सलिल पाण्डेय, मिर्जापुर
Holi 2024: सनातन धर्म में होली का विशेष महत्व है. वातावरण में जहां होली की महक घुलने लगी है, वहीं बाजार में इसकी रौनक भी छाने लगी है. आम तौर पर देखा जाता है कि गांव-मुहल्ले, टोले में लोग होलिका दहन की तैयारी काफी पहले से शुरू कर देते हैं. जलावन के लिए सूखे पेड़ की टहनियां, झाड़-झंकर आदि इकट्ठा करते हैं, मगर इसमें एक बात का ध्यान नहीं रखते, जो धार्मिक दृष्टिकोण से अनुचित तो है ही, पर्यावरण के लिहाज से भी नुकसानदेह है-
रंगों के पर्व होली के एक दिन पहले होलिका जलाने के निमित्त शिवरात्रि पर्व से ही होलिका की स्थापना शुरू हो गयी है. होलिका के प्रतीक स्वरूप आसपास उपलब्ध पेड़ लगाये जाते हैं. बहुत से स्थानों पर रंगभरी एकादशी को इसकी स्थापना होती है. होलिका की स्थापना एवं होली की पूर्व रात्रि जलाने के समय एवं विधि-विधान के संबंध में शास्त्रों में विशेष सावधानी का उल्लेख किया गया है.
निर्णय सिंधु में होलिका दहन व पूजन को लेकर निर्देश
इसे लेकर निर्णय सिंधु में स्पष्ट उल्लेखित है कि स्थापना और जलाने के समय विधिवत पूजन हो. जलाते समय भद्रा काल से रहित समय में ही आग लगाने का निर्देश दिया गया है. शास्त्रों में कहा गया है कि भद्रा में होलिका जलाने पर संबंधित क्षेत्र पर संकट आता है, इसके अलावा होलिका-पूजन की विधि भी बतायी गयी है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि अक्सर लोग इसमें कूड़ा करकट, टायर-ट्यूब, प्लास्टिक आदि डालने लगते हैं, जो धार्मिक दृष्टिकोण से बिल्कुल अनुचित है, इसमें गोबर की उपली, सरसों के उबटन का अवशेष डालना शास्त्र सम्मत बताया गया है.
ऐसे आत्मघाती कदम से बचना चाहिए
शास्त्रों की इस व्यवस्था का चिकित्सीय विज्ञान की दृष्टि से भी महत्व है. प्लास्टिक, पॉलीथिन, टायर-ट्यूब डालने से पर्यावरण प्रदूषित होता है, जबकि सरसों के उबटन के जलने से पर्यावरण शुद्ध होता है. ऐसा न करने पर होलिका के आसपास के निवासी ही प्रभावित होते हैं. होलिका जलाने का उद्देश्य पर्यावरण को पवित्र करना भी होता है, लेकिन वर्तमान समय में जगह-जगह जितना अधिक कूड़ा-करकट इसमें देखा जाता है, वह चिंतनीय है. संक्रामक बीमारियों की आक्रमकता के दौर में इस तरह के आत्मघाती कदम से बचना चाहिए.
चैत्र-वैशाख में बढ़ जाता है चेचक का प्रकोप
होलिका जलाने का उद्देश्य मनीषियों ने प्रकृति में व्याप्त हिरण्यकश्यप स्तर के प्राणलेवा विषाणुओं को जलाने के लिए भी बताया है. हिरण्यकश्यप इतना निर्दयी था कि वह अपने पुत्र प्रह्लाद को ही मार डालना चाहता था. दरअसल, विषाणुओं की प्रवृत्ति मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने की ही होती है. ग्रंथों में ढूंढा नामक एक राक्षसी का भी उल्लेख धर्मग्रंथों में आता है. इस राक्षसी के वध का निर्देश दिया गया है. चैत्र-वैशाख महीने में चेचक का प्रकोप बढ़ जाता है. इस रोग को प्राचीन काल में ढूंढा नाम पुकारा गया प्रतीत होता है. इसीलिए माताएं बच्चों को इस रोग से बचाने के लिए शीतला माता की पूजा करती हैं. बच्चे बाल भगवान कहे जाते हैं.
प्रह्लाद को बचाने के लिए अग्नि में स्वाहा हुई बुआ होलिका!
धार्मिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु से अपने भाई हिरण्याक्ष की मृत्यु का बदला लेने के लिए तत्पर हिरण्यकश्यप जब देखता है कि उसका बेटा प्रह्लाद ‘नारायण’ का ही नाम जप रहा है, तो क्रोध में वह अपनी बहन से उसकी हत्या की बात करता है तथा गोद में बैठा कर आग में भस्म होने का षड़यंत्र रचता है. ऐसे में बहन होलिका बड़े असमंजस में होती है. वह प्रह्लाद की बुआ है. नारी हृदय है. अबोध बच्चे के प्रति उसमें ममता स्वाभाविक है. वह इस घोर अपराध के लिए तैयार नहीं होती है, जब हिरण्यकश्यप उसकी ही हत्या की चेतावनी देता है, तब यह सोच कर वह राजी होती है कि मृत्यु निश्चित है, तो क्यों न प्रह्लाद को बचा कर मरे!
होलिका के आठ दिनों के संकल्प से शुरू हुआ होलाष्टक
होलिका प्रह्लाद को मारने का संकल्प तो ले लेती है, लेकिन 8 दिनों में वह अपने मन को तैयार करती है, इसी 8 दिनों को होलाष्टक कहते हैं. फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक शुरू होता है, इस तिथि से विवाह आदि के शुभ मुहूर्त समाप्त हो जाते हैं. 8वें दिन वह पूरी ताकत से सबके सामने आती है और प्रह्लाद को लेकर आग में खुद तो कूद जाती है, परंतु प्रह्लाद को आग के बाहर फेंक देती है. प्रह्लाद को चाहने वाले होलिका को माता कह कर जयकारा लगाते हैं, तो हिरण्यकश्यप के पक्षधर लोग होलिका की आलोचना करते हैं, तब से जयकारा भी और होलिका के लिए अपशब्दों का प्रयोग भी होलिका दहन के वक्त होता आया है.
योगनिष्ठ व्यक्ति को काम-क्रोध की अग्नि जला नहीं पाती
हिरण्यकश्यप जब निर्दयी था और अपने ही पुत्र को मारना चाहता था, तो कोई भी रास्ता अपना सकता था. यह तो होलिका की चाह थी कि वह अपनी आंखों से प्रह्लाद की मृत्यु होते नहीं देखे. शरीर जलता है, कर्म नहीं जल पाते. अवगुण सिर्फ नारी में ही नहीं, बल्कि पुरुषों में भी होते हैं, जो नहीं जल पाते. आग में कुछ डाला जाये, न जले, यह असंभव है. आग का गुण ही ज्वलनशीलता है. इस दृष्टि से प्रवृत्तियों को ही आग नहीं जला पाती. दूसरी तरफ प्रह्लाद का आग में न जलना अष्टांग योग की सफलता का भी सूचक है. योगनिष्ठ व्यक्ति को काम-क्रोध की अग्नि कदापि जला नहीं पाती.
(प्रस्तुति : रजनीकांत पांडेय)