janam kundali by date of birth and time: विषयोग एक ऐसा क्रूर योग जो अपने नकारात्मक प्रभाव से व्यक्ति की जीवन को बेहद संघर्ष पूर्ण बना देता है, जब पानी रूपी मन का कारक चंद्रमा और शनि रूपी विष से संयोग करता है, तो व्यक्ति अक्सर ग्रहस्थी और सन्यास के बीच फंस जाता है. विषयोग से पीड़ित व्यक्तियों को अक्सर असमंजस में ही फंसे देखा जाता है, शनि के दुष्प्रभाव में आकर मन का कारक चंद्रमा व्यक्ति के जीवन में विचित्र स्थितियां खड़ी कर देता है. आइए जानते है ज्योतिष एवं रत्न विशेषज्ञ संजीत कुमार मिश्रा से विषयोग के दुष्परिणाम और इसका निवारण…
प्राणियों के पूर्व के जन्मों में किये गए शुभ कर्मों का ही प्रतिफल ही विषयोग है. ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार, किसी भी जातक की जन्मकुंडली में यदि शनि एवं चन्द्र एक साथ बैठे हों तो, विषयोग निर्मित होता है. विषयोग मानव को उसके पूर्व के जन्मों में नारी के प्रति किये गए क्रूर-कठोर एवं अशोभनीय आचरण की ओर संकेत करता है. इस योग का प्रभाव जातक के जीवन में शत-प्रतिशत घटित होता है. इसीलिए इसे ज्योतिषशास्त्र के सर्वाधिक प्रभावशाली योगों में गिना जाता है.
जो जन्मकाल से आरंभ होकर मृत्यु पर्यंत अपने अशुभ प्रभाव देता रहता है. इस योग के समय जन्म लेने वाला जातक यदि कुत्ते को भी रोटी खिलाए तो देर-सवेर वह कुत्ता भी उसे काट खायेगा. कहने का तात्पर्य यह है कि इस योग वाली कुंडली का जातक अपने ही मित्रों सम्बन्धियों के द्वारा ठगा जाता है. ये लोग किसी भी व्यक्ति की मदद करते हैं, उनसे अपयश मिलना तय रहता है. कुंडली में शनि एवं चन्द्रमा की बलाबल स्थिति के अनुसार कुछ राहत की उम्मीद की जा सकती है.
कुंडली में जिस भाव में भी विषयोग बनता है, प्राणी को उस भाव से ही सम्बंधित कष्ट मिलते हैं अथवा उस भाव से सम्बंधित कारकत्व पदार्थों का अभाव रहता है. इसका सूक्ष्म विवेचन अष्टक वर्ग के ‘द्रेष्काण’ में गहनता से किया जाता है, जो जातक द्वारा पूर्व के जन्मों में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट की ओर संकेत करता है. पुनः वही स्त्री प्रतिशोध लेने के लिए मनुष्य योनि में विषयोग वाले प्राणी की मां, पत्नी, पुत्री बहन आदि के रूप में आती है.
अशुभ ग्रहों के कारण योग बन रहा है, तो व्यक्ति का जीवन नर्क के समान हो जाता है. ऐसा ही एक अशुभ योग है ‘विष योग’ जन्म कुंडली में विष योग का निर्माण शनि और चंद्रमा की युति से होता है. यह योग जातक के लिए बेहद कष्टकारी माना जाता है. नवग्रहों में शनि को सबसे मंद गति के लिए जाना जाता है और चंद्र अपनी तीव्रता के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन शनि अधिक पॉवरफुल होने के कारण चंद्र को दबाता है.
इस तरह यदि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली के किसी स्थान में शनि और चंद्र साथ में आ जाए तो विष योग बन जाता है. इसका दुष्प्रभाव तब अधिक होता है, जब आपस में इन ग्रहों की दशा-अंतर्दशा चल रही हो. विष योग के प्रभाव से व्यक्ति जीवनभर अशक्तता में रहता है. मानसिक रोगों, भ्रम, भय, अनेक प्रकार के रोगों और दुखी दांपत्य जीवन से जूझता रहता है. यह योग कुंडली के जिस भाव में होता है उसके अनुसार अशुभ फल व्यक्ति को मिलते हैं.
प्रथम भाव (लग्न)- इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है. उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है. शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है. जातक निरूत्साही, वहमी एवं शंकालु प्रवृत्ति का होता है. आर्थिक संपन्नता नहीं होती. नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है. विवाह देर से होता है. दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहता. इस प्रकार जीवन में कठिनाइयां भरपूर होती हैं.
द्वितीय भाव- घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण बचपन आर्थिक कठिनाई में व्यतीत होता है. पैतृक संपत्ति मिलने में बाधा आती है. जातक की वाणी में कटुता रहती है. वह कंजूस होता है. धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है. जीवन के उत्तरार्द्ध में आर्थिक स्थिति ठीक रहती है. दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है.
तृतीय भाव – जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है. वह नौकरी से धन कमाता है. भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है. नौकर विश्वासघात करते हैं. यात्रा में विघ्न आते हैं. श्वांस के रोग होने की संभावना रहती है.
चतुर्थ भाव- माता के सुख में कमी, अथवा माता से विवाद रहता है. जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है. मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परंतु अंतिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है. स्वयं दुखी दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है. उसके मृत्योपरांत ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है. पुरुषों को हृदय रोग तथा महिलाओं को स्तन रोग की संभावना रहती है.
पंचम भाव – शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है. वैवाहिक सुख अल्प रहता है. संतान देरी से होती है, या संतान मंदबुद्धि होती है. स्त्री राशि में कन्यायें अधिक होती हैं। संतान से कोई सुख नहीं मिलता.
षष्ठ भाव- जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं. ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती. व्यवसाय में प्रतिद्धंदी हानि करते हैं. घर में चोरी की संभावना रहती है.
सप्तम भाव- स्त्री की कुंडली में विष योग होने से पहला विवाह देर से होकर टूटता है, और वह दूसरा विवाह करती है. पुरूष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलंब करती है. पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है. संतान प्राप्ति में बाधा आती है. दांपत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता. साझेदारी के व्यवसाय में घाटा होता है. ससुराल की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती.
अष्टम भाव – दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं. टांग में चोट अथवा कष्ट होता है. जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती. उम्र लंबी रहती है. अंत समय कष्टकारी होता है.
नवम भाव – भाग्योदय में रूकावट आती है. कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है. यात्रा में हानि होती है. ईश्वर में आस्था कम होती है. कमर व पैर में कष्ट रहता है. जीवन अस्थिर रहता है. भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते है.
दशम भाव – पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते. नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है. पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है. आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती. वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता है.
एकादश भाव – बुरे दोस्तों का साथ रहता है. किसी भी कार्य में लाभ नहीं मिलता. संतान से सुख नहीं मिलता. जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है. बलवान शनि सुखकारक होता है.
द्वादश स्थान – जातक निराश रहता है. उसकी बीमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है. जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है. अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है.
संजीत कुमार मिश्रा
ज्योतिष एवं रत्न विशेषज्ञ
मोबाइल नंबर- 8080426594-9545290847
Posted by: Radheshyam Kushwaha