मित्रता friendship एक ऐसे रिश्ते का नाम है जो जीवन की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को साथ लेकर चलता है.मित्रता के नाम पर छल करने वाले बहरूपियों के लिए चाणक्य chanakya ने चाणक्य नीति chanakya niti में श्लोक chanakya shloka on friendship के माध्यम से बहुत जरुरी सलाह दी है. क्योंकि आज कलयुग में मित्र के ही हाथों मित्रता के रिश्ते को खंड होते देख यह कहना गलत नही होगा कि मित्रता अब उस रिश्ते का नाम नही जो कभी कृष्ण और सुदामा के रिश्ते में होता था.
आज भी जब मित्रता की मिशाल पेश की जाती है तो उसमे सबसे पहला नाम कृष्ण और सुदामा का ही आता है.कारण केवल उस दर्जे के सम्मान का है जहां एक तरफ कृष्ण जो स्वयं सृष्टि के सबसे बड़े कद हों और दूसरी तरफ सुदामा जो एक मामूली सा गरीब इंसान.दोस्ती उसी निःस्वार्थ भावना का नाम है जहां तमाम चीजें न्योछावर हो जाए पर मित्रता की भावना दांव पर न लगे.
मित्रता दो हृदय को एक करने की ही भावना है.मित्र हमेसा एक दूसरे के हित में साथी की भूमिका निभाता है.लेकिन आज के दौर में मित्रता केवल एक शब्द मात्र बनकर रह गया है.मित्र कहलाना बेहद आसान है बशर्ते कि वास्तविक मित्र होना.जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के साथ ही खुद को पूर्ण समझे,उसकी सारी समस्याओं को अपना समझे, उसके सुख दुख को अपना समझा,उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझे,उसी भावना की उत्पत्ति को मित्रता की भावना का जन्म होना माना जाता है.यह जात धर्म और लिंग से ऊपर भावना के दरवाज़े पर मिलन कराता है.
दुर्भाग्यवश ,आजकल मित्र के नाम पर ही सारे छल रचे जाते है. अधिकतर जगह इस रिश्ते में मुँह में राम बगल में छुरी की कहावत भी फिट बैठती है.मित्रता वह रिश्ता है जहां आप अपनी कुछ बातें जब घर परिवार से भी शेयर नही कर सकते तो आपको दर्पण के रूप में मित्र सामने दिखता है जिसके साथ आप अपनी हृदय की बात कह सकें.लेकिन वही मित्र आजकल आपके इस भूल का फायदा उठाकर आपको परेशानी में डालते दिखते हैं.आजकल वह दौर सामने है जहां लोग स्वयं के लिए मीठी बातें ही सुनना पसंद करते हैं.और ऐसे में वो अपनी किसी भी कमी से रूबरू होने से चूक जाते हैं.
chanakya niti on friendship
आज के दौर में मित्रता के ढकोसले और उससे होने वाले नुकसान व निराशा पर आचार्य चाणक्य chanakya ने काफी पहले श्लोक chanakya shloka on friendship के माध्यम से चाणक्य नीति chanakya niti में लिखा-
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
भावार्थ :
पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले तथा सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए
आज के दौर में यही हकीकत सामने दिखती है और जरुरत है कि ठोस निर्णय लेने की और मात्र औपचारिकता निभाकर मित्रता के रिश्ते को दूषित होने देने से बेहतर है ऐसे कपटी इंसानों से फौरन दूरी बना लेनी चाहिए जो केवल आपके मुंह पर मीठे बने लेकिन पीठ पीछे आपकी छवि को बर्बाद करने में लगा हो.साथ ही आपको नुकसान पहुंचाने की सारी भूमिका जो व्यक्ति निभा रहा हो वो आपका मित्र कभी नही हो सकता.वह मित्र के वेश में छिपा शत्रु है.और ऐसे विष का अतिशीघ्र त्याग कर देना चाहिए.