देश में अगले सौ सालों तक कोयले का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह कहना है कि अगले 20-30 सालों में कोयले की खदानें बंद हो जायेंगी और कोयले का विकल्प कुछ और चाहे वो सोलर एनर्जी हो या फिर विंड एनर्जी हो, वो हो जायेगा ऐसा संभव ही नहीं है. यह कहना है यूनाइटेड कोल वर्कर्स यूनियन (एटक) के महामंत्री लखन लाल महतो का.
लखन लाल महतो का कहना है कि मैं किसी भी तरह की वैकल्पिक ऊर्जा का विरोधी नहीं हूं, लेकिन यह कहना कि अगले दो-तीन दशक में कोयला बेकार हो जायेगा और उसकी जगह कुछ और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत हो जायेगा, तो यह बात दूर की कौड़ी के अलावा और कुछ नहीं हैं.
जहां तक बात जस्ट ट्रांजिशन की है, तो मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि देश और राज्यों की सरकारों के लिए कोयला राजस्व का इतना बड़ा स्रोत है कि सरकारें इसे चाहकर भी अमली जामा नहीं पहना पाएंगी.
ग्लासगो सम्मेलन में पीएम नरेंद्र मोदी ने 2070 तक शून्य उत्सर्जन की बात कही है. मैं यह कहता हूं कि अगर यह बातें सही हैं तो फिर झारखंड सहित अन्य राज्यों में भी कोयले के खनन के लिए प्राइवेट कंपनियों को अधिकार क्यों दिये जा रहे हैं? सरकारें थर्मल पावर की स्थापना क्यों कर रही हैं? झारखंड के टंडवा में 1980 मेगावाट का थर्मल पावर लगाया जा रहा है, हालांकि अभी उससे उत्पादन शुरू नहीं हुआ है. संताल परगना में अडाणी को थर्मल पावर लगाने की इजाजत दी गयी है, अगर सरकार कोयला खदानों को विगत 20-30 सालों में बंद करने वाली है, तो फिर इन सबकी जरूरत क्या है?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर कोयला खदानों को सरकार बंद करने का सोच रही है तो क्या सरकार ने यह सोचा है कि अगर कोयला खदान बंद हो गये तो उनमें कार्यरत संगठित और असंगठित मजदूरों का क्या होगा? उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा?
झारखंड में सीसीएल, बीसीसीएल और ईसीएल के कुल 105 खदान हैं, जिनमें 80-85 हजार रेग्यूलर श्रमिक हैं. ठेका मजदूरों की संख्या एक लाख के पार होगी. इन मजदूरों का सरकार कैसे ट्रांजिशन विथ जस्टिस करेगी? कोयला क्षेत्र में काम करने के लिए स्किल्ड मजदूरों की जरूरत नहीं होती है. यहां खुदाई, लदाई, वैगन लोडिंग जैसे काम भी होते हैं, लेकिन सोलर एनर्जी के क्षेत्र में ऐसे अनस्किल्ड लोगों को काम मिलेगा क्या?
अगर इन अनस्किल्ड मजदूरों को काम नहीं मिला तो इनकी रोजी रोटी का क्या होगा? मैं आपसे कहता हूं कि अगर कोयले की खदानें बंद हुईं तो एक शहर नहीं कई शहर वीरान हो जायेंगे और वहां रहने वाले लोगों का जीवन संकट में आ जायेगा और अंतत: इसका सरकारों और उनके राजस्व पर भी दिखेगा, इसलिए यह कहना कि ग्लासगो समिट में पीएम मोदी ने शून्य उत्सर्जन की बात कही है तो देश में खदानें बंद हो जायेंगी, यह कागजी बातें हैं ऐसा होता कहीं भी नहीं दिख रहा है.
झारखंड जैसे राज्य में कोयले से प्रदूषण होता है यह बात सही है, लेकिन क्या भारत में ही कार्बन उत्सर्जन हो रहा है? चीन जो हमसे ज्यादा कोयला उत्पादन करता है वह क्यों शून्य उत्सर्जन की बात नहीं करता. अमेरिका क्यों शून्य उत्सर्जन की बात नहीं करता? कार्बन उत्सर्जन तो धान की खेती से भी हो जा रहा है, तो क्या लोग खेती ना करें?
जस्ट ट्रांजिशन जैसी बातें विकसित देशों की उपज है जो वो हमारे जैसे विकासशील देशों पर लाद रहे हैं. बावजूद इसके मैं यह कहूंगा कि ना तो सरकार और ना ही कोल कंपनियां इसे लेकर गंभीर हैं और ना ही निकट भविष्य में ऐसा कुछ होने वाला है. झारखंड जैसे राज्य में जमीन का अधिग्रहण एक बड़ी समस्या है, फिर सोलर प्लांट के लिए जमीन कहां से आयेगी? इन मुद्दों पर विचार करने की जरूरत होगी, तब आगे कुछ बातें संभव है.
कोयला खदानों के लिए अपनी जमीन देकर विस्थापित बनें लोगों के नेता काशीनाथ केवट ने कहा कि अगर सरकार कोयला खदानों को बंद करती है, तो यह उनका आत्मघाती कदम होगा, क्योंकि कोयले के खदानों से सरकारों को राजस्व मिलता है. कोयले पर अर्थव्यवस्था टिकी है.
झारखंड में सात लाख कोयला मजदूर थे जो अब ढाई लाख रह गये हैं बाकी लोग पेंशनर हैं इनका भविष्य क्या होगा? कोयले पर जो लाखों लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी जीविका चलाते हैं उनके सामने ही नहीं पूरे समाज के सामने एक भयंकर मानवीय त्रासदी उत्पन्न हो जायेगी, इसलिए मुझे नहीं लगता है कि अगले सौ सालों में कोयले का कोई विकल्प होगा.
सोलर एनर्जी से जो बिजली मिलेगी उसका रेट कितना होगा और देश की जो 70 प्रतिशत जरूरत कोयले से पूर्ण होती है, वह इससे कैसे पूरी होगी. झारखंड में सोलर प्लांट के जरिये जो काम किये जाने की योजना बनाई गयी है, वह फायदेमंद साबित होती नजर नहीं आ रही है, ऐसे में जस्ट ट्रांजिशन जैसी बातें फिलहाल तो बेकार ही हैं.
कार्बन उत्सर्जन से लगातार गर्म हो रही धरती को बचाने के लिए जो प्रयास किये जा रहे हैं उनके तहत ही कोयले का विकल्प तलाशा जा रहा है क्योंकि कोयले से कार्बन उत्सर्जन बहुत ज्यादा होता है. कोयला खदानों को बंद करना और उसके श्रमिकों के लिए जीविका के अन्य उपाय तलाशना कितनी बड़ी समस्या है, यह श्रमिकों के नेता बता रहे हैं. ऐसे में शून्य उत्सर्जन का सपना क्योंकर पूरा होगा, यह बड़ा सवाल है, क्योंकि जो सवाल उठाये जा रहे हैं वे किसी भी दृष्टिकोण से नाजायज प्रतीत नहीं होते हैं?