता दिखा. सबका ध्यान खिंच गया. द्वार में उसके प्रवेश से पूरे दीवानखाने में जैसे प्राण-रंग दौड़ गया. मुखड़े खिल गए. होठों पर तुरंत की मुस्कान.
गुलाब राय नागर ने एक दृष्टि बालक पर डाली, फिर गिरिधर दास की ओर ताकने लगे. उनके स्वर में स्नेह का गाढ़ा आस्वाद है, ‘’…गुरुजी …एक बात कहूंगा… भगवान ने आपको संतति बहुत तेजस्वी दी है …इसकी प्रतिभा देख मन का आकाश आशाओं के सितारों से जगमगा है …कलेजा जुड़ा गया है…’’
‘’…फूल सारे उसी के, बगीचा जिसका ! ‘’ गिरिधर दास भावविभोर हो उठे हैं, ‘’… सब प्रभु-कृपा है! ’’
प्रवेश-द्वार से सीधे चलकर भीतर आना, पिता के निकट पहुंचना और स्थान सामने की पंक्ति में किनारे ग्रहण करना ! हरिश्चंद्र का समग्र व्यवहार बालक नहीं, वयस्क की तरह. लोगों ने इसे गहराई से अनुभूत किया.
लक्ष्मीशंकर व्यास ने स्मरण कराया, ‘’…गुरुजी …आप कोई काव्यांश मीमांसार्थ प्रस्तुत करने वाले हैं…’’. गिरिधर दास ने शीश हिलाकर सकारात्मक संकेत दे दिए.
‘’ … हां-हां …अब तो सुनाइए …’’, बाबा दीनदयाल गिरि, कन्हैया लाल लेखक और माधोराम गौड़ समेत अन्य कई के आग्रह-स्वर गूंज उठे.
गिरिधर दास ने अपने मुंडित शीश पर हाथों से स्व-स्पर्श अंकित करते हुए पंजी पर दृष्टि चलाई. उनके स्वर में जैसे अमृत-कण खनक उठे, ‘’…करन चहत जस चारु …कछु कछुवा भगवान को…’’. उच्चारण के क्रम में शब्द ही नहीं, एक-एक वर्ण-मात्रा पर विशेष स्वर-बल.
‘ कछु कछु कछुवा भगवान को’ को गिरिधर दास ने, जैसे प्रयोजनपूर्वक दोहरा कर इसे स्वरांकित कर डाला. सबका ध्यान इस पर प्राय: केंद्रित हो उठा. लग गया यही मुख्य विमर्श-केंद्र है. कुछ ही पल मौन रहा.
विश्वेश्वर शर्मा मिश्र ‘ईश्वर’ खड़े हो गए. बोलने लगे, ‘’…सृजन के समय कवि के मन में भाव चाहे जो रहा हो, पंक्ति सुनकर मुझे जो लगा है वही बता रहा हूं ! …’’
‘’…अनुभूति किसी अन्य की भी बता सकते हैं क्या आप ! ’’, सरदार कवि ने आंखों में आंखें डाल कर सीधे पूछा. ‘ईश्वर’ मौन रह गए. कई मुखड़ों पर मुस्कान आ गई.
‘ईश्वर’ अप्रभावित, अनाहत. उनकी मुद्रा पूर्ववत् विनत. स्वर में वही मिठास, ‘’…’कछु कछुवा भगवान को’ का सटीक रूप वस्तुत: ‘कछु कछु वा भगवान को’ है … इसका भाव-लक्ष्य ‘किसी-किसी या भगवान’ अथवा ‘कुछ-कुछ वह भगवान’ हो सकता है …’’
‘’…गुरु जी देखा, कहीं हमहि पीछे ना रहि जाई ! …’’, सरदार कवि के शब्द और स्वर नए, जिन्होंने हंसी की जैसे बहुमुखी पिचकारी चला दी हो.
वे आगे बोलते इससे पहले ही ईश्वरदत्त ‘ईश्वर’ ने बाण छोड़ा, ‘’…वाह गुरु …बहुत उत्तम ’’, सबने अचकचाकर ताका. उन्होंने आंखें नचाईं, ‘’ व्रजभाषा की समीक्षा काशिका में …लग गया न काम! ’’
सभी हंसने लगे. सरदार कवि सजग. वह, स्वयं को निशाने पर लेकर छोड़ी गई हंसी के जाल में फंसे नहीं. बस, पल भर को ठिठके-थमे, फिर गति पकड़ ली, ‘’…मुझे लगता है यह है ‘कछु कछुवा भगवान को ’ …कछुवा अर्थात कच्छप … पंक्ति का भाव है ‘कुछ कछुआ भगवान को’ …’’
हरिश्चंद्र के उठ खड़े होते ही सबका ध्यान खिंच गया. उसका स्वर-भर बालक का, हस्तक्षेप प्रौढ़, ‘’… नहीं-नहीं बाबूजी … यह तो ‘कछुक छुवा भगवान को’ है …अर्थ यह कि आपने जिस भगवान को कुछ-कुछ छू लिया है, उसके यश का वर्णन कर रहे हैं… ‘’
गिरिधर दास का मुखमंडल दीप्त हो उठा है. पूरी सभा जैसे चमत्कृत ! समवेत करतल-ध्वनि ने अलग ही वातावरण रच दिया है.
(खड़ी बोली हिन्दी भाषा और इसके साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के आत्मसंघर्ष व जीवन-युग पर आधारित उपन्यास ‘हिन्देन्दु’ का अंश)
श्याम बिहारी श्यामल
संपर्क : राम भवन, सी 27/156 जगतगंज, वाराणसी-221002 उप्र मो. – 8303083684