शिव शिष्य हरीन्द्रानन्द
शिव की उपासना के दो स्पष्ट रूपों का उल्लेख महाभारत में मिलता है. एक है दार्शनिक आधारशिला पर आधारित एवं योग मूलक, दूसरा है शिवोपासना की लोक-प्रचलित मान्यताओं एवं विश्वासों पर प्रतिष्ठित उपासना पद्धति. लोक प्रचलित उपासना भक्तिमूलक है. यहां भक्ति की प्रधानता है. शिव के औघड़दानी, आशुतोष स्वरूप को उनका महान स्वरूप माना गया है. इस स्वरूप में उन्हें प्रसन्न करने के लिए किसी विशिष्ट पद्धति को अपनाने की जरूरत नहीं है.
कहीं गाल बजा कर, कहीं जल चढ़ाकर, कहीं कांवर में जल लेकर नंगे पांव मीलों चलकर उन्हें जल चढ़ाने की परंपरा दर्शाती है कि शिव बड़े दयालु हैं, सहज हैं, उनकी दया आसानी से प्राप्त हो जाती है. कहावत ही बन गयी है ‘भगत के वश में भगवान’. शिव को प्रसन्न करने और उनसे मनोवांछित वर की प्राप्ति के निमित्त किये जाने वाले व्रत, उपवास आदि कर्मकांडीय विधानों के मूल में शिव की आराधना का भाव ही मूलतः निहित है.
लोक कथाओं में शिव के विकराल शत्रु विनाशक, रौद्र रूप का वर्णन जीवंत है. शिव जादू-टोना एवं तंत्र-मंत्र के शाबर मंत्रों को बनाने वाले देवता के रूप में भी जनमानस में हैं. शिव को समाज ने अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार ढाल लिया. हड़प्पा के लोगों ने जैसे उन्हें पशुधनों का रक्षक माना, जिससे वे पशुपति कहलाये. वेदों ने उन्हें रुद्र माना. आगे चलकर शिव को शंकर के रूप में स्थापित किया. ऋग्वेद के रुद्र मध्यम श्रेणी के देवता हैं.
उन्हें विनाशकारी, रुलानेवाला और विद्युत के समान प्रचंड अग्नि का प्रतीक माना गया है. वेदों ने उन्हें मृत्यु का देवता माना, जिससे वे मृत्युंजय कहलाये. हमारे समाज की हर क्रिया में वे घुले-मिले रहे तभी तो उन्हें सद्योजात यानी अभी का जन्मा हुआ कहा जाता है; वहीं शिव को अजन्मा और स्वयंभू भी कहा गया है.
हम भारतवासी शिव में अपनी अस्मिता, अपना सर्वश्रेष्ठ तलाशने की कोशिश आदिम युग से करते आये हैं. शिव की सहजता और गुह्यता दोनों चरम हैं, भारतीय मनीषा के दो छोर हैं. उत्तर वैदिक युग में रचित यजुर्वेद ने उन्हें शुचिता का उत्कर्ष माना, तो वहीं इस काल में रुद्र समाज से इस तरह घुल-मिल गये कि चोरों, डकैतों के भी सरदार बन गये.
उन्हें स्तेनानांपति, तस्करानांपति, विकृतांनांपति जैसी उपाधियां दी गयीं. अथर्ववेद में उनका सामंजस्य श्वानों यानी कुत्तों के साथ दिखाया गया है. उन्हें श्मशानवासी माना गया. प्रकृति के स्रष्टा शिव हैं. अनगिनत औषधीय गुणों से युक्त ज्वलनशील, रोग-प्रतिरोधक पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां भी शिव की सृजनात्मक शक्ति के अंतर्गत हैं; इसलिए शिव को महाभिषक भी कहा गया है. रुद्र को इसी काल में ऋषभ की उपाधि मिली. कालांतर में माना जा सकता है कि जैन तीर्थंकरों की भारतीय समाज में स्वीकारोक्ति हो; ऐसे किसी उद्देश्य से ऋषभ शब्द का व्यापक प्रयोग हुआ.
भारतीय संस्कृति के एकमात्र देवता शिव हैं, जिन्हें बाबा कहा गया है. हम भारतीय जानते हैं कि चंदा मामा सबके मामा और शिव घर-घर के बाबा. शिव ने सृष्टि की रचना की, जिसका भोग हम सभी करते हैं. हमारी छोटी-बड़ी सभी मांगें और आवश्यकताएं उनके द्वारा पूरी की जाती हैं. भगवान शिव सनातन से इसी प्रतीक के रूप में समाहित हैं.
(दिवंगत लेखक की डायरी से प्राप्त लेख के अंश)
शिव तो शिखर से उतरकर जनसामान्य के हृदय को उद्भावित करते हैं. वे गणाधिपति हैं. उनके ‘गण’ हैं यानी वह सभी के साथ चलायमान हैं. वह दास होने या बनाने में नहीं अपितु अपने गणों के साथ रमण में विश्वास करते हैं. तभी तो विश्व के सर्वाधिक प्राचीन गणराज्य के हम वाहक हैं. शिव ही हमारी संगति हैं. शिव के बारे में ‘गणाभरणं’ शब्द आया है यानी शिव गणों से ही शोभा पाते हैं. गण उनके आभूषण हैं. कहा गया है-
प्रभु ईशं अनीशं अशेष गुणं गुणहीनं महेशं गणाभरणम्।
आप ईश्वरों के ईश्वर हैं. आप महानियंत्रक हैं. आप इच्छा न करें तो कोई गुण आपमें नहीं है, इच्छा युक्त होने पर आपके गुण शेष ही नहीं हो सकते. आप नियंत्रकों के नियंत्रक हैं, आपके आभूषण आपके गण हैं.
ऐसी सत्ता जो इच्छा न करे तो कोई बंधन उसमें नहीं है, वे अघोर हैं. इच्छायुक्त होने पर वे घोर से भी घोर हैं, नियंत्रकों के भी नियंत्रक हैं. भला कोई आदमी ऐसी सर्वोच्च सत्ता से जुड़ने का साहस कैसे कर सकता है, किंतु उस सर्वोच्च सत्ता के आभूषण ही उनके गण हैं. गणों से ही वे शोभायमान होते हैं. गण उनके दास नहीं, अपितु उनके मित्र हैं. बाघ का बच्चा बाघ से नहीं डरता, इसीलिए तो शिव सर्वमय हैं. सामान्य से भी सामान्य व्यक्ति शिव जैसा सामान्य नहीं हो सकता है तभी तो वे घर-घर के बाबा हो गये.