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विश्व आदिवासी दिवस: …जब आदिवासियों ने रांची में डिग्री कॉलेज खोलने के लिए 1921 में निकाली थी बड़ी रैली

19वीं सदी के आखिरी दशक से ही झारखंड आंदोलन की एक प्रमुख मांग रांची में उच्च शिक्षण संस्थान स्थापित करने की थी, जिसे आजादी मिलने के एक दशक बाद तक टाला जाता रहा, पर अंततः शहादतों से भरे झारखंड आंदोलन और जुझारू आदिवासी संघर्ष के फलस्वरूप बिहार सरकार को झुकना पड़ा.

रांची: मार्च 1921 की बात है. रांची में कॉलेज खोलने की मांग को लेकर आदिवासियों ने बहुत बड़ी रैली निकाली थी और आक्रोश प्रकट किया था. इस रैली का हवाला देते हुए सरत चंद्र राय ने 18 जुलाई 1921 को बिहार-उड़ीसा लेजिस्लेटिव एसेंबली में रांची में डिग्री कॉलेज की स्थापना के लिए प्रस्ताव दिया था. 1914-15 में आदिवासियों द्वारा गठित संस्था ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ ने 1925 में चार मुख्य उद्देश्यों के लिए संघर्ष का ऐलान किया, जिसमें एक उद्देश्य रांची में उच्च शिक्षा संस्थान की स्थापना थी. 1928 में साइमन कमीशन को दिए गए ज्ञापन में छोटानागपुर उन्नति समाज ने रांची में उच्च शिक्षण संस्थान की स्थापना नहीं किए जाने पर गहरा रोष प्रकट किया था और अपनी मांग फिर से दोहरायी थी. रांची कॉलेज व उच्च शिक्षण संस्थानों की स्थापना के लिए संघर्ष की दास्तां काफी लंबी है. आदिवासी विषयों के स्टोरीटेलर अश्विनी कुमार पंकज ने प्रभात खबर डॉट कॉम को विस्तार से इसकी जानकारी दी.

रांची विश्वविद्यालय के संघर्ष का इतिहास 150 साल पुराना

रांची विश्वविद्यालय का आधिकारिक इतिहास 12 जुलाई 1960 से शुरू होता है, लेकिन इसकी स्थापना के संघर्ष का इतिहास लगभग 150 साल पुराना है. उतना ही पुराना, जितना कि झारखंड आंदोलन. झारखंड आंदोलन सिर्फ एक राज्य की स्थापना का आंदोलन भर नहीं था, बल्कि यह झारखंड के आदिवासी और मूलवासी सदानों के समग्र शैक्षणिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार और उत्थान का आंदोलन था.

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जब बिहार सरकार को झुकना पड़ा

19वीं सदी के आखिरी दशक से ही झारखंड आंदोलन की एक प्रमुख मांग रांची में उच्च शिक्षण संस्थान स्थापित करने की थी, जिसे आजादी मिलने के एक दशक बाद तक टाला जाता रहा, पर अंततः शहादतों से भरे झारखंड आंदोलन और जुझारू आदिवासी संघर्ष के फलस्वरूप बिहार सरकार को झुकना पड़ा. 1927 में रांची कॉलेज, 1960 में रांची विश्वविद्यालय और इसके दो दशक बाद 1980 में इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत देश का पहला ‘जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग’ खोलना पड़ा.

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बिरसा मुंडा के उलगुलान के बाद कॉलेज खोलने की मांग पकड़ी थी जोर

आदिवासी संघर्ष के फलस्वरूप ही करीब 150 साल पहले 1875 में लेफ्टीनेंट गवर्नर जनरल रिचर्ड टेम्पल ने पहली बार आज के झारखंड और तब के छोटानागपुर डिविजन के रांची में एक उच्च शिक्षण संस्थान (कॉलेज) खोलने का प्रस्ताव रखा था. सरदारी लड़ाई के दौरान 1889 में इस प्रस्ताव पर फिर से विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार मजबूर हुई. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए औपनिवेशिक युद्ध ‘उलगुलान’ (1900) के बाद रांची में कॉलेज स्थापित करने की मांग ने एक बार पुनः जोर पकड़ी. नतीजतन 1904 में बंगाल के लेफ्टीनेंट गवर्नर एंड्रयू फ्रेजर ने इस प्रस्ताव को फिर से आगे बढ़ाया. मार्च 1921 में कॉलेज खोलने की मांग पर आदिवासियों ने रांची में एक बहुत बड़ी रैली निकाल कर अपना असंतोष और आक्रोश प्रकट किया. इस रैली का हवाला देते हुए सरत चंद्र राय ने 18 जुलाई 1921 को बिहार-उड़ीसा लेजिस्लेटिव एसेम्बली में रांची में डिग्री कॉलेज की स्थापना के लिए प्रस्ताव मूव किया. 1914-15 में आदिवासियों द्वारा गठित संस्था ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ ने 1925 में चार मुख्य उद्देश्यों के लिए संघर्ष का ऐलान किया, जिसमें एक उद्देश्य रांची में उच्च शिक्षा संस्थान की स्थापना थी. 1928 में साइमन कमीशन को दिए गए ज्ञापन में छोटानागपुर उन्नति समाज ने रांची में उच्च शिक्षण संस्थान की स्थापना नहीं किए जाने पर गहरा रोष प्रकट किया और अपनी मांग फिर से दोहरायी थी.

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12 जुलाई 1960 को देनी पड़ी रांची में विश्वविद्यालय स्थापना की मंजूरी

स्पष्ट है कि 19वीं सदी के आखिरी दशक से 1960 के दशक तक के झारखंड आंदोलन के हर जुलूस, रैली, धरना-प्रदर्शन और ज्ञापनों में रांची में उच्च शिक्षा संस्थान खोलने की मांग अनिवार्य रूप से और लगातार की जाती रही थी. आदिवासियों के इसी लंबे संघर्ष के फलस्वरूप आखिरकार 12 जुलाई 1960 को रांची में विश्वविद्यालय स्थापना को मंजूरी देनी पड़ी. इसलिए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि झारखंड की ही तरह रांची विश्वविद्यालय की भी स्थापना मुख्य रूप से शहादतों से भरे दीर्घकालिक झारखंड आंदोलन की देन है. यह भी याद रखना चाहिए कि रांची विश्वविद्यालय की स्थापना का इतिहास मात्र 60 साल पुराना नहीं है.

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तब सिर्फ संत कोलंबस कॉलेज था आज के झारखंड में

आपको बता दें कि भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों की स्थापना मुख्य तौर पर बीसवीं सदी में शुरू हुई. 1910 तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सिर्फ एक विश्वविद्यालय हुआ करता था. कोलकाता विश्वविद्यालय. इसके अंतर्गत 34 कॉलेज थे, जिनमें से अधिकतर बंगाल प्रेसीडेंसी के भीतर थे. बिहार में सिर्फ छह कॉलेज थे. इनमें भी पांच कॉलेज आज के बिहार में थे और मात्र एक झारखंड के हजारीबाग में. ये कॉलेज थे-पटना कॉलेज, बीएन कॉलेज, तेज नारायण कॉलेज, भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज एवं डायमंड जुबली कॉलेज (सभी वर्तमान बिहार में) और संत कोलम्बस कॉलेज (आज के झारखंड में. इनमें से मात्र पटना कॉलेज ही सरकारी कॉलेज था, जबकि शेष पांचों निजी संस्थाओं द्वारा स्थापित किए गए थे. आपको बता दें कि 1899 में संत कोलम्बस कॉलेज, हजारीबाग की स्थापना से पहले वर्तमान झारखंड में एक भी उच्च शिक्षण संस्थान नहीं था, जबकि 1875 से ही यहां के आदिवासी बुद्धिजीवी रांची में कॉलेज और बीसवीं सदी के तीसरे दशक से विश्वविद्यालय खोलने की मांग करते रहे थे, परंतु उनकी मांग 1960 तक अनसुनी रही.

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1910-11 में छोटानागपुर उन्नति समाज की स्थापना

1840 के आसपास जैसे ही इस आदिवासी बहुल राज्य में ब्रिटिश सरकार ने आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की और 1845 के बाद ईसाई मिशनरियों ने स्कूलों का जाल फैलाना आरंभ किया. पढ़े-लिखे आदिवासी नेतृत्वकर्ता उच्च शिक्षा संस्थान खोलने की मांग को लेकर सरकार को ज्ञापन आदि देने लगे थे. इस मांग ने संगठित रूप तब ग्रहण कर लिया, जब 1910-11 में रांची में पढ़े-लिखे आदिवासी बुद्धिजीवियों ने छात्रवृति और नौकरी में हो रहे भेदभाव तथा यहां के संसाधनों व आदिवासी अधिकारों की लूट के खिलाफ ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ की स्थापना की. 1928 में ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ ने जोएल लकड़ा के नेतृत्व में साइमन कमीशन से पटना में मुलाकात की और ज्ञापन देकर झारखंड के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था किए जाने तथा उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करने की मांग की थी. ज्ञापन में कहा गया था कि सरकार ने आदिवासियों की उस मामूली मांग को भी पूरा करना उचित नहीं समझा, जबकि पटना के कॉलेज के लिए मांग से कहीं अधिक लाखों-लाख रुपए के प्रावधान किए जा रहे हैं. दूसरी ओर छोटानागपुर में एक इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना बगैर निजी भवन के और आदिवासी छात्रों की क्षमताओं के अनुकूल वैकल्पिक विषयों के पर्याप्त विकल्प के बिना की गई है. इसके अभाव में अधिकतर आदिवासी छात्र प्रवेश नहीं ले पा रहे हैं.

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जब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया कॉलेज की योजना को

अप्रैल 1904 में बंगाल के लेफ्टीनेंट गवर्नर एंड्रयू फ्रेजर को झारखंड में उच्च शिक्षा संस्थान की स्थापना पर गंभीरता से विचार करना पड़ा. फ्रेजर ने सिद्धांततः इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी कि रांची में एक मॉडल गवर्नमेंट कॉलेज खोला जाएगा. 17 सितंबर 1904 को इस मुद्दे पर कोलकाता स्थित गवर्नर जेनरल के सरकारी आवास पर एक मीटिंग हुई थी, जिसमें आशुतोष मुखर्जी, दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह, गिद्धौर के महाराजा रावणेश्वर प्रसाद सिंह, पटना सिटी के नवाब सैयद खुर्शीद और पटना के ही सैयद सरफ्फुद्दीन सहित बंगाल के 60 गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया था. कॉलेज के लिए रांची में जगह भी देख ली गयी थी, लेकिन इस प्रस्ताव पर आगे कुछ नहीं हुआ. वास्तव में पहले मूल योजना यह थी कि प्रेसीडेंसी कॉलेज को कोलकाता से रांची स्थानांतरित किया जाएगा, लेकिन बाद में योजना बदल गयी और विचार हुआ कि रांची में एक नया मॉडल आर्ट्स कॉलेज और मॉडल स्कूल खोला जाए, परंतु 1906 में इस पूरी योजना को ही ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. एक विद्धान इतिहासकार के अनुसार इसकी वजह ‘बिहारियों की मानसिकता में परिवर्तन’ थी.

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1909 में रांची में कॉलेज का प्रस्ताव हो गया नामंजूर

1904-06 के दौरान लेफ्टीनेंट गवर्नर एंड्रयू फ्रेजर ने बहुत कोशिश की थी और अविभाजित बंगाल के अनेक जमींदार, नवाब, राजा-महाराजा, जज, बड़े अफसर आदि लोगों की भी हार्दिक इच्छा थी कि रांची में कॉलेज खुले. प्रस्तावित कॉलेज के लिए करीब 3 लाख रुपये भी जमा कर लिए गए थे. जिसमें बर्दवान महाराजा बिजय चंद्र माहताब, दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह, नवाब ख्वाजा सलीमुल्ला और हथुआ की महारानी ने 40-40 हजार रुपये जबकि झरिया के राजा दुर्गा प्रसाद सिंह ने 50 हजार रुपये का दान दिया था. यह दान मुख्यतः प्रस्तावित रांची कॉलेज के छात्रावास और भवन निर्माण के लिए था, परंतु इस प्रस्ताव पर बंगाल और इंडिया गवर्नमेंट के बीच लगभग पांच साल तक बातचीत होती रही और अंततः जुलाई 1909 में इसे नामंजूर कर दिया गया. तब दान में मिले कुल 2 लाख 90 हजार की राशि, जो आदिवासी इलाके में कॉलेज एवं हॉस्टल निर्माण के लिए इकट्ठा की गई थी, इसे कोलकाता, पटना और कटक के कॉलेजों में बांट दिया गया.

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