3 दिसंबर 1971 को 20 गोलियां लगने के बाद भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए अपने प्राणों की बाजी लगाकर दुश्मन पाकिस्तान के बंकर को नष्ट करनेवाले बिहार-झारखंड के एकमात्र परमवीर अलबर्ट एक्का की मूर्ति राजधानी रांची के महात्मा गांधी सड़क के चौराहे पर लगी है. पर इस चौराहे को राजनीतिक झंडों से विकृत करने वाले नेताओं, सरकारों और मीडिया ने भी चार दशकों बाद चौराहे को फिरायालाल चौक के रूप में ही याद रखा है,जो शहीदों का अपमान लगता है.
इसी प्रकार रिम्स बने डेढ़ दशक हो गए पर आरएमसीएच का बोर्ड सड़क पर अभी भी मुंह चिढ़ा रहा है. कांके रोड सीएम आवास के पास जस्टिस एलपी एन शाहदेव अभी भी हॉट लिप्स चौक के रूप में याद किया जाता है,महात्मा गांधी रोड की तरह इसपर स्थापित लाला लाजपत राय चौक शायद ही कोई बता सके. सुजाता चौक सभी जानते हैं, महाराजा अग्रसेन चौक अभी भी लालपुर चौक ही है.
अलबर्ट एक्का को श्रद्धांजलि देते गुमला के उनके जन्मस्थान जारी को 19 मार्च 2010 को अलबर्ट एक्का प्रखंड बनाया गया. जिसके पांच पंचायतों में 60 गांव हैं. 30 हजार 926 आबादी वाले कुछ गांवों में सोलर से बिजली जलती है. पर ग्रामीण विद्युतीकरण अधिकांश गांवों में बिजली नहीं पहुंचा पाई है. टेन प्लस टू स्कूल में महत्वपूर्ण विषयों के शिक्षक नहीं.
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा जैसे विभाग पूर्व के डुमरी से संचालित हो रही है. लोग 70 किमी दूर गुमला या छत्तीसगढ़ के जशपुर में जाकर इलाज कराते हैं. अस्पताल भी अधूरा है. परमवीर चक्र विजेता शहीद अलबर्ट एक्का के नाम से बने गुमला के जारी प्रखंड को 12 साल हो गए पर प्रखंड, अंचल, थाना तथा बीआरसी को छोड़कर अधिकांश विभाग आज भी डुमरी प्रखंड से संचालित हो रहे हैं.
सबसे घनी जनजातीय आबादी वाला गुमला जिला का यह क्षेत्र परमवीर अल्बर्ट एक्का के नाम पर बहादुर सैनिकों की भर्ती का बड़ा केंद्र हो सकता था और लोगों का प्रेरणा स्रोत भी लेकिन दिखावटी राजनीति और सरकारों की उपेक्षा के कारण सिर्फ सजावटी विकास का प्रतीक बनकर रह गया है अल्बर्ट एक्का प्रखंड.
पंजाब को वीर भूमि कहा जाता है और वहां शहीदों को सम्मान देने के लिए मंदिरों, गुरुद्वारों जैसे प्रमुख स्थलों में शहीदों के नाम की पट्टिकाएं लगायी जाती हैं और लोग बहुत श्रद्धा से उन्हें याद करते हैं जबकि झारखंड, बिहार जैसे राज्यों में मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों में अपनी नाम पट्टिका लगाने की होड़ मची रहती है. जिसमें नेता सबसे आगे रहते हैं. उसके लिए लड़ाई हो जाती है.
जिस समाज में शहीदों का सम्मान न होता हो शहीदों की शहादत को प्रेरणा न माना जाता हो और उनकी विधवाओं या आश्रितों को मिलने वाले मुआवजे या अन्य लाभ के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हो वहां नौकरी की इच्छा करने वाले सैनिक तो शायद बहुत मिल जाएंगे लेकिन अपने प्राणों की बाजी लगाकर देश के लिए अपना बलिदान देने वाला अल्बर्ट एक्का शायद दुर्लभ हो सकता है.
यह अलग बात है कि झारखंड भी वीरों की भूमि है और अपने आत्मसम्मान, स्वाभिमान और देश की रक्षा के लिए कुर्बानी देने वालों का बहुत बड़ा इतिहास है लेकिन सवाल समाज, सरकारों और मीडिया से भी जो इन शहीदों के प्रतीकों को आज भी पुराने व्यावसायिक नामों से याद करते हैं और इसीलिए नई पीढ़ी के बच्चे पूछते हैं कौन अल्बर्ट एक्का फिरायालाल चौक वाला ?